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जनगणना: मोदी सरकार ने मंडल 3.0 का रिमोट विपक्ष से छीन लिया है? - अजय बोकिल

Updated on 03-05-2025 01:55 PM
केन्द्र मोदी सरकार द्वारा विपक्ष के दबाव के चलते इस साल देश में जाति गणना कराने के फैसले के साथ ही मंडल राजनीति 3.0 का आगाज भी हो गया है। मंडल 3.0 इसलिए क्योंकि इस फैसले के साथ हमे नए अंतर्संघर्षों के लिए भी तैयार हो जाना चाहिए। दूसरे, पहलगाम हमले में ‘कल्पना से भी कड़ी सजा’ के दावे के बीच अचानक इस ‘कास्ट स्ट्राइक’ को लेकर भी देश में भारी हैरानी है। उधर जाति जनगणना को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच श्रेय लेने की होड़ मची है, वहीं सियासी हल्कों में यक्ष प्रश्न यह है कि इस ‘ऐतिहासिक निर्णय’ का अंतिम राजनीतिक लाभांश किसके खाते में जाएगा? भाजपानीत एनडीए के या फिर कांग्रेसनीत इंडिया गठबंधन के? फायदा अगर दोनो को मिलेगा तो ज्यादा किसे मिलेगा? इस जातिवादी सियासत का असली धमाका तो तब होगा, जब जाति की जनसंख्या के आधार पर राजनीतिक व सरकारी नौकरी, ‍िशक्षा में अधिकाधिक आरक्षण की मांग को लेकर जातियों के भीतर तनाव और अंतर्संघर्ष बढ़ेगा, देश में आरक्षरण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी से बढ़ाने का दबाव बनेगा। अोबीसी जातियों की संख्याी व आबादी के खुलासे के बाद ठंडे बस्ते में पड़ी जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट लागू करने का दबाव भी मोदी सरकार पर बढ़ेगा। इस प्रश्न का उत्तर भी तलाशा जाएगा कि जाति गणना कराने से भाजपा और संघ की हिंदू एकीकरण की मुहिम को गहरी चोट पहुंचेगी या फिर यह अभियान जातीय अस्मिता के आवरण में और मजबूत होगा? वैसे जाति जनगणना के फैसले से सर्वाधिक आक्रोश अगड़ी जातियों में है। 
देश में मंडल-कमंडल राजनीति के उभार के साथ ही जाति का मुद्दा सियासत के केन्द्र में रहा है। पहले यह जातियों के वर्ग तक सीमित था, अब यह जातियों की संख्या और जनसंख्या की गिनती तक पहुंच गया है। इसे ही सामाजिक न्याय की संज्ञा दी जा रही है।   आजादी के बाद देश में हुई हर जनगणना में अजा/जजा वर्ग की आबादी की गणना तो होती रही है, लेकिन सभी जातियों के आधार पर जनसंख्या जन गणना से सरकारें बचती रही हैं। तर्क था कि इससे देश निचले स्तर विभाजित होगा। यहां तक कि डाॅ. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली यूपीए-2 सरकार ने भी 2011 की जनगणना में जातियों की सामाजिक-आर्थिक गणना कराई, लेकिन उसका डाटा जारी नहीं किया। बताया जाता है कि इस जनगणना में देश में 46 लाख जातियां सामने आईं, जिसे देख सरकार के होश उड़ गए। बाद में मोदी सरकार ने भी ये आंकड़े उजागर न करने में ही भलाई समझी। जाति जनगणना की मांग जोरशोर से उठाने वाले कांग्रेस नेता  राहुल गांधी ने भी यह मांग कभी नहीं की कि उनकी सरकार के दौरान हुई जातियों की आर्थिक-सामाजिक गणना के आंकड़े मोदी सरकार तो जारी करे। हालांकि अब राहुल गांधी ने मोदी सरकार द्वारा जनगणना के साथ ही जातिगणना कराने के निर्णय का स्वागत किया  और कहा कि सरकार हमारे दबाव में ही यह फैसला लेने पर विवश हुई है, लेकिन सरकार इसके आंकड़े जारी करने की टाइमलाइन भी स्पष्ट करे। 
जहां तक इस मांग को लेकर हिंदू एकता की बात करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक की बात है तो उसने पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजो के बाद केरल के पलक्कड में अायोजित बैठक में जातिगणना को हरी झंडी दे दी थी। संघ ने अपने आंतरिक मंथन में यह बूझ लिया था कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को बहुमत से 32 कम मिलने के पीछे प्रमुख कारण यूपी, बिहार, महाराष्ट्र इत्यादि राज्यों में कांग्रेस, सपा, राजद आदि दलों द्वारा जातिगणना कराने की मांग को मोदी सरकार द्वारा टालते जाना है। क्योंकि जाति जनगणना सीधे तौर पर आरक्षण की आकांक्षा से जुड़ी है। अोबीसी वर्ग में यह बेचैनी लगातार बढ़ रही थी कि उनकी जातियों की सही संख्या व जनसंख्या का प्रामाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं होने से उसे अपेक्षित सामाजिक- राजनीतिक न्याय नहीं मिल पा रहा है। दूसरी तरफ कल तक भाजपा और संघ का मानना था कि जातिवाद, हिंदू एकता के गुब्बारे के लिए सुई के समान है। क्योंकि जातियों में बंटते ही हिंदू गौरव, संकीर्ण जातिबोध में सिमट जाता है, जिससे सकल हिंदू एकता तार-तार होने लगती है। लेकिन लगता है कि यह सोच अब यू टर्न ले चुकी है। फोकस अब इस बात पर है कि चूंकि जाति हिंदू समाज की एक अनिवार्य बुराई है, लिहाजा इसके सकारात्मक राजनीतिक दोहन के बारे में ज्यादा सोचा जाना चाहिए।  
ऐसे में यह तय था कि कल तक जाति जनगणना के खिलाफ रही भाजपा इसके पक्ष में न सिर्फ फैसला लेगी बल्कि इसे आजादी के बाद देश में पहली बार कराने का श्रेय भी लेगी। ऐसे में संभव है कि योगी आदित्यनाथ अब नया नारा ‘बंटेंगे तो जुटेंगे’ भी दे दें। 
कहा यह भी जा रहा है ‍िक इसका  फैसला पहले ही हो चुका था, लेकिन चूंकि इस बार जनगणना डिजीटली होनी है, इसलिए जातिगणना की प्रक्रिया, पैमाने, जातियों के वैज्ञानिक वर्गीकरण और तकनीकी प्रावधान करने में वक्त लगा। बीते तीन दशकों में देश में जहां जातिवादी राजनीति के उभार ने यूपी-बिहार जैसे राज्यों में बरसों सत्ता में रही कांग्रेस के जनाधार को जातिवादी राजनीति करने वाले दलो की तरफ मोड़ दिया तो वहीं बाद में भाजपा और संघ ने अोबीसी के बड़े वर्ग को नए सिरे संगठित कर हिंदुत्व की पताका उसके हाथ में थमा दी। इसी का नतीजा है कि बीते एक दशक से देश की कमान नरेन्द्र मोदी के रूप में एक अोबीसी के नेता के हाथों में हैं। 
यहां गौरतलब है कि वर्तमान में अोबीसी वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण 1931 की जाति जनगणना के आंकड़ो के आधार पर ही ‍िदया जा रहा है, क्योंकि उसके बाद से जातिगणना हुई ही नहीं। उस के हिसाब से देश में सामान्य (अनारक्षित) वर्ग की 46 ( मुस्लिम, ईसाई, जैन, बौद्ध व पारसी के अलावा), अोबीसी की 2633, अजा वर्ग की 1270 व अजजा की 748 जातियां हैं। अब विस्तृत जाति जनगणना के बाद यह आंकड़ा कई गुना बढ़ सकता है। 
अगर अोबीसी की बात करें तो मोदी सरकार द्वारा अोबीसी वर्ग में आरक्षण के न्यायसंगत वितरण के लिए गठित जस्टिस रोहिणी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अोबीसी में जहां 10 जातियों ने आरक्षण का सर्वाधिक लाभ उठाया, वहीं 983 जातियों को इसका कोई फायदा नहीं मिला। इसलिए अायोग ने लाभान्वितता के आधार पर अोबीसी जातियों को चार उप श्रेणियों में बांटकर उनके आरक्षण की सीमा तय करने की सिफारिश की थी। यह रिपोर्ट राष्ट्रप‍‍ति के पास है। इस बीच बिहार और कर्नाटक जैसे राज्यों में सरकारों ने जाति सर्वे कराया है। लेकिन उसकी प्रामाणिकता पर सवाल है। चूंकि अोबीसी वर्ग में सर्वाधिक जातियां होंगी, इसलिए जाति जनगणना से इस वर्ग में जातियों का माइक्रो विभाजन बहुत ज्यादा हो सकता है। उस स्थिति में आरक्षण से वंचितों को उसका लाभ मिलने या ऐसी मांग करने वाली जातियों का नए सिरे ध्रुवीकरण होगा, लेकिन उसका वास्तविक सियासी लाभ वो पार्टियां ही प्रभावी ढंग से उठा पाएंगी, जिनके पास इस मुद्दे को वोटों में भुनाने के लिए सक्षम संगठन और राजनीतिक तंत्र हो। ऐसा मजबूत तंत्र फिलहाल भाजपा के पास ही दिखाई देता है। जाति जनगणना के बाद देश में राजनीतिक आरक्षण भी लागू होगा, जिसमें विधानमंडलों में सर्वाधिक सीटें अोबीसी के लिए ही आरक्षित करनी होंगी। साथ ही सभी जाति वर्गों में महिला आरक्षण की संख्या भी तय होगी। हालांकि संख्याप को ही आधार मानने पर योग्यता, गुणवत्ता और प्रतिभा के पैमाने हाशिए पर जा सकते हैं। जिसका खमियाजा देश को भुगतना पड़ सकता है। हालांकि  कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि जातीय विभाजक रेखाअों के बावजूद  काबिलियत की अहमियत और जरूरत कायम रहेगी।

बहरहाल मोदी सरकार का जाति जनगणना कराने का यह फैसला ‘राजनीतिक डेमेज कंट्रोल’ के साथ-साथ भविष्य की संकीर्ण जातिवादी राजनीति की नई रेखाएं खींचने का आगाज भी है। दक्षिणी राज्यों की राजनीति पर भी इसका असर दिख सकता है। देश में जातियों की संख्या और उसकी जनसंख्या के आंकड़े उजागर होने के बाद आरक्षण की नई छीना-झपटी शुरू होगी। इसमें कौन शेर साबित होगा, अभी कहना मुश्किल है। सवाल यह भी है कि क्या जाति जनगणना का मुद्दा लगातार उठाते रहने का असल फायदा कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों को होगा या फिर इस मांग को अमली जामा पहनाने और उसे राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने वाली भाजपा को होगा, यह सस्पेंस  दिलचस्प है। बेशक कांग्रेस व जातिवादी राजनीति करने वाले अन्य दल इस फैसले का श्रेय लेने का पूरा प्रयास करेंगे, और वो जायज भी है, लेकिन इसका लंबे समय तक सियासी फायदा उठा सकने वाले प्रभावी मैकेनिज्म और इको सिस्टम इन दलों के पास नहीं है। जातिवार जनसंख्या सामने आने के बाद जातिवादी दल अपने अंतर्विरोधों का शिकार भी हो सकते हैं। ‘एक राष्ट्र’ और ‘हिंदू एकता’ की बात करने वाली भाजपा इसमें अपनी प्रासंगिकता कैसे कायम रख पाती है, यह देखने की बात है।  इस मुद्दे की पहली अग्नि परीक्षा बिहार में छ: माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में हो जाएगी। जातिगणना के साथ भाजपा ये आंकड़े एकत्र करने, विश्लेषण करने और उसे जारी करने का क्रेडिट हर कदम पर लेने की भरपूर कोशिश करेगी। फिलहाल मोदी सरकार विपक्ष की मांग के आगे हथियार डालती भले नजर आए, लेकिन जाति  जनगणना की मांग मानकर उसने विपक्ष के हाथों से इस मुद्दे का रिमोट कंट्रोल बड़ी चतुराई से छीन लिया है। हालांकि जाति जनगणना हो भी जाए तो उसके आंकड़े कब और किस राजनीतिक दांव के तहत उजागर होंगे, कोई नहीं जानता।  

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