नई दिल्ली । नेपाल में संविधान भंग करने की सिफारिश स्वीकार किए जाने के बाद के घटनाक्रम पर भारत की नजर बनी हुई है। नेपाल की राजनीति पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि संसद भंग करने का ओली सरकार का फैसला असंवैधानिक है। इससे नेपाल का सियासी संकट बढ़ेगा। जानकार मानते हैं कि ओली अंदरूनी सियासत में लगातार कमजोर पड़ रहे थे। उनकी पकड़ पार्टी में भी ढीली पड़ गई थी। संवैधानिक परिषद के मसले पर भी टकराव बढ़ गया था। प्रचंड से उनकी सियासी दूरी बढ़ती जा रही थी। इस्तीफे का दबाव भी उन पर था। विशेषज्ञ मानते हैं कि बहुमत हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री द्वारा संसद भंग करने का प्रावधान नहीं है। जबतक संसद द्वारा सरकार गठन की संभावना है तब तक सदन को भंग नहीं किया जाना चाहिए। विशेषज्ञों के मुताबिक, नेपाल के नए संविधान में सदन भंग करने को लेकर कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। प्रधानमंत्री का कदम असंवैधानिक है और इसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है। नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के मद्देनजर भी संसद भंग करने का प्रावधान नहीं रखा गया था। पूर्व राजनयिक जी पार्थसारथी ने कहा- राष्ट्रपति ने किन हालात में संसद भंग करने की सिफारिश स्वीकार की, यह कहना मुश्किल है, लेकिन नेपाल के हालात जटिल हैं, नेपाल की अस्थिरता भारत के लिए अच्छी नहीं है, लेकिन ओली की राजनीति जिस तरह की भारत विरोधी रही है उससे भविष्य के घटनाक्रम महत्वपूर्ण होंगे, भारत चाहेगा कि वहां चीन का दखल नहीं बढ़े। जी पार्थसारथी ने कहा कि ओली को अपने ही सहयोगियों से चुनौती मिल रही थी। वे चीन के ज्यादा निकट हो गए। उन्होंने भारत की सुरक्षा चिंताओं की अनदेखी की। इसके चलते भी उनका नेपाल में विरोध हुआ था। पार्थसारथी ने कहा कि ओली एक तरह से चीन के पिट्ठू बन गए थे, जबकि भारत नेपाल का परंपरागत विश्वसनीय मित्र राष्ट्र हैं। भारत और नेपाल की सांस्कृतिक जड़ें काफी गहरी हैं। नेपाल की उठापटक पर भारत और चीन दोनों की नजर रहेगी। वहां के आंतरिक मामलों में पड़े बिना भारत अपने हितों के मुताबिक नजर बनाए रखेगा। जानकार मानते हैं कि नेपाल के राजनीतिक घटनाक्रम का पूरे इलाके पर असर पड़ता है। इसलिए भारत चाहेगा कि नेपाल में संविधानसम्मत तरीके से सरकार गठन की प्रक्रिया हो। विशेषज्ञों का मानना है कि ओली सरकार के ताजा फैसले के कानूनी व सुरक्षा से जुड़े प्रभाव हो सकते हैं।