नई दिल्ली । देश की सर्वोच्च अदालत के पूर्व जस्टिस मदन बी लोकुर ने उत्तर प्रदेश के धर्मांतरणरोधी नये कानून की पर असहमति जताते हुए कहा कि यह न्यायालय में टिक नहीं सकेगा, क्योंकि इसमें कानूनी एवं संवैधानिक दृष्टिकोण से कई खामियां हैं। उन्होंने यह भी कहा कि ‘सामाजिक न्याय’ का विचार ठंडे बस्ते में चला गया है, क्योंकि शीर्ष न्यायालय इस विषय पर उतनी सक्रियता नहीं दिखा रहा है, जितनी सक्रियता उसे दिखानी चाहिए थी। उन्होंने कहा कि ‘उत्तर प्रदेश विधि विरूद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020’ में कई खामियां हैं और यह न्यायालय में टिक नहीं पाएगा। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश दिवंगत राजेंद्र सच्चर पर पुस्तक ‘इन पर्सूट ऑफ जस्टिस-एन ऑटोबायोग्राफी’ के विमोचन के अवसर पर उन्होंने ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं न्यायपालिका’ विषय पर ये बातें कहीं। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कहा, ‘संविधान कहता है कि अध्यादेश तब जारी किया जा सकता है जब फौरन किसी कानून को लागू करने की जरूरत हो। जब विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा था तब इसे (अध्यादेश को) तुरंत जारी करने की क्या जरूरत थी? बेशक कुछ नहीं... कहीं से भी यह अध्यादेश नहीं टिकेगा।’
उन्होंने शीर्ष न्यायालय के बारे में कहा, ‘दुर्भाग्य से (कोविड-19) महामारी के चलते कुछ खास स्थिति पैदा हो गई और उच्चतम न्यायालय को बड़ी संख्या में लोगों के हितों, उदाहरण के लिए प्रवासी श्रमिकों, नौकरी से निकाल दिए गए लोगों, सभी तबके के लोगों के लिए पहले की तुलना में कहीं अधिक सक्रियता दिखानी पड़ी।’ पुस्तक को न्यायमूर्ति सच्चर के मरणोपरांत उनके परिवार के सदस्यों द्वारा विमोचित किया गया। न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) लोकुर ने कार्य्रक्रम को वीडियो कांफ्रेंस के जरिए संबोधित करते हुए कहा, ‘उच्चतम न्यायालय ने इस साल जैसा कार्य किया, उससे निश्चित तौर पर कहीं बेहतर किया जा सकता था। पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक न्याय का विचार ठंडे बस्ते में चला गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन हमें इसके साथ जीना होगा।’
उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को लोकोन्मुखी होना चाहिए और संविधान हर चीज से ऊपर है। उन्होंने कहा कि भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) एक व्यक्ति के साथ-साथ एक संस्था भी हैं और मामलों के आवंटनकर्ता होने के नाते, यदि वह कुछ मामलों को अन्य की तुलना में प्राथमिकता देते हैं तब एक संस्थागत समस्या होगी। उन्होंने यह भी कहा कि कोई भी किसी व्यक्ति को बगैर मुकदमा या सुनवाई के अनिश्चितकाल तक एहतियाती हिरासत में नहीं रख सकता है। पुस्तक विमोचन कार्यक्रम के अवसर पर पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने पूर्व न्यायाधीश लोकुर के इन विचारों से सहमति जताई कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामले पीछे छोड़ दिए गए हैं।
उन्होंने कहा कि हालांकि समस्या यह है कि शीर्ष न्यायालय ने काफी भार अपने ऊपर ले लिया है। उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि उच्चतम न्यायालय ने काफी भार अपने ऊपर ले लिया है। परंपरागत अदालतों की भूमिका काफी समय से निभाई जाती नहीं दिख रही। यदि आप अपने ऊपर बहुत ज्यादा भार ले लेते हैं, तो कभी-कभी प्राथमिकताओं में अंतर आ जाता है और इस तरह की अनिरंतरता आ जाती है। शीर्ष न्यायालय को इस तरह के मामलों को तत्परता से देखना चाहिए।’ पूर्वी अटार्नी जनरल ने उप्र के धर्मांतरण-रोधी कानून पर कहा कि कथित तौर पर जबरन धर्मांतरण एवं विवाह हो रहे हैं, अब एक कानून लाया गया है।
उन्होंने कहा, ‘कानून लाना विधायकों की इच्छा पर निर्भर करता है। न्यायालय सिर्फ इस चीज पर फैसला करेगा कि क्या यह संविधान के अनुरूप वैध है या नहीं।’ वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा, ‘शीर्ष न्यायालय न सिर्फ दो साल पहले, बल्कि कई साल पहले अपनी परंपरागत कार्य शैली से भटक गया। हो यह रहा है कि अत्यधिक राजनीतिक मुद्दों पर सुनवाई की जा रही है जबकि स्वतंत्रता से जुड़े मामलों को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। कश्मीर में एक साल से अधिक समय से लोगों को नजरबंद रखा गया। शीर्ष न्यायालय ने इस पर संज्ञान नहीं लिया। लोगों के संचार के माध्यम काट दिए गए, लेकिन शीर्ष न्यायालय इस विषय का हल नहीं करेगा।’ सिब्बल ने कहा, ‘मास्टर ऑफ रोस्टर (सीजेआई) यह फैसला करते हैं कि किस विषय पर सुनवाई होगी या अवकाश के बाद सुनवाई होगी। एक खामी है जिसे दुरूस्त करने की जरूरत है। आखिरकार संविधान, देश के लोगों, मूल्यों के प्रति आपकी प्रतिबद्धता है जिसे अवश्य बरकरार रखा जाना चाहिए।’