लोकसभा चुनाव परिणाम और राहुल गांधी : पूर्णकालिक राजनेता या पॉलिटिकल एक्टिविस्ट बदल रही है छवि
Updated on
20-06-2024 04:35 PM
सार
इसमें दो राय नहीं कि दो भारत जोड़ो यात्राओं, चुनाव में जमीनी मुद्दे उठाने, प्रधानमंत्री मोदी को अहंकारी बताने ( जो अब संघ भी कह रहा है), जनता की जगह अपना एजेंडा चलाने जैसी बातों से राहुल की भाजपा विरोधियों में यह छवि तो बनी है कि वो निडरता से अपनी बात कहते हैं, भले ही कुछ लोगों को अभी भी उसमें अपरिपक्वता नजर आती हो।
चुनाव में हारी या तगड़ा झटका खाई किसी भी राजनीतिक पार्टी में उत्तर चुनाव घमासान कोई नई बात नहीं है। भाजपा के बजाए एनडीए के सहारे तीसरी बात सत्ता में लौटने वाली भाजपा में यही हो रहा है। हार के लिए ठीकरे तलाशे जा रहे हैं तो दूसरी तरफ विपक्षी एनडीए के चुनाव प्रचार में मुख्य चेहरा रहे कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भावी राजनीतिक संभावनाओं के सकारात्मक संकेत मिल रहे हैं।
इसके पक्ष में कई राजनीतिक विश्लेषक एक दशक बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन के साथ कांग्रेस का 99 सीटें जीतकर मजबूत विपक्ष के रूप में उभरना और चुनाव बाद सीएसडीएस- लोकनीति द्वारा कराए पोस्ट पोल सर्वे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी की लोकप्रियता में अंतर का लगातार घटना है।
राहुल गांधी का पॉलिटिकल करियर और छवि
दरअसल, इसका सीधा अर्थ यही है कि तमाम विरोधाभासों और आलोचनाओं के बाद भी राहुल गांधी की स्वीकार्यता देश में बढ़ रही है। अगर यही ट्रेंड आगे भी रहा तो 2029 के लोकसभा चुनाव में राहुल देश के अगले प्रधानमंत्री होने के मजबूत दावेदार के रूप में देखे जा सकते हैं। हालांकि इसमें कई किन्तु-परंतु भी हैं।
पहला तो यह है कि राहुल गांधी को अपनी दुविधाग्रस्त नेता की छवि से पूरी तरह उबरना होगा, दूसरे उन्हें गंभीरता से साथ बड़ी जिम्मेेेेेदारी लेनी होगी, जो उनकी नेतृत्व क्षमता की लोक परीक्षा होगी। तीसरे, उन्हें अब पूर्णकालिक राजनेता के रूप में खुद को पेश करना होगा।
प्रधानमंत्री मोदी पर खुलकर हमले करने का साहस दिखाने के बाद भी यह गारंटी से नहीं कहा जा सकता कि जब देश के सत्ता संचालन की धुरी बनने की बात आएगी, तब राहुल पूरी संजीदगी से वैसा करना पसंद करेंगे? या फिर किसी डमी को कुर्सी पर बिठा देंगे?
अगर ऐसा हुआ तो तय मानिए कि राहुल के नेतृत्व में कांग्रेसनीत गठबंधन का दिल्ली के तख्त पर काबिज होने का सपना केवल कागजी महत्वाकांक्षा बनकर ही रह जाएगा। अभी कांग्रेस को जो कामयाबी मिली है, उसे सकारात्मक ऊर्जा और दिशा नहीं मिली तो वह आगामी चुनावों में बुलबुले के रूप में फूट भी सकती है।
इसमें दो राय नहीं कि दो भारत जोड़ो यात्राओं, चुनाव में जमीनी मुद्दे उठाने, प्रधानमंत्री मोदी को अहंकारी बताने ( जो अब संघ भी कह रहा है), जनता की जगह अपना एजेंडा चलाने जैसी बातों से राहुल की भाजपा विरोधियों में यह छवि तो बनी है कि वो निडरता से अपनी बात कहते हैं, भले ही कुछ लोगों को अभी भी उसमें अपरिपक्वता नजर आती हो।
खासकर इस लोकसभा चुनाव में जिस ढंग से उन्होंने देश में संविधान बचाने तथा आरक्षण खत्म न होने देने की अलख जगाई, उसने भाजपा के ओबीसी और दलित वोटों में तगड़ी सेंध लगा दी। खासकर यूपी, महाराष्ट्र व बिहार में इसका सर्वाधिक असर दिखाई दिया।
इस मामले में यह चुनाव आशंका को यकीन में बदलने के अभियान का एक अच्छा उदाहरण है। दूसरे, भाजपा को मुगालते में जीना सबसे भारी पड़ा। पार्टी अपने तय ही किए ‘400 पार के’ नारे के गड्ढे मेंगिर गई।
यदि मोदी ने चुनाव में सीटों की जीत का कोई निश्चित आंकड़ा फिक्स किए बगैर सिर्फ इतना ही कहा होता कि हम पिछली बार की तुलना में ज्यादा सीटें तो शायद भाजपा को 32 सीटों का नुकसान न हुआ होता। लेकिन सत्ता और वो भी निरंतर सत्ता नेताओं को इतनी आत्ममुग्ध बना देती है कि वो खुद जमीन से कटने लगते हैं।
पीएम मोदी की राजनीतिक राह और राहुल गांधी की चुनौतियां
बतौर पीएम मोदीजी की यह तीसरी पारी है। 2029 आते-आते वो 79 साल के होंगे। तब उनकी मुश्किलें और बढ़ेंगी। युवा पीढ़ी से उनका कनेक्ट आज की तुलना में धीरे-धीरे कम होता जाएगा। इसके विपरीत राहुल गांधी अभी युवा हैं।
अगले लोकसभा चुनाव तक भी वो साठ के अंदर ही होंगे। बीते एक साल में कांग्रेस के रणनीतिकारों ने राहुल गांधी का कई स्तरों पर मेकओवर करने की कोशिश की है और उसमें उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है।
कांग्रेस का राहुल में और राहुल का अपने आप में विश्वास बढ़ा है। लेकिन असली चुनौती इसके आगे है। पहली चुनौती तो पूरी कांग्रेस का मेकओवर करने की है।
बेशक यूपी, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु आदि राज्यों में कांग्रेस ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। लेकिन यहां कंधे उसके सहयोगी दलों के ज्यादा मजबूत रहे हैं। जहां कांग्रेस का सीधे भाजपा से मुकाबला रहा है, उन राज्यों में कांग्रेस ( राजस्थान छोड़ दें) तो ज्यादा कामयाबी हासिल नहीं कर पाई है।
इन राज्यों में कांग्रेस भाजपा से मजबूती के साथ दो- दो हाथ कर सके, इसके लिए संगठनात्मक स्तर पर उसे मजबूत और निरंतर सक्रिय करने की नितांंत आवश्यकता है। इसके लिए काबिल कार्यकर्ताओं की पहचान और उन्हें काम करने देने की स्वतंत्रता देनी होगी। आत्मघाती गुटबाजी कांग्रेस का महारोग है। इस पर लगाम कैसे लगे, यह भी बड़ा सवाल है।
इस चुनाव में कांग्रेस और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के परिवारवादी होने के आरोप को जनता ने लगभग खारिज कर दिया है। नतीजों और बाद में मंत्रिमंडल गठन में शामिल नामों से उजागर हुआ कि भाजपा में भी यह रोग उसी शिद्दत से मौजूद है और पनप भी रहा है, भले ही उसे नाम दूसरा दिया जा रहा हो। वह खुद को परिवारवाद का विरोधी बताती है और परिवारवादियों से गलबहियां भी करती है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि परिवारवाद भारतीय राजनीति का राजरोग है, जिसका स्वरूप बदलता रहेगा, पर रोग कायम रहेगा। ऐसे में जनता अब परिवारवाद की बजाए परफार्मेंस को ज्यादा तवज्जो दे रही है।
पोलिटिकल राहुल गांधी के लिए आगे की दिशा और कद
अगर राहुल गांधी को भविष्य में देश के नेता के रूप में स्वीकार किया जाना है तो सबसे पहले उन्हें अपनी दुविधाग्रस्त होने की छवि से भी मु्क्त होना होगा। कांग्रेस कार्यकारिणी ने राहुल से लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने का अनुरोध किया है, जिस पर राहुल ने अभी तक कोई निर्णय नहीं लिया है।
इसी तरह जिन दो लोकसभा सीटों से वो इस बार चुनाव जीते हैं, उनमे से कौन सी सीट रखें और कौन सी छोड़ें, इस पर उन्होंने कुछ बेमन से ही, सही निर्णय ले लिया है। दृढ़ निश्चय पर भावुकता को हावी न होने देने का हुनर उन्हें सीखना होगा।
भावुकता से संवेदनशील छवि तो बनती है, लेकिन राजनेता को संवेदनशीलता के साथ साथ कुशल और सक्षम प्रशासक के रूप में खुद को सिद्ध करना होता है। इसका अर्थ यह है कि जो भी निर्णय आप लेते हैं, उन्हे क्रियान्वित कराने और नतीजे देने का माद्दा भी आप में होना चाहिए।
अगर मिल भी जाए तो वह कुछ समय के लिए ही होता है। क्योंकि सत्ता संचालन केवल एक नौकरशाहाना कर्मकांड नहीं है, उसके लिए राजनीतिक दांवपेंच रणनीतिक अखाड़ेबाजी के हुनर में निष्णात होना भी जरूरी है। इस लिहाज से यूपीए के दौरान कांग्रेस द्वारा किसी राजनेता के बजाए अर्थशास्त्री और नौकरशाह डाॅ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाना सही राजनीतिक फैसला नहीं था। मनमोहन सिंह ने बतौर पीएम अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाई, लेकिन कांग्रेस को सक्रिय और ताकतवर बनाए रखने के लिए जिस राजनीतिक सेनापति की जरूरत थी, उसमे वह पूरी तरह असफल रहे।
इस लोकसभा चुनाव का एक संदेश यह भी है कि देश में अब दो ऐसी राजनीतिक पार्टियां आमने सामने होंगी, जिनकी मौजूदगी पूरे देश में है। अभी तक यह दर्जा ( कमजोर होने के बाद भी) कांग्रेस के पास ही था, अब इस श्रेणी में भाजपा भी शामिल हो गई है। यानी अब देश की राजनीति धुर राष्ट्रवादी और मध्यमार्गी विचारधारा के बीच चलेगी।
भाजपा और कांग्रेस दोनो पार्टियां कभी क्षेत्रीय दलों के साथ सहयोग तो कभी उन्हें कुचलकर अपना वजूद कायम रखेंगी। इन्हीं दो प्रमुख दलों की अगुवाई में चलने वाले राजनीतिक गठबंधनों के बीच ही चुनावी मुकाबले होंगे। ऐसे में सहयोगी दल कभी अंकुश तो कभी स्टेपनी की भूमिका अदा करते रहेंगे।
कुछ लोगों का मानना है कि राहुल गांधी अब तक जिस तरीके और रणनीति के साथ काम करते रहे हैं, वो पूर्णकालिक राजनेता के बजाए पोलिटिकल एक्टिविज्म ज्यादा है। राहुल गांधी अगर सचमुच एक गंभीर राजनेता के रूप में खुद को स्थापित करना चाहते हैं तो उन्हें जिम्मेदारियां लेनी होगी और सफलता से मुग्ध होने तथा असफलता आहत होने की मानवीय कमजोरियों को बस में करना होगा। बेशक राहुल के लिए संभावनाएं हैं, लेकिन बहुत सी शर्तों के साथ।
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