Select Date:

नोटा वोट ले सकता है, लेकिन जीत नहीं सकता..!

Updated on 14-05-2024 03:23 PM
इंदौर लोकसभा सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी द्वारा कांग्रेस प्रत्याशी द्वारा आखिरी क्षण में नाम वापसी और सूरत लोकसभा सीट पर भाजपा को छोड़ शेष सभी उम्मीदवारों द्वारा नाम वापस लेने के बाद मैदान में अकेले बचे ‘नोटा’ पर चर्चा तेज हो गई है। इंदौर और सूरत में फर्क यह है कि इंदौर में कुछ निर्दलीय प्रत्याशियों ने नामांकन वापसी से इंकार कर दिया तो सूरत में नोटा के रहते भाजपा प्रत्याशी को निर्विरोध निर्वाचित कर दिया गया। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या नोटा को सर्वाधिक वोट मिल सकने की स्थिति में विजेता कौन होगा ? दूसरे, क्या नोटा को भी पूर्ण प्रत्याशी माना जाना चाहिए? तीसरे, अगर ‘राइट टू रिजेक्ट’ के तौर पर चुनाव में अगर नोटा की कोई वास्तविक अहमियत नहीं है तो ईवीएम में इसके प्रावधान का औचित्य क्या है? 
हालांकि इंदौर और सूरत लोकसभा सीटों के मामले में थोड़ा फर्क है। इंदौर में सूरत पार्ट-1 तो हुआ, लेकिन पार्ट-2 नाकाम रहा। सूरत में चूंकि भाजपा को छोड़ सभी प्रत्याशियों ने किसी अदृश्य ‘डील’ के तहत नाम वापस ले लिए थे, इसलिए निर्वाचन अधिकारी ने उन्हें निर्विरोध निर्वाचित होने का प्रमाण पत्र मतदान के पहले ही सौंप दिया। जबकि इंदौर में कांग्रेस प्रत्याशी अक्षय कांति बम ने नामांकन वापसी के अंतिम दिन किसी रहस्यमय अंत:प्रेरणा के चलते भाजपा नेताअोंके साथ जाकर न केवल चुनाव मैदान से अपना नाम वापस लिया, बल्कि लौटकर खुद भी भाजपा में शामिल हो गए। इसी दौरान इंदौर के चुनाव मैदान में शामिल 14 निर्दलीय उम्मीदवार तमाम दबाव के बावजूद डटे हुए हैं। यानी ईवीएम में भाजपा प्रत्याशी के साथ 14 निर्दलीय व नोटा का नाम रहेगा।
इंदौर के इस अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम से भड़की कांग्रेस ने अब मतदाताअों से अपील की है कि वो उनके अधिकृत प्रत्याशी के अभाव में नोटा को वोट दें। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी ने तो अपील की है कि मतदाता ज्यादा से ज्यादा नोटा को वोट देकर क्रांतिकारी रिकाॅर्ड बनाएं। दूसरी तरफ इस जबरिया तोड़ फोड़ से खुद भाजपा में भी नाराजी है, जिसे इंदौर की पूर्व सांसद सुमित्रा महाजन ने यह बयान देकर उजागर किया कि भाजपा कार्यकर्ताअों के गले यह बात उतर नहीं रही है कि इंदौर की जो लोकसभा सीट भाजपा के लिए जीती ‍जिताई थी, उस पर कांग्रेस प्रत्याशी को रणक्षेत्र से हटवाकर भाजपा की बारात में शामिल करने का क्या औचित्य है? क्योंकि कांग्रेस के अक्षय कांति बम इतने दमदार भी नहीं थे कि कांग्रेस की जीत का विस्फोट कर पाते। सुमित्राजी के अनुसार ऐसे में भाजपाई ही लोगों से नोटा के पक्ष में मतदान करने की अपील कर रहे हैं। इस बयान को सही मानें तो इंदौर में कांग्रेस और भाजपा दोनो अपने अपने कारणों से मतदाता से प्रत्याशी की जगह नोटा को वोट देने की अपील कर रहे हैं। ऐसे में संभव है कि मतदाता उदासीन होकर वोट देने से ही परहेज करे या फिर नोटा को वोट करे। एक अर्थ में भाजपा की राजनीतिक जोड़ तोड़ ने मतदाता से चयन का अधिकार ही छीन लिया है। अगर सचमुच इंदौर के वोटरों ने बड़ी संख्या में नोटा का बटन दबाया ( जिसकी संभावना कम है) तो क्या चुनाव में नोटा जीतेगा? वर्तमान नियमों के तहत यह संभव नहीं है, क्योंकि चुनाव आयोग का नियम कहता है कि अगर अपवादस्वरूप किसी चुनाव में नोटा को सर्वाधिक वोट मिलते हैं तो चुनाव में प्राप्त वोटों की संख्या के हिसाब से नंबर दो पर रहा प्रत्याशी ही विजयी घोषित होगा। इसके अनुसार भाजपा के शंकर लालवानी ही दूसरी बार विजयी घोषित हो सकते हैं, बशर्तें वो सभी निर्दलीयों से ज्यादा वोट हासिल कर लें। हालांकि यह जीत जश्न मनाने वाली नहीं होगी। कहने का आशय यही है कि नोटा सर्वाधिक वोट तो ले सकता है, लेकिन चुनाव नहीं जीत सकता। नोटा ‘राइट टू रिजेक्ट’( नकारने के अधिकार) के तहत मतदाता के पास एक विकल्प है, जो किसी भी प्रत्याशी को वोट देना न चाहता हो, वो नोटा को वोट दे सकता है। लेकिन नोटा भौतिक प्रत्याशी नहीं है। चुनाव प्रत्याशी कोई हाड़ मांस का व्यक्ति ही हो सकता है। ऐसे में नोटा की मौजूदगी किसी को भी वोट न देने के अधिकार के तहत एक आभासी विकल्प के रूप में है। 
यहां बड़ा मुद्दा लोकतंत्र में मतदाता किसी को भी चुनने अथवा न चुनने के अधिकार का है। लोकतंत्र की विशेषता यही है कि इसमें मतदान के रूप में हर नागरिक की राजनीतिक सहभागिता होती है। यह एक बड़ा महत्वपूर्ण अधिकार है, जो हमे संविधान ने दिया है। यह अधिकार इस सकारात्मक भाव से जन्मा है कि देश की सत्ता का निर्धारण सामान्य नागरिक  भी बराबरी से करे। यानी यह अधिकार चुनने के लिए है, खारिज करने के लिए नहीं। बावजूद इसके अगर कोई वोटर चुनाव मैदान में मौजूद सभी प्रत्याशियो को अयोग्य अथवा अप्रिय मानकर नकारना चाहे तो उसके पास दो ही विकल्प बचते हैं। एक तो वह वोट करने ही न जाए। या फिर जाए तो ईवीएम/ बैलेट पेपर में कोई ऐसा प्रावधान हो कि वह किसी को वोट नहीं देना चाहता। अंग्रेजी के नोटा संक्षिप्त रूप का अर्थ ही है ‘ नन आॅफ द अबोव’ यानी उपरोक्त में कोई भी नहीं। इसकी शुरूआत 1976 में अमेरिका के कैलीफोर्निया राज्य की सांता बारबरा काउंटी की म्यूनिसिपल इंफर्मेशन काउंसिल में लागू करने से हुई थी। बाद में भारत में पीयूसीएल ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाकर यहां भी नोटा लागू करने की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकारते हुए आदेश ‍िदया। जिसके  बाद चुनाव आयोग ने पहली बार 2013 के विधानसभा चुनावों में चार राज्यों, जिनमें मध्यप्रदेश भी शामिल था, उसे लागू किया। बाद में इसे सभी चुनावों की ईवीएम में शामिल किया गया।
अब विवाद इस बात को लेकर है कि क्या नोटा को भी प्रत्याशी माना जाना चाहिए है या नहीं। अभी तक चुनाव आयोग नोटा को काल्पनिक प्रत्याशी मानता आया है, इसलिए उसका प्रतीकात्मक महत्व ही है। नोटा में पड़े वोटों से नतीजों पर असर नहीं पड़ता। बहुत से लोगों का मानना है कि नोटा का विचार ही मूलत: नकारात्मक अथवा किसी को चिढ़ाने की सोच से उपजा है, ठीक वैसे ही कि भारत में कुछ चुनावो मतदाता ने किसी स्थापित राजनेता अथवा नए चेहरे के बजाए किन्नर को चुना। लेकिन समाज का एक वर्ग नोटा को भी ‘राइट टू रिजेक्ट’ के तहत पूर्ण प्रत्याशी मनवाने का आग्रही है। जाने माने मोटिवेशनल स्पीकर शिव खेडा ने ‘सूरत कांड’ के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई है कि नोटा को भी वास्तविक प्रत्याशी माना जाए। इस पर सुप्रीम कोर्ट क्या निर्णय देता है, देखने की बात है। यदि सुप्रीम कोर्ट ने यह याचिकाकर्ता की बात मान ली तो सूरत जैसे मामलो में भी चुनाव प्रत्याशी और नोटा के बीच होगा, भले ही एक को छोड़ बाकी प्रत्याशी नाम वापस ले लें।  
जहां तक मतदाताअों में नोटा की लोकप्रियता की बात है तो शुरू में इसके प्रति रूझान थोड़ा ज्यादा दिखाई पड़ा था। मध्यप्रदेश के 2018 के विधानसभा चुनाव में दो प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों का अंतर 1 प्रतिशत से भी कम था। इससे ज्यादा वोट नोटा को मिले थे। अगर ये वोट किसी एक पार्टी के पक्ष में जाते तो उसे पूर्ण बहुमत मिल सकता था। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब पहली बार नोटा का प्रावधान किया गया था, उस वक्त नोटा में कुल वोटों का 1.08 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन 2019 में पहले की तुलना में ज्यादा वोटिंग के बावजूद नोटा की हिस्सेदारी घटकर 1.06 फीसदी रह गई। इस लोस चुनाव में कितने लोग नोटा को पसंद करते हैं, यह देखने की बात है। अगर ये शेयर ज्यादा बढ़ा तो राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी होगा।

अजय बोकिल, लेखक,वरिष्ठ संपादक 


अन्य महत्वपुर्ण खबरें

 16 November 2024
महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति और कांग्रेसनीत महाविकास आघाडी के लिए इस बार का विधानसभा चुनाव जीतना राजनीतिक  जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। भाजपा ने शुरू में यूपी के…
 07 November 2024
एक ही साल में यह तीसरी बार है, जब भारत निर्वाचन आयोग ने मतदान और मतगणना की तारीखें चुनाव कार्यक्रम घोषित हो जाने के बाद बदली हैं। एक बार मतगणना…
 05 November 2024
लोकसभा विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हो चुके हैं।अमरवाड़ा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी कमलेश शाह को विजयश्री का आशीर्वाद जनता ने दिया है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 29 की 29 …
 05 November 2024
चिंताजनक पक्ष यह है कि डिजिटल अरेस्ट का शिकार ज्यादातर वो लोग हो रहे हैं, जो बुजुर्ग हैं और आमतौर पर कानून और व्यवस्था का सम्मान करने वाले हैं। ये…
 04 November 2024
छत्तीसगढ़ के नीति निर्धारकों को दो कारकों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है एक तो यहां की आदिवासी बहुल आबादी और दूसरी यहां की कृषि प्रधान अर्थव्यस्था। राज्य की नीतियां…
 03 November 2024
भाजपा के राष्ट्रव्यापी संगठन पर्व सदस्यता अभियान में सदस्य संख्या दस करोड़ से अधिक हो गई है।पूर्व की 18 करोड़ की सदस्य संख्या में दस करोड़ नए सदस्य जोड़ने का…
 01 November 2024
छत्तीसगढ़ राज्य ने सरकार की योजनाओं और कार्यों को पारदर्शी और कुशल बनाने के लिए डिजिटल तकनीक को अपना प्रमुख साधन बनाया है। जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखते…
 01 November 2024
संत कंवर रामजी का जन्म 13 अप्रैल सन् 1885 ईस्वी को बैसाखी के दिन सिंध प्रांत में सक्खर जिले के मीरपुर माथेलो तहसील के जरवार ग्राम में हुआ था। उनके…
 22 October 2024
वर्तमान समय में टूटते बिखरते समाज को पुनः संगठित करने के लिये जरूरत है उर्मिला जैसी आत्मबल और चारित्रिक गुणों से भरपूर महिलाओं की जो समाज को एकजुट रख राष्ट्र…
Advertisement