पाकिस्तान के हाईकोर्ट ने सोमवार को पाकिस्तान की पंजाब सरकार और जिला प्रशासन को नोटिस जारी किया। नोटिस में पूछा गया है कि आदेश दिए जाने के बावजूद लाहौर में शादमान चौक का नाम बदलकर शहीद भगत सिंह चौक क्यों नहीं किया गया।
इस मामले में भगत सिंह मेमोरियल फाउंडेशन पाकिस्तान ने याचिका लगाकर तीन टॉप अधिकारियों के खिलाफ अवमानना कार्रवाई की मांग की गई है। फाउंडेशन के अध्यक्ष इम्तियाज रशीद कुरैशी ने सुनवाई के बाद बताया कि लाहौर हाईकोर्ट ने शादमान चौक का नाम भगत सिंह के नाम पर रखने में विफल रहने की याचिका पर 26 मार्च तक जवाब मांगा है।
दरअसल, लाहौर हाइकोर्ट ने 2018 में पंजाब सरकार को आदेश दिया था कि लाहौर के शादमान चौक का नाम भारत के स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हुए भगत सिंह के नाम पर रखा जाए। हालांकि, इस फैसले पर सरकारों ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया।
लाहौर के शादमान चौक पर ही भगत सिंह को दी गई थी फांसी
शादमान चौक ही वो जगह है जहां 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने भगत सिंह को फांसी दी थी। क्षेत्र में रह रहे हिंदू, सिखों के अलावा मुस्लिम भी भगत सिंह का सम्मान करते हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पाकिस्तान के फाउंडर मोहम्मद अली जिन्ना ने 2 बार अपने भाषणों के दौरान भगत सिंह को भारतीय सब-कॉन्टिनेंट का सबसे बहादुर व्यक्ति बताते हुए श्रद्धांजलि दी थी।
पिछले साल सितंबर में लाहौर हाईकोर्ट ने भगत सिंह को 1931 में सजा मिलने के मामले को दोबारा खोलने से इनकार कर दिया था। दशकों पहले दायर की याचिका में भगत सिंह को मरणोपरांत राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए जाने का अनुरोध भी किया गया था। पाकिस्तान की कोर्ट ने इस पर भी आपत्ति जाहिर की थी।
सांडर्स केस के लिए भगत को लाहौर जेल भेजा गया
12 जून 1929 को ही भगत को असेंबली ब्लास्ट के लिए आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई थी। हालांकि, जो बंदूक असेंबली में भगत ने सरेंडर की थी, वो वही थी जिससे सांडर्स की भी हत्या की गई थी। इसकी भनक पुलिस को लग चुकी थी। इस केस के लिए भगत को लाहौर की मियांवाली जेल में शिफ्ट किया गया था।
लाहौर जेल पहुंचते ही भगत ने खुद को राजनीतिक बंदियों की तरह मानने और अखबार-किताबें देने की मांग शुरू कर दी। मांग ठुकरा दिए जाने के बाद 15 जून से 5 अक्टूबर 1929 तक भगत और उनके साथियों ने जेल में 112 दिन लंबी भूख हड़ताल की।
10 जुलाई को सांडर्स हत्या केस की सुनवाई शुरू हुई और भगत, राजगुरु और सुखदेव समेत 14 लोगों को मुख्य अभियुक्त बनाया गया। 7 अक्टूबर 1929 को इस केस में भगत, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी।
आखिरी बार पसंद का खाना भी न खा पाए भगत
भगत को पता था कि 24 मार्च को उन्हें फांसी होनी है। ऐसे में उन्होंने जेल के मुस्लिम सफाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए एक दिन पहले शाम को घर से खाना लाएं। हालांकि, उन्हें वो खाना कभी नसीब नहीं हो पाया। भगत को जब पता चला कि उन्हें 23 की शाम को ही फांसी होने वाली है तो उन्होंने कहा- क्या आप मुझे इस किताब (रिवॉल्यूशनरी लेनिन) का एक चैप्टर भी खत्म नहीं करने देंगे?
डरे अंग्रेजों ने जेल की पिछली दीवार तोड़ी और शव ले गए
भगत सिंह को फांसी की खबर फैलते ही जेल के बाहर भीड़ इकठ्ठा हो रही थी। इससे अंग्रेज डर गए और जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई। उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया।
अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाना था, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया। हालांकि, लोगों को भनक लग गई और वे वहां भी पहुंच गए। ये देखकर अंग्रेज अधजली लाशें छोड़कर भाग गए। बाद में परिजनों ने उनका अंतिम संस्कार किया।
तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरू हुआ। पुरुषों ने विरोध में अपनी बाहों पर काली पट्टियां बांध रखी थीं और महिलाओं ने काली साड़ियां पहन रखी थीं। इसके 16 साल बाद यानी 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश हुकूमत को हमेशा के लिए भारत छोड़कर जाना पड़ा।