दुनिया की सबसे पुरानी और अब तक सक्रिय आधा दर्जन पाॅलिटिकल पार्टियों में से एक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अपने जन्म के 140 साल बाद खुद का भवन मिल गया। पार्टी का नया और स्थायी पता अब 9 ए कोटला रोड हो गया है। आजादी के पश्चात देश पर 60 साल तक राज करने वाली इस अनुभवी पार्टी को अपना दफ्तइर बनाने में इतने साल क्यों लग गए, यह भी अपने आप में शोध का विषय है। कुछ लोगों का मानना है कि राजनीतिक पार्टियों का मुख्य ध्येय सत्ता में बने रहना, अपनी विचारधारा के अनुरूप सरकार चलाना और जन कल्याण के काम करते है न कि भवन खड़े करना। काम तो कहीं से भी किया जा सकता है। क्या और कैसे किया जा रहा है, यह ज्यादा महत्वपूर्ण है। दूसरे शब्दों में कहें तो ज्यादातर सियासी पार्टियां संगठन को संस्थागत रूप देने में लापरवाह रहती हैं। उनका काम तदर्थवाद पर ही चलता रहता है। ऐसे में भवन खड़े करना या न करना बहुत मायने नहीं रखता। संस्थागत विकास के प्रति यह उदासीनता या विवशता अमूमन सत्ता गंवाने पर तो रहती ही हैं, सत्ता मिलने पर भी रहती है। यूं कुछ दूसरी पार्टियों ने समय रहते अपने भवन खड़े कर लिए हैं, लेकिन इस मामले में सबसे ज्यादा सजग भारतीय जनता पार्टी दिखती है, जिसने अपनी स्थापना के 38 साल बाद ( अगर इसमे पूर्ववर्ती जनसंघ को भी जोड़ लें तो 67 साल बाद) देश की राजधानी में अपना आलीशान दफ्तर बना लिया था।
बेशक, राजनीतिक काम अपने स्वयं के दफ्तअर से चले या किराए के मकान से, यह बात दीर्घकालिक लक्ष्य के लिहाज से भले गौण लगे, लेकिन पार्टी का स्वयं सुविधासम्पन्न दफ्तघर न केवल नेताअों बल्कि सम्बन्धित पार्टी के कार्यकर्ताअो को भी अलग तरह का आत्मविश्वास और आश्वस्ति प्रदान करता है, इसमें दो राय नहीं।
कांग्रेस के संदर्भ में यह बात और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह इस देश की लगभग डेढ़ सौ साल से मुख्य धारा की पार्टी रही है और अब भी सबसे बड़ा विपक्षी दल है। दुनिया में ऐसी गिनी-चुनी पार्टियां ही हैं, जिनकी स्थापना 19 वीं सदी की शुरूआत या उत्तरार्द्ध में हुई और वो अभी भी अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता कायम रखे हुए हैं। इनमें अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी व रिपब्लिकन पार्टी, ब्रिटेन की कंजरवेटिव और लिबरल पार्टी प्रमुख हैं। दुनिया के बाकी लोकतांत्रिक देशों में राजनीतिक पार्टियों का गठन ज्यादातर 20 वीं सदी की शुरूआत में हुआ। कुछ देशों में 19 वीं सदी में दलीय लोकतंत्र की शुरूआत हुई भी तो वो पार्टियां अब राजनीतिक नक्शों से गायब हैं।
अगर कांग्रेस की ही बात की जाए तो भारत में अंग्रेजों से आजादी के संघर्ष की मुख्य धारा रही है। वह स्वयं एक आंदोलन के रूप में जन्मी और स्वतंत्रता पाने तक केन्द्रीय भूमिका निभाती रही। कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को बंबई (अब मुंबई) में हुई थी। लेकिन तब से लेकर 15 अगस्त 1947 तक उसका अपना कोई स्थायी कार्यालय नहीं था। माना जाता है कि आजादी के पहले तक कांग्रेस का कामकाम इलाहाबाद स्थित आनंद भवन से चलता था, जो पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का पैतृक निवास था और बाद में उसे उनकी बेटी श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश को समर्पित कर िदया था। आनंद भवन से भी पहले कांग्रेस का काम अलग-अलग जगहों से संचालित होता रहा था। क्योंकि देश को आजाद कराना सबसे बड़ा लक्ष्य था। लेकिन अचरज की बात यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति और देश की सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रहने के बाद भी कांग्रेस को नहीं लगा कि उसका अपना दफ्त र भी होना चाहिए। जो जानकारी उपलब्ध है, उसके मुताबिक आजादी के बाद से लेकर अब नया भवन बनने तक कांग्रेस का दफ्तेर पांच जगहों पर चला। इस बीच देश ने कांग्रेस के 6 प्रधानमंत्री देखे। आनंद भवन के बाद कांग्रेस कार्यालय दिल्ली के 7 जंतर-मंतर से चला, जो 1969 तक कांग्रेस के पहले विभाजन तक रहा। इसके बाद कांग्रेस कार्यालय विंडसर प्लेस में शिफ्ट हुआ, जो तत्कालीन कांग्रेस नेता एम.वी. कृष्णा का निवास था। 1971 में कांग्रेस का दफ्तर वहां से हटकर 5 राजेन्द्र प्रसाद रोड पहुंचा। 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद 1978 में कांग्रेस कार्यालय 24 अकबर रोड शिफ्ट हुआ, जो नया भवन उद्घाटित होने के पहले तक कायम था। यह कांग्रेस सांसद जी वेंकटासामी का निवास था, जो विभाजन में इंदिराजी के साथ आ गए थे। तब इंदिरा गांधी अपने 20 समर्थको के साथ इस नए दफ्त र में दाखिल हुई थीं, जबकि पार्टी के 5 राजेन्द्र प्रसाद रोड पर कांग्रेस के मोरारजी देसाई गुट ने कब्जा कर लिया था। बताया जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1985 में (कांग्रेस स्थापना का शताब्दी वर्ष) में दिल्ली में 5 राजेन्द्र प्रसाद रोड पर पार्टी का एक आधुनिक भवन बनाना चाहते थे। इसके लिए कांग्रेस सांसदों को एक माह का वेतन देने के लिए भी कहा गया। लेकिन 1991 में राजीव गांधी की हत्या ने सब कुछ बदल दिया। बाद में यूपीए 2 राज में केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय नए नियमो के तहत कांग्रेस को भवन बनाने के लिए चार एकड़ का प्लाॅट आवंटित किया। उसी समय भाजपा को भी मुख्यालय भवन बनाने के लिए जमीन आवंटित की गइ थी।
कांग्रेस के नए भवन का शिलान्यास भी 2013 में तब हुआ, तब देश की सियासी तासीर बदल रही थी। अगले आम चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बुरी तरह बेदखल हो गई। लेकिन विपक्ष में रहते हुए भी पार्टी 12 साल में अपना भवन बना सकी। अगर इसकी तुलना भाजपा से करें तो उसने केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनते ही पहला काम अपना भवन बनाने का किया। 6 दीनदयाल मार्ग स्थित यह भवन 14 माह में बनकर तैयार हुआ। इसे किसी व्यक्ति के बजाए भारतीय जनता पार्टी भवन ही नाम दिया गया है। हालांकि इसकी लागत कितनी है, यह साफ नहीं है, लेकिन कांग्रेस कमलनाथ ने आरोप लगाया था कि भाजपा ने मुख्यालय के निर्माण पर 700 करोड़ रू. खर्च किए। जबकि कांग्रेस के नए मुख्यालय पर 292 करोड़ रू. खर्च होना बताया गया है।
मगर देर आयद, दुरूस्त आयद। कांग्रेस का अपना नया भवन बनकर उद्घाटित हो चुका है। लेकिन बवाल यहां भी पीछा नहीं छोड़ रहा। नए भवन को ‘इंदिरा भवन’ नाम दिया गया है। इस पर भी कई लोगों को ऐतराज है। कहा जा रहा है कि पार्टी कम से कम नामकरण के मामले में तो किसी गैर गांधी को श्रेय दे सकती थी। क्योंकि इस भवन को बनाने में इंदिराजी का कोई योगदान नहीं है। इसलिए भी क्योंकि पार्टी इन दिनो अंबेडकर के अपमान और संविधान बचाने का आंदोलन छेड़े हुए है। जबकि भाजपा स्व. इंदिराजी पर संविधान के अपमान और उसे बदलने का आरोप लगाती रही है। पार्टी चाहती तो नए भवन का नामकरण कांग्रेस भवन भी कर सकती थी, जिसमें कांग्रेस को बनाने में योगदान देने वाले सभी नेताअो और कार्यकर्ताअों का समावेश हो जाता।
किसी राजनीतिक पार्टी का मुख्यालय कब बनता है या नहीं बनता है, इस सवाल को गौण मानें तो भी यह प्रश्न बहुत मौजू है कि क्या नया भवन और पार्टी मुख्यालय कांग्रेस का सियासी भविष्य बदलेगा या नहीं? 2024 के आम चुनावों ने कांग्रेस के लिए थोड़ी उम्मीद जगाई थी, लेकिन विधानसभा चुनावों में वह धूमिल होती दिखी। पार्टी को स्थायी पता जरूर मिल गया है कि आने वाले वक्त में जनसमर्थन का ग्राफ कितना उछलेगा या और नीचे जाएगा, इसका पता खुद पार्टी नेताअोंको भी नहीं है। 24 अकबर रोड पर कार्यालय शिफ्ट करते वक्त श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था कि मैंने एक नहीं, दो दो बार पार्टी को शून्य से खड़ा किया है। मेरा मानना है कि कांग्रेस का नया मुख्यालय आने वाले दशकों में कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में ऊर्जा और उत्साह का संचार करता रहेगा।" क्या कांग्रेस के नए भवन के उद्घाटन समारोह में राहुल गांधी के संबोधन के बाद वैसा ही माहौल बन सकेगा कि कांग्रेस पहले जैसी निर्णायक स्थिति आ जाए या फिर वह अपने अस्तित्व के अंतिम चरण में जा पहुंचेगी, इसका जवाब आने वाला वक्त देगा। लेकिन यह पार्टी के अपने चश्मे की बात है। हालांकि किसी वास्तु का भी अपना महत्व होता है। नई वास्तु राजनीतिक लाभ का चौघडि़या लेकर आएगी या नहीं, कहना मुश्किल है।
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