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लोकसभा चुनाव 2024: एक नजर ‘राजनीतिक मुजरे’ पर भी!

Updated on 31-05-2024 03:00 AM
सार
बात मुजरे की। यूं तो इस देश में हर चुनाव नेताओं का जनता के आगे वोटों की खातिर ‘मुजरा’ ही होता है लेकिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी ने विपक्ष को निशाने पर लेते हुए उसे मुस्लिम वोटों की खातिर अल्पसंख्यकों के आगे ‘मुजरा’ करने वाला बताया तो विपक्ष भड़क उठा।

विस्तार
इसके पहले कि ‘म’ से शुरू होने वाला हिंदी का कोई नया शब्द इस चुनाव में राजनीतिक रंगत और मजहबी तल्खी लेकर आए, चुनाव आयोग को धन्यवाद कि वह लोकसभा चुनाव सातवें चरण में ही निपटा रहा है। इन सात चरणों में ‘म’ के पहाड़े में अंतिम ( ऐसा मान लेने में हर्ज नहीं) और छठा शब्द ‘मुजरा’ रहा। अगर इसे चरणवार देखें तो चुनाव के पहले चरण के पूर्व ‘म’ से मछली के साथ इसकी शुरुआत हुई। देवी भक्तों के नवरात्रि के उपवास शुरू होने के साथ इंडिया गठबंधन द्वारा ‘खाने की आजादी’ के संदेश के साथ सनातनियों की भावनाओं पर यह पहली चोट थी, जिसमें राजद नेता तेजस्वी यादव और विकासशील इंसान पार्टी के अध्यक्ष मुकेश साहनी ने साथ में मछली भक्षण के स्वाद का वीडियो वायरल किया।

यह बात अलग है कि साहनी खुद एनडीए में बीजेपी द्वारा उनके बजाए ‘बड़ी मछली’ को तवज्जो दिए जाने से नाराज होकर राजद गाड़ी में सवार हो गए। उसके बाद ‘म’ का सफर मंदिर, मस्जिद, मटन और मंगलसूत्र से लेकर मुजरे पर आ टिका। ‘म’ से शुरू होने वाले हिंदी शब्दों में कितनी राजनीतिक ताकत, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष वार करने की ताकत होती है, यह पूरे देश ने देखा। यानी जो सिलसिला मछली से शुरू हुआ था, फिलहाल उसे मुजरे पर जाकर खत्म समझा जाए।
मुजरे का यह समापन किसके हक में होगा, यह तो 4 जून को तय होगा। तब तक दावों की महफिलों में जीत का मुजरा करते रहने का हक हर किसी को है। वैसे ‘मुजरा’ पसंद करने वाले कई शौकीन इस शौक का दि एंड स्वादिष्ट मछली खाकर भी करते रहे हैं।
वोटों की खातिर ‘मुजरा’
बहरहाल बात मुजरे की। यूं तो इस देश में हर चुनाव नेताओं का जनता के आगे वोटों की खातिर ‘मुजरा’ ही होता है लेकिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी ने विपक्ष को निशाने पर लेते हुए उसे मुस्लिम वोटों की खातिर अल्पसंख्यकों के आगे ‘मुजरा’ करने वाला बताया तो विपक्ष भड़क उठा। विपक्षी नेताओं ने मोदी पर निहायत घटिया भाषा के इस्तेमाल का आरोप लगाया।
यह बात दूसरी है कि प्रधानमंत्री भाषा को लेकर उन पर लगाए गए आरोपों की चिंता करने में वक्त नहीं गंवाते। वो नित नए शब्दों और व्याख्याओं की खोज में रहते हैं, जिनके हर बार नए और सधे हुए राजनीतिक मायने सिद्ध हों। हालांकि विपक्ष चाहता तो इसी ‘मुजरे’ को यह कहकर उलटा सकता था कि अगर मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए की जाने वाली हर राजनीतिक कोशिश और कॉम्प्रोमाइज ‘मुजरा’  है तो बहुसंख्यक हिंदू वोट हासिल करने के लिए की जाने वाली सियासी तदबीरें क्या हैं? लेकिन उसने वैसा नहीं किया। 
यूं मुजरा अरबी भाषा का शब्द है और उसका अर्थ है, झुककर अभिवादन करना। अलबत्ता अभिवादन की इस कसरती शैली में आदर के साथ साथ लाचारी, चापलूसी और सामंती शैली का महिमामंडन भी शामिल रहा है। जो किसी के आगे नहीं झुकता, वो मुजरा क्यों करे?
वैसे मराठी भाषा में ‘मुजरा’ एक सम्माननीय और कुलीन शब्द है। लेकिन चुनाव के दौरान  विपक्ष ने इस मुजरे को जिस अर्थ में लिया और पीएम का संकेत भी शायद उसी ओर था, वह था, ‘मुजरे’ का तवायफों के नृत्य से रिश्ता। तवायफें ये मुजरा अपने ग्राहकों को खुश करने के लिए करती रही हैं।
यह उनकी आजीविका का साधन है। आज भी कई शहरों में वेश्याओं के इलाके में ‘मुजरे’ होते हैं। हिंदी फिल्मों में तो ‘मुजरे’ को बहुत ग्लैमराइज किया गया है। मुगलकाल में मुजरे का अर्थ बादशाहों, राजाओं के आगे अदब से झुक कर तीन बार सलाम करना ही था, इस संस्कृति को उस जमाने में हर राजा और नवाब ने अपना लिया था, जो अंग्रेजों के आने के बाद ही बंद हुआ।
मुजरे की अलग- अलग परिभाषाएं
अब लोकतांत्रिक भारत में मुजरे की अलग- अलग परिभाषाएं हैं। मसलन मुसलमानों को आरक्षण के लिए किया जाने वाला मुजरा ‘ साम्प्रदायिक मुजरा’ है तो एससी/एसटी/ओबीसी आरक्षण को कायम रखने के लिए किया जाने वाला मुजरा ‘सामाजिक न्याय वाला मुजरा’ है।
अपनी सत्ता को बचाने के लिए गया मुजरा देशहित में किया गया मुजरा है तो सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े बड़े वादों का मुजरा देशविरोधी मुजरा है। जमीनी और रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े मुद्दे उठाना ‘जमीनी मुजरा’ है तो सपनो का रॉकेट आसमान में उड़ाना ‘सपनीला मुजरा’ है।
यूं  चुनाव में राजनेता और राजनीतिक दल कोई सा भी मुजरा करें, लेकिन सियासी पार्टियों के कामकाज और नेतृत्व के राग रंग देखें तो लगता है कि असली मुजरा तो वहीं हो रहा है। आज देश में शायद ही कोई ऐसी पार्टी हो, जिसमें आगे बढ़ने के लिए नेताओं कार्यकर्ताओं को जमे हुए नेताओं के आगे  मुजरा न करना न पड़ता हो। फर्क इतना है कि यहां नाम अलग- अलग होते है। कहीं वह हाईकमान है तो कहीं शीर्ष नेतृत्व। कहीं वह कमेटी तो कहीं बोर्ड तो कहीं ब्यूरो।
आज कांग्रेस से लेकर भाजपा तक में कोई दावे के साथ नहीं कह सकता कि रहनुमाओं के रहमो-करम के बगैर वहां कोई बंदा एक इंच भी आगे बढ़ा हो। कब क्षत्रप कहे जाने वाले बंदे रहनुमाओं का हुक्का भरने लगे, कहा नहीं जा सकता। राजनीतिक मुजरे की एक खासियत यह भी है कि यहां बादशाह की मानिंद जो एक बार मसनद पर जम गया, वह किसी के हिलाए नहीं हिलता।तवायफों के यहां मुजरे की महफिल तो रात में शमा बुझने के साथ खत्म हो जाती है, लेकिन राजनीतिक मुजरे की मशाल कभी बुझती नहीं है।
फकत शकलें बदल जाती हैं। किरदार वही और उसी रौब में रहते हैं। इसी तरह तवायफों के मुजरे में ग्राहक को सबकुछ मानकर उसे खुश करना ही उद्देश्य होता है। लेकिन राजनीतिक मुजरे में कई फैक्टर काम करते हैं। जिसमें आला हुजूर की खुदा की मानिंद तारीफ और हर वक्त और शै में कसीदे काढ़े पाने का हुनर भी शामिल है।
राजनीतिक मुजरे के कार्टूनों को हर घड़ी हाईकमान के इकबाल की बुलंदी के रखवाले की भूमिका में जीना पड़ता है। जरा भी चूके तो कुर्सी गई समझो। कभी कांग्रेस में ऐसा ही हुआ करता था आजकल भाजपा में शिद्दत से हो रहा है। इसके बरक्स परिवारवादी पार्टियों का मुजरा थोड़े अलग किस्म का है।
यहां परिवार के लोग ही ग्राहक और तवायफ दोनों भूमिका में एक साथ होते हैं। लिहाजा उनकी राजनीतिक नृत्य शैली में ज्यादा प्रकार नहीं होते। लिहाजा यहां रेवड़ी भी अंधों की तरह बंटती है। इनके अलावा एक चौथी नस्ल भी है, जो अपनी जाति या समाज के आधार पर राजनीतिक मुजरों का स्टार्ट अप चलाती है। यानी कि एक मुजरे में तबला बजाने वाला कब दूसरी पार्टी की महफिल में हारमोनियम बजाने लगे, कह नहीं सकते। वैसे भी मुजरे की महफिल साज बजाने वाले साजिंदों की अपनी अलग सियासत होती है। कभी वो ग्राहक का दामन थाम लेते है तो भी तवायफ के आंचल से किस्मत बांध लेते हैं। राजनीतिक शब्दावली में इन सियासी साजिंदों को छोटे और सौदेबाज दल कहा जाता है। ये कब किसके आगे घूंघट उठा दें और कब गिरा दें, कहा नहीं जा सकता।
एक और फर्क भी है। तवायफों के मुजरे को तथाकथित संभ्रांत लोग भले घटिया माने, लेकिन तहजीब और शालीनता का पर्दा वहां अब भी कायम रहता है। शायद इसीलिए गुजरे जमाने में अमीर और रसूख वाले लोग अपनी औलादों को तहजीब और नफासत सीखने के लिए तवायफों के पास भेजा करते थे। लेकिन लगता है कि आजकल के राजनीतिक मुजरों में ये एलिमेंट पूरी तरह से डिलीट हो चुका है। कोठेवालियों के भी अपने कुछ उसूल और मर्यादाएं थीं, राजनेता इस मामले में तवायफों को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं।
यहां हर नाच सत्ता की ताल पर होता है। ऐसे में राजनीति को मुजरा कहा जाए तो वह इल्जाम कम आत्म स्वीकृति ज्यादा है। मिर्जा गालिब बहुत पहले कह गए थे- ये बंद कराने आये थे तवायफों के कोठे मगर सिक्के की खनक सुनकर खुद मुजरा कर बैठे।
अजय बोकिल, लेखक, संपादक 

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