'आप' को आपदा साबित करने में कामयाब रही भाजपा - अजय बोकिल
Updated on
09-02-2025 10:50 AM
चुनाव विश्लेषण
यूं दिल्ली विधानसभा और सरकार की हैसियत किसी बड़े नगर निगम से ज्यादा नहीं है, लेकिन इसकी हार-जीत का संदेश देश की राजनीति की दिशा और दशा जरूर तय करता है। इस बार दिल्ली राज्य विधानसभा के चुनाव में डेढ़ दशक से सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की करारी हार सत्ता स्वार्थ के आगे नैतिकता को आवारा छोड़ने की धूर्तता, कथनी और करनी में लगातार गहराते अंतर और भ्रष्टाचार के खिलाफ चले अण्णा आंदोलन के बाद उभरी वैकल्पिक राजनीति में नैतिक उम्मीद की भी करारी हार है। बेशक इस कांटे की लड़ाई में देश पर राज कर रही बीजेपी ने तीन दशक बाद अपनी जबर्दस्त चुनावी रणनीति से दिल्ली राज्य का किला सर कर लिया है, तो इसके पीछे बड़ी वजह देश की राजधानी के मतदाता का आम आदमी पार्टी से हुआ मोहभंग है। इस चुनाव नतीजे के तीन सबक हैं। पहला तो यह कि कोई भी राजनीति पार्टी भले ही कितनी नीतिमत्ता के दावे करे, सत्ता की काजल की कोठरी के दाग से नहीं बच पाती। दूसरे, केवल रेवड़ी बांटना ही अब चुनावी जीत का प्रमुख कारण नहीं रह गया है। वरना इस रेवड़ी कल्चर के पोस्टर ब्वाॅय खुद अरविंद केजरीवाल अपनी सीट नहीं गंवाते। तीसरा, चुनाव कैसे जीते जाते हैं, यह दूसरे राजनीतिक दलों को भाजपा से सीखना चाहिए।
भारतीय जनता पार्टी के लिए देश की राजधानी में तीन बार भगवा फहराने के बाद भी लाल किले की प्राचीर आम आदमी पार्टी का अभेद्य किला बनी हुई थी। शुरू में केजरीवाल की अलग सियासी लाइन ने दिल्ली के मतदाताअों को मोहित किया था। कांग्रेस, बीजेपी और साम्यवादियों की वैचारिक राजनीतिक लाइन से हटकर आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने सत्ता पर काबिज रहने की एक ऐसी गड्डमड्ड संस्कृति विकसित कर ली थी, जिसमें मतदाता को मुफ्तखोरी का लती बनाना, खुद अपनी ईमानदारी का ढिंढोरा पीटना, वक्त पड़ने पर मुकर जाना, खुद को धार्मिक व्यक्ति तथा गरीब हितैषी के रूप में पेश करना शामिल था। सबसे बड़ी विडंबना ये कि भ्रष्टाचार जैसी जिस गंभीर सामाजिक राजनीतिक बुराई के खिलाफ लड़ने के संकल्प के साथ आप दिल्ली में सत्ता में आई थी, वो खुद शराब घोटाले के रूप में उसी में डुबकी लगाने लगी, बावजूद इसके कि व्यक्तिगत तौर पर केजरीवाल और उनकी मंडली का इस घोटाले में लिप्त होना अभी अदालत में साबित होना है। लेकिन भ्रष्टाचार का दाग वास्तविक भ्रष्टाचार से कहीं ज्यादा गहरा होता है, जो आसानी से नहीं छूटता। ‘कट्टर ईमानदार’ जैसा अनोखा मुहावरा हिंदी को अरविंद केजरीवाल ने ही दिया था, लेकिन चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि जनता ने उन्हें कट्टर बेईमान के आईने में देखा।
इस चुनाव में आप की करारी हार के लिए भाजपा के आक्रामक प्रचार से अधिक आप की गलतियां ज्यादा जिम्मेदार है। इसकी एक बड़ी वजह केजरीवाल का अहंभावी होना है। उनकी हार की सबसे ज्यादा खुशी उनके पूर्व साथियों और आप के हाथों दिल्ली में अपनी राजनीतिक जमीन गंवाने वाली कांग्रेस को है, जो चुनाव में एक भी सीट न जीतने के बावजूद इस बात से गदगद है कि केजरीवाल हारे और कांग्रेस का वोट 2 फीसदी बढ़ा। उधर आप अपनी सरकार के पहले कार्यकाल में किए गए कुछ कामों और साथ में बांटी जा रही रेवडि़यों को सत्ता का आजीवन पट्टा मान कर चल रही थी। जिसे दिल्ली के मतदाता ने ही निरस्त कर दिया है। केजरीवाल की गारंटियों और वैकल्पिक राजनीति के वादों पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की गारंटी और दिल्ली के समुचित विकास के वादे भारी पड़े हैं। इस नतीजे में यह संदेश भी निहित है कि कोई राज्य सरकार हर मुद्दे पर केन्द्र सरकार से टकराव लेकर सत्ता में बने रहना चाहेगी तो यह लंबे समय तक मुमकिन नहीं है, बावजूद इसके कि बीजेपी ने भी केजरीवाल के हाथो में बेडि़यां डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी थीं।
आप की इस हार का बड़ा कारण दिल्ली में मध्य वर्ग का पार्टी से मोहभंग है। ये मध्यवर्ग मुख्य रूप से वेतन भोगी है। मोदी सरकार द्वारा इस बाद बजट में इनकम टैक्स में छूट सीमा बढ़ाने और आठवें वेतन आयोग के गठन ने मध्य वर्ग को वापस भाजपा की तरफ मोड़ दिया। इसी तरह निम्न वर्ग और महिलाअों ने भी आप के बजाए बीजेपी को ज्यादा वोट किया।
सवाल यह कि आप की दिल्ली विस चुनाव में भारी हार का राजनीतिक संदेश क्या है? आप की पराजय ने विपक्षी इंडिया गठबंधन पर एक और घनाघात किया है। ऐसे में यह गठबंधन कितना चल पाएगा, कहना मुश्किल है। अगर विपक्ष एक नहीं हो पाता है और राज्यों के चुनावों में वो हो भी नहीं रहा है, यह सत्तारूढ़ भाजपा के लिए सुखद खबर है। दिल्ली की हार का सीधा और पहला असर पंजाब की राजनीति पर होगा। वहां आप की सरकार है। संभव है कि कांग्रेस छो़ड़कर आप में गए कई नेता अपनी मूल पार्टी में लौटने लगें, क्योंकि अब केजरीवाल जीत की गारंटी नहीं रह गए हैं। आप की हार क्षेत्रीय दलों की राजनीतिक आकांक्षाअों पर भी बड़ा वज्रपात है। क्योंकि भाजपा दिल्ली में ही नहीं जीती है, उत्तर प्रदेश में बहुचर्चित मिलकीपुर विधानसभा सीट का उपचुनाव भी उसने जीत लिया है, जो समाजवादी पार्टी के लिए तगड़ा झटका है। इस चुनाव ने साबित कर िदया है कि संविधान बचाने, जाति जनगणना और ईवीएम में गड़बड़ी जैसे मुद्दे जो लोकसभा चुनाव में चल गए थे, अब संजीवनी शक्ति खो चुके हैं। विपक्ष को भाजपा से मुकाबले के लिए नए और असरदार मुद्दों की तलाश करनी होगी। क्योंकि भाजपा की जीत के मूल में उसकी सुस्पष्ट रणनीति, मुद्दों की पकड़, प्रभावी बूथ मैनेजमेंट और संकल्पशक्ति है। दिलचस्प बात यह है कि अरविंद का अर्थ भी कमल होता है और भाजपा का चुनाव चिन्ह भी कमल ही है। यानी दिल्ली में फिर कमल ने ही कमल को हरा दिया है। फर्क इतना है कि भाजपा आप को ‘आपदा’ साबित करने में कामयाब हो गई जबकि आप भाजपा को बेनकाब नहीं कर पाई। दिल्ली विजय के साथ भाजपा का उत्तर भारत में राजनीतिक अश्वमेध काफी हद तक पूरा हो चुका है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो उसे अभी भी अपनी सियासी जमीन और उन मुद्दों की तलाश है जो उसे खोया हुआ राजनीतिक वैभव लौटा सके। लोकसभा चुनाव की पिच पर मिली सफलता का सिलसिला पार्टी राज्यों के विकेट पर जारी नहीं रख पाई है। प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में उसे क्या और कैसी भूमिका निभानी है, इसको लेकर भ्रम कायम है। क्योंकि दिल्ली में चुनाव के चलते महाराष्ट्र में मतदाता सूची में गड़बड़ी का मुद्दा उछालना राजनीतिक विवेक का परिचायक कतई नहीं कहा जा सकता।
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