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कमोबेश सभी मानक भाषाएं बोलियों को ‘खा’ रही हैं, पर इलाज क्या?

Updated on 08-03-2025 04:35 PM
तमिलनाडु में डीएमके सरकार के मुख्यमंत्री एम.के.स्टालिन ने भाजपा और केन्द्र सरकार से अपनी राजनीतिक लड़ाई में जिस तरह हिंदी को खलनायक बनाने की कोशिश की है, उसके  पीछे आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर वोटों की गोलबंदी तो है ही साथ में यह आरोप भी है हिंदी उत्तर भारत में अपनी पच्चीस बोलियों को खा गई। इस आरोप में आंशिक सच्चाई है, लेकिन इसके पीछे कारण वो नहीं है, जो स्टालिन अपने सियासी चश्मे से गिना रहे हैं। आज अगर मानक हिंदी अपनी उपभाषाअोंऔर बोलियों पर हावी हो रही है तो इसके पीछे बोलियों के संहार की मंशा न होकर मानक हिंदी भाषा का व्यावहारिक कारणों से बढता इस्तेमाल है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 96.71 फीसदी आबादी भारतीय मानक भाषाअों का प्रयोग करती हैं। बोलियों का विलुप्त अथवा धीरे धीरे चलन से बाहर होते जाना, यह समस्या अकेले हिंदी के साथ ही नहीं है बल्कि उन सभी संविधान मान्य 22 भारतीय भाषाअों के साथ है, जो अब अपने अपने राज्यों की राजभाषाएं भी हैं, जिसमे खुद स्टालिन की मातृभाषा तमिल भी शामिल है। मानक हिंदी के बढ़ते चलन के कारण हिंदी की 18 बोलियों का दायरा सिकुड़ जरूर रहा है, लेकिन यह कहना कि  हिंदी सु‍नियोजित तरीके से उनको ‘खा’ रही है, अपने आप में  कुत्सित भाव  लिए हुए है। स्टालिन को हिंदी के बारे में इतनी दुराग्रहपूर्ण गहरी जानकारी भी किसी ने दी ही होगी। अपने केन्द्र  पर सियासी वार में स्टालिन ने दावा किया कि  यूपी बिहार कभी हिंदी क्षेत्र नहीं थे तथा बीती एक सदी में जबरन हिंदी थोपने से उत्तर भारत की 25 भाषाएं समाप्त हो गईं। एक्स पर अपनी पोस्ट में स्टालिन ने कहा कि हिंदी के कारण भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, हो, खरिया, खोरठा, कुरमाली, कुरुख, मुंडारी, और कई सारी भाषाएं अब अस्तित्व के लिए हांफ रहे हैं। हालांकि भाजपा ने स्टालिन के इस बयान को ‘मूर्खतापूर्ण’ कहा है। भाषा विज्ञान के अनुसार यूपी की ‘पूर्वी हिंदी’ और बिहारी की ‘बिहारी हिंदी’ मानक हिंदी से थोड़ी अलग जरूर है, लेकिन वह हिंदी क्षेत्र का भाग नहीं है, यह सरासर असत्य है। 
अलबत्ता स्टालिन की पोस्ट में यह चिंता जरूर विचारणीय है कि हिंदी सहित सभी मानक भारतीय भाषाअों के अतिक्रमण से उनकी बोलियां और उपभाषाएं अपना वजूद कैसे बचाएं? खासकर वो बोलियां जो कभी मान्य भाषाएं ही थीं, लेकिन कालांतर में बोलियां बन कर रह गईं। जाने माने पत्रकार  पी. साईनाथ का कहना है कि अवधी, ब्रज, भोजपुरी जैसी भाषाअो को बोलियां कहना ही गलत है। हिंदी की तरह मानक कन्नड के कारण वास्तव में मान्य भाषाएं ही हैं, लेकिन अब मानक भाषाअों की दबंगई के आगे बोलियां कहलाने लगी हैं, प्रचलन से या तो बाहर होती जा रही है या फिर उनका दायरा ग्रामीण क्षेत्रों तक सिमटता जा रहा है। जहां तक आधुनिक और मानक हिंदी की बात है तो इसका इतिहास ही करीब डेढ़ सौ साल पुराना है। इसे भी शुरू में खड़ी बोली ही कहा जाता था। हिंदी के भी विद्वानों के अनुसार हिंदी के भी पांच रूप हैं। पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी, बिहारी हिंदी, राजस्थाुनी हिंदी और पहाड़ी हिंदी। इनमें भी विभिन्न कारणों से पश्चिमी हिंदी ही पहले खड़ी बोली और आज की मानक हिंदी के रूप में स्थापित हो गई है। यही राजभाषा भी है और विदेशियों के लिए भी ‘हिंदी’ से तात्पर्य इसी मानक हिंदी से है। शिक्षण संस्थानों में भी यही हिंदी पढ़ाई जाती है। हालांकि इस मानक‍ हिंदी का स्वरूप भी बदलता रहा है। यह हिंदी अपनी बोलियो से ही ऊर्जा प्राप्त करती है। साथ ही उसे अन्य भाषाअो से शब्द संपदा लेने से गुरेज नहीं है।  लिहाजा इसकी पाचन शक्ति  भी अंग्रेजी की तरह विराट है। यह हिंदी चाहे अनचाहे दूसरी भाषाअों से शब्द, तेवर और मुहावरे  लेती जा रही है और खुद को समृद्ध करती जा रही है।  ऐसा नहीं है कि भाषा का यह आदान- प्रदान एकतरफा हो, अन्य भारतीय भाषाएं भी व्यावहारिक तकाजों की वजह से हिंदी से शब्द और मुहावरे आयात कर रही हैं। कई बार तो यह आरोप भी लगता है कि हिंदीतर भारतीय  भाषाएं हिंदी के ‘अतिक्रमण’ से भी जूझ रही हैं। सच्चाई यही है कि आज आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक कारणों से भी हिंदी देश की सर्वाधिक स्वीकार्य भाषा स्वत: बनती जा रही है, जिसमें राजनीतिक पलीता लगाने की कोशिश बहुत ज्यादा सफल शायद ही हो। हिंदी की विराट पाचन शक्ति ही यदि अन्य भारतीय भाषाअों के पैरोकारो को भाषाभक्षी राक्षसी वृत्ति लग रही है तो यह उनका दृष्टि दोष है। आखिर 140 करोड़ के बहुभाषी, बहुजातीय और बहुसंस्कृति वाले देश में एक बहुमान्य संपर्क भाषा समय की मांग है। अगर प्रौद्योगिकी हमे भौतिक रूप से करीब ला रही है तो अभिव्यक्ति और परस्पर संवाद के स्तर पर भी एक ऐसी भाषा की नैसर्गिक दरकार है, जिसके जरिए भारत के नागरिक एक दूसरे से जुड़ सके। यह भाषा केवल हिंदी ही हो सकती है, क्योंकि वह इसी जमीन, देशज भाव और प्रेरणा और सांस्कृतिक आग्रह और दबाव से उपजी भाषा है। स्टालिन अगर चाहें कि हिंदी की जगह अंग्रेजी ले ले या फिर तमिल को यह ताज सौंपना चाहें तो यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। क्योंकि संपर्क भाषा वही बन सकती है, जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग बोल और समझ सकते हों। निश्चजय ही तमिल भाषा का अपना महत्व है, वह भी बहुदेशीय भाषा है, लेकिन भारत में वह हिंदी का विकल्प नहीं हो सकती।  
अब सवाल यह है कि क्या सचमुच हिंदी अपनी उन बोलियों को खा रही है, जो उसकी पूर्वज और काफी हद तक जन्मदात्रियां हैं। वर्तमान में हिंदी की कुल 18 बोलियां हैं। जो भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार अलग अलग क्षेत्रों में आज भी चलन में हैं। लेकिन विडंबना यह है कि जैसे-जैसे आधु निक शिक्षा और शहरीकरण बढ़ रहा है, बोलियों का साम्राज्य घट रहा है। बोलियां अब ग्रामीण क्षेत्रों तक सिमटती जा रही हैं। हालांकि उनमें भी साहित्य रचा जा रहा है, लेकिन उसकी मान्यता और लोकप्रियता सीमित है। दरअसल पढ़-लिख जाने और घर में बोली के उपयोग पर शर्म महसूस होना, बोली में संवाद को पिछड़ा या गंवारूपन समझने की भ्रामक मान्यता के कारण जिन घरों में कुछ साल पहले तक स्थानीय बोली बोलने का चलन था, उनमें भी अब मानक हिंदी ही बोलने और लिखने का चलन है। मीडिया की मुख्यल भाषा भी यही है। इसके लिए हिंदी दोषी नहीं है बल्कि आधुनिक और सभ्य कहलाने की हमारी अपनी बनाई परिभाषा है। अब तो यह हो गया है कि बच्चा स्कूल जाते ही धीरे धीरे पहले अपनी मातृबोली को तिलांजलि देता है फिर अंग्रेजी रंग में रंगने की कोशिश करता है। इसके लिए दोषी बच्चों के मां-बाप भी हैं, जो खुद ही घरो में बोली में संवाद बंद कर चुके हैं। बोलियां व पूर्वजों द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली भाषा को तजने के पीछे सोच यही है कि जब हिंदी जानने से ही         रोजगार नहीं मिलता तो बोली को जिंदा रखने से क्या हासिल होगा? यानी कमाई और कथित रूप से सभ्य कहलाने की चिंता समूची सांस्कृतिक चेतना पर हावी है। ऐसे में उनकी मूल बोली किसी मानक भाषा के कारण मर रही है, इसको लेकर कोई खास मलाल नहीं है।  भाव यही है कि अगर बोली से मातृभाषा और आंचलिक अस्मिता कायम रहने के अलावा कोई सुख नहीं मिल रहा तो इसे जिंदा रखने से क्या लाभ है? 
लेकिन यह समस्या केवल हिंदी की बोलियों की ही नही हैं अन्य भारतीय भाषाअों की भी यही कहानी है, जिसमें मराठी, बंगाली, कन्नड और ‍तमिल भी शामिल है। खुद तमिल की 21 बोलियां हैं। जिसमे मध्य तमिलनाडु में बोली जाने वाली तमिल को ही मानक भाषा माना जाता है। यह मानक भाषा ही पढ़ाई जाती है और साहित्य रचना भी मुख्य रूप से इसी भाषा में है। शासकीय व्यवहार की भाषा भी यही है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में बोली जानी वाली तमिल मद्रास बाशई (भाषाई) कहलाती है, जो तमिल के अलावा तेलुगू, कन्नड, उर्दू, संस्कृत मलयालम आदि भाषाअों का ‍िमश्रण है। इसकी तुलना बंबइया हिंदी से की जा सकती है। तमिल फिल्म इंडस्ट्री में इसी भाषा का प्रयोग होता है। यही संपर्क भाषा भी है। खास बात यह है कि तमिलनाडु में ब्राह्मणों द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली तमिल ब्राह्मण तमिल कहलाती है, जिसमें संस्कृत शब्द प्रचुर मात्रा में हैं। कहने कहने का आशय यह कि मानक तमिल भी तमिल बोलियों पर हावी हो रही है तो इसकी वजह व्यवहार में एकरूप तमिल की आवश्यकता है और जो कि स्वाभाविक है। इसी तरह अगर मानक हिंदी बोलियों का आंचल सिकोड़ रही है तो इसके पीछे उनका गला घोंटने की मंशा नहीं है, समय, सर्व सम्प्रेषणीयता और बढ़ते प्रादेशिक संपर्क की नैसर्गिक दरकार है।  
यह बड़ा सवाल है कि मानक भाषाअोंके दबाव के आगे बोलियो खुद को कैसे और किस रूप में बचाएं। इस सांस्कृतिक संपदा को आने वाली पीढि़यों तक कैसे पहुंचाएं, कैसे उन्हें प्राचीन भाषा और मृत भाषा के तमगे के बचाएं। इसका उत्तर हमे अपने आप से पूछना होगा। 

-अजय बोकिल 

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