सब कोटा: सुप्रीम कोर्ट के फैसले से नया अंतरजातीय संघर्ष शुरू होगा..!
Updated on
03-08-2024 10:12 AM
आजादी के बाद 70 सालों से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की लाभार्थी जातियों के भीतर से आवाज उठने लगी थी कि आरक्षण का फायदा भी समान रूप से सभी जातियों को नहीं मिल रहा है। लिहाजा इस लाभ का वितरण नए और न्यायसंगत तरीके किया जाए।
विस्तार
देश में एससी/ एसटी (अनुसूचित जाति/ जनजाति) वर्ग में भी उप श्रेणी यानी कोटे में कोटा को मंजूरी और इन दोनो आरक्षित श्रेणियों में भी ओबीसी की तर्ज पर क्रीमी लेयर तय करने के सुप्रीम के 6:1 के बहुमत से दिए गए फैसले के दूरगामी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिणाम होंगे। हालांकि कुछ लोगों ने इसे संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया है, लेकिन ज्यादातर हल्को में इस फैसले का स्वागत हुआ है, क्योंकि देश में आरक्षण की जो कहानी 1882 में विलियम हंटर और ज्योतिबा फुले ने शुरू की थी, करीब डेढ़ सौ साल बाद इसमें एक नया और निर्णायक मोड़ आ गया है।
आजादी के बाद 70 सालों से सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की लाभार्थी जातियों के भीतर से आवाज उठने लगी थी कि आरक्षण का फायदा भी समान रूप से सभी जातियों को नहीं मिल रहा है। लिहाजा इस लाभ का वितरण नए और न्यायसंगत तरीके किया जाए।
दूसरे शब्दों में कहें तो आरक्षण का लाभ उठाकर आर्थिक व सामाजिक बेहतरी हासिल करने वाला एक नए किस्म का ‘ब्राह्मणवाद’ इन जाति वर्गों में भी आकार लेने लगा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सामाजिक न्याय के इसी आलोक में देखा जाना चाहिए, क्योंकि आरक्षित वर्ग के भीतर ही हितों के इस टकराव को लंबे समय तक अनदेखा नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद राज्य अपने यहां आरक्षित श्रेणियों में अधिक लाभान्वित और कम लाभान्वित जातियों का वर्गीकरण कर सकेंगे। हालांकि यह काम बहुत सावधानी और पारदर्शिता से करना होगा। इसके लिए सही आंकड़े जुटाने होंगे। केवल वोटों की गोलबंदी के बजाए आरक्षण के समान वितरण की समुचित प्रक्रिया अपनानी होगी।
इस फैसले का विरोध जिन हल्कों से हो रहा है अथवा होगा, वे मुख्यत: वो जातियां हैं, जिन्हें आरक्षण का तुलनात्मक रूप से ज्यादा लाभ मिला है। वे अपना एडवांटेज नहीं खोना चाहते। कई जगह तो यह लाभ अब पीढ़ीगत रूप में भी बदल गया है।
दरअसल ‘ब्राह्मणवाद’ का सबसे बड़ा दोष भी उसका जन्मगत होना ही है। पीढ़ी दर पीढ़ी आरक्षण ने भी इसी प्रवृत्ति को आरक्षित वर्ग में पनपाया है। आरक्षण की सुविधा ‘जन्मसिद्ध अधिकार’ में बदलने लगी है। हालांकि, इस मान्यता के विरोधी यह कमजोर तर्क जरूर देते हैं कि पैसे और पद भर से वो सामाजिक प्रतिष्ठा और समानता नहीं मिलती, जिसकी कि दलित और आदिवासियों को पहली दरकार है। मन से सामाजिक समता को स्वीकार करना और उसका आदर करना एक लंबी और दीर्घकालीन प्रक्रिया का हिस्सा है, जो जातिवाद की जो बुराई सैंकड़ों सालों में हिंदू समाज में गहरे तक घर कर गई है, उसका उच्चाटन होने में समय लगेगा। उसके लिए कानून के साथ-साथ समाज की मानसिकता बदलने की जरूरत है। धीरे- धीरे वह बदल भी रही है। लेकिन एक जातिविहीन अथवा समतामूलक समाज ‘काल्पनिक आदर्श’ स्थिति ज्यादा है।
इस बात का कोई ठोस पैमाना नहीं है कि वह कौन सी स्थिति होगी जिसे सौ फीसदी समता कहा जाएगा। क्योंकि सामाजिक समता के कई कारक है और ‘समता’ अपने आप में परिस्थिति, अवसर और संसाधन सापेक्ष शब्द है। दूसरे, तथाकथित ऊंची और नीची जातियों के बरक्स खुद आरक्षित जातियों के भीतर भी आंतरजातीय भेदभाव और छुआछूत कम नहीं है। इसे खत्म करना भी उतना ही जरूरी है।
आरक्षित जातियों में अवसरों का समान वितरण कैसे हो, इसके राजनीतिक प्रयास तो पहले से ही शुरू हो गए थे। मसलन दलितों में अति दलित अथवा महादलित, पिछड़ों में अति पिछड़ों को श्रेणियों में बांटकर उन्हें आरक्षण के लाभ देने की कोशिशें कुछ राज्यों ने पहले से शुरू कर दी थीं। लेकिन इसे सामाजिक न्याय के बजाए वोटों की गोलबंदी की पुनर्रचना के प्रयत्न के रूप में ज्यादा देखा गया। खासकर नीतीश कुमार ने बिहार में इसकी पहल तेजी की थी।
दुर्भाग्य से यह सच्चाई है कि आप किसी को कितना भी आरक्षण दें, लेकिन उसके वास्तविक लाभार्थी कुछ लोग अथवा जातियां ही होती हैं। अगर दलित या अनुसूचित जाति की ही बात करें तो देश में उनकी 16.6 फीसदी आबादी के आधार पर सरकारी नौकरियों में व शिक्षण संस्थानों में मोटे तौर पर 15 प्रतिशत और आदिवासियों को 8.6 प्रतिशत आबादी के हिसाब से 7.5 फीसदी आरक्षण दिया गया है।
अनुसूचित जाति वर्ग में यह आरक्षण कुल 1108 जातियों में बंटना होता है, लेकिन व्यवहार में वैसा होता नहीं है, क्योंकि सभी की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति व चेतना अलग- अलग है। यही कारण है कि जिन आरक्षित जातियों में अपने हितों और स्वाभिमान को लेकर ज्यादा चेतना है, वो आरक्षण का लाभ उतना ही ज्यादा उठा पाते हैं।
मोटे पर एससी श्रेणी में आरक्षण का फायदा करीब एक दर्जन जातियों ने ज्यादा उठाया है, जैसी कि जाटव, महार, मेहरा और अहिरवार आदि। लेकिन उन्हीं की एक हजार से आरक्षित बंधु जातियां इस मामले में बहुत पीछे छूट गई हैं।
अगर इस श्रेणी में सब कोटा होगा तो आरक्षण सुविधा का लाभ ज्यादा बेहतर और न्यायसंगत तरीके से वितरित हो सकता है। यही बात अनुसूचित जनजाति ( आदिवासी) वर्ग के लिए भी लागू होती है। वहां भी 744 जनजातियां हैं, लेकिन रिजर्वेशन का लाभ मुख्य रूप से गोंड, भील, संथाल आदि आदिवासियों ने ही उठाया है। इसका एक प्रमुख कारण शिक्षा और जागरूकता का अभाव भी है।
काफी कुछ यही स्थिति अति पिछड़ा वर्ग में भी हैं, जहां 5013 जातियां हैं, लेकिन उन्हें मिले 27 फीसदी आरक्षण में से लाभान्वित होने वाली प्रमुख जातियां यादव, कुणबी, कुर्मी, कलार, सोनी आदि ही हैं। हालांकि ओबीसी में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर की शर्त लगा रखी है। जिसके मुताबिक वर्तमान में 8 लाख रू. वार्षिक आय से ज्यादा वाले परिवार ओबीसी आरक्षण का लाभ नहीं ले सकते। जस्टिस रोहिणी आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में अोबीसी में सब कोटा बनाने की सिफारिश की है, जिस पर सरकार अभी तक खामोश है।
सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में जिन चार जजो ने क्रीमी लेयर की शर्त को एससी/ एसटी में भी लागू करने का सुझाव दिया है, उनमें जस्टिस बी. आर. गवई भी शामिल हैं। इसके पीछे भाव यह है कि जिन लोगों को आरक्षण की वजह आर्थिक-सामाजिक उत्थान हो जाए, वो आरक्षित सीट अपने दूसरे समाज व जाति बंधुअोंके लिए खाली करें। खास बात यह है कि जस्टिस गवई स्वयं अनुसूचित जाति से हैं और योग्यता के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के जज बने हैं।
सुप्रीम कोर्ट और निर्णय
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया मं बाबा साहब अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर ने कहा कि यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है, क्योंकि आरक्षण जातीय समानता के मूल भाव से दिया गया था न कि आरक्षित जातीयों में भी वर्गीकरण करने के उद्देश्य से। प्रकाश अंबेडकर ने यह भी कहा कि अगर सब कोटा बनाना ही है तो अनारक्षित (अगड़ी) जातियों में भी इसे लागू किया जाना चाहिए। लेकिन वो यह भूल गए कि मोदी सरकार ने अनारक्षित जातियों के लिए आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर शेष बचे 50 फीसदी में से 10 प्रतिशत आरक्षण दे दिया है। यह भी सब कोटा ही है।
यहां अनारक्षित और आरक्षित जातियों में अवसरों और प्रगति का बड़ा अंतर इसलिए दिखता है, क्योंकि अनारक्षित श्रेणी में जातियों की संख्या न्यूनतम यानी 46 ही हैं, जिसमे अल्पसंख्यक आबादी (ओबीसी को छोड़कर) भी शामिल है।
अनारक्षित 50 फीसदी कोटे का लाभ इन्हीं में वितरित होता है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि आरक्षित जातियो में से कोई भी अपना वर्ग छोड़कर इन अनारक्षित जातियों में शामिल नहीं होना चाहती। जबकि यहां अवसरों का वितरण बहुत कम जातियों में होता है। उल्टे जो जातियां अभी अनारक्षित हैं, वो भी आरक्षित श्रेणी में जाने के लिए लड़ रही है, जैसे कि महाराष्ट्र में मराठा जाति।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर अमल होने में वक्त लगेगा। क्योंकि इसके लिए जरूरी डाटा इकट्ठा करना होगा। हो सकता है कि सरकार अगले साल होने वाली जनगणना में इसे भी शामिल कर ले। लेकिन उसके भी पहले नई राजनीतिक गोलबंदियां तेज होंगीं। एससी/ एसटी में आरक्षण का ज्यादा लाभ उठाने वाली जातियां इस फैसले का विरोध करेंगी तो अल्प लाभ पाने वाली जातियां इसके समर्थन में जुटेंगी। यानी आरक्षित वर्गो में एक नया संघर्ष शुरू होने की संभावना है, जो सामाजिक न्याय और अवसरो की समानता की कोख से ही पैदा होगा।
जाहिर है कि राजनीतिक दल इसका अपने ढंग से लाभ उठाएंगे। इस साल के अंत में महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में होने वाले विधानसभा चुनावों में यह बड़ा मुद्दा बन सकता है। हालांकि सरकार इस फैसले पर कैसे अमल करती है, करना चाहती भी है या नहीं, यह भी जल्द स्पष्ट होगा। बहरहाल देश सामाजिक न्याय और समानता की लड़ाई के एक नए दौर में प्रवेश करने वाला है, यह निर्विवाद है।
भारतीय सेना ने पहलगाम की बैसरन घाटी में भारत की बेटियों का सुहाग उजाड़ने वाले निर्मम आतंकियों के खात्मे का ‘आॅपरेशन सिंदूर’ अंजाम देकर न सिर्फ जबर्दस्त बदला लिया है,…
पाकिस्तान को हमेशा गद्दारी करने पर भी भारत ने बड़ा हृदय रखकर क्षमादान परंतु पाकिस्तान हमेशा विश्वास घाट पर आतंकवादी षड्यंत्र किए पाकिस्तान ने हमारी सहनशक्ति के अंतिम पड़ाव पर…
12 सबसे बेहतरीन विरासतें..1. बुद्धिमत्ता (Wisdom)बुद्धिमत्ता स्कूलों में नहीं सिखाई जाती, यह जीवन के अनुभवों से प्राप्त होती है। माता-पिता ही सबसे अच्छे शिक्षक होते हैं। अपने बच्चों को मार्गदर्शन…
सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल में विधानसभाअों द्वारा पारित विधेयको को सम्बन्धित राज्यपालों द्वारा अनंत काल तक रोक कर ‘पाॅकेट वीटो’ करने की प्रवृत्ति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय…
रायपुर I छत्तीसगढ़ ने वित्तीय वर्ष 2025 में औद्योगिक निवेश के क्षेत्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। प्रोजेक्ट टूडे सर्वे द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में 218 नई…
भारतीय संविधान के शिल्पी डॉ. भीमराव अंबेडकर के जीवन से जुड़ा एक रोचक प्रसंग याद आता है जब एक बार विदेशी पत्रकारों का प्रतिनिधि मंडल भारत भ्रमण पर आया। यह प्रतिनिधि…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी दलों यानी इंडिया ब्लाक पर हमला करते हुए कहा है कि विपक्ष का एकमेव लक्ष्य परिवार का साथ और परिवार का विकास है। मध्यप्रदेश के…
महात्मा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा में हुआ था। ज्योतिबा फुले बचपन से ही सामाजिक समदर्शी तथा होनहार मेधावी छात्र थे, आर्थिक कठिनाइयों के कारण …