शिवराज सिंह चौहान: खेती को आर्थिक के साथ सियासी लाभ का धंधा बनाने की चुनौती-अजय बोकिल
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16-06-2024 09:21 AM
पीएम मोदी ने शिवराज सिंह चौहान को तीन लाख करोड़ रू. से भी ज्यादा बजट वाले कृषि मंत्रालय का जिम्मा सौंपा। साथ में ग्रामीण विकास विभाग भी दिया। लेकिन शिवराज के लिए कृषि का मामला केवल बजट के हिसाब से ही बड़ा नहीं है बल्कि यह आज की तारीख में सबसे ज्यादा चुनौती भरा विभाग है, जिसमें किसानों की समस्याएं सुलझाने के साथ-साथ पार्टी के राजनीतिक हित भी जुड़े हुए हैं।
विस्तार
मोदी 3.0 मंत्रिमंडल को लेकर पूरे देश और खासकर मप्र की निगाहें इस बात पर लगी थीं कि प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में लिया जाता है या नहीं और लिया जाता है तो मंत्रिमंडल में उनकी हैसियत क्या होगी, उन्हें कौन सा विभाग मिलेगा। ज्यादातर प्रेक्षकों का अंदाज था कि शिवराज को वो कृषि मंत्रालय मिलना चाहिए, जिसका शिवराज को काफी हद तक विशेषज्ञ और फार्मर माना जाता है।
वही हुआ भी, पीएम मोदी ने शिवराज सिंह चौहान को तीन लाख करोड़ रू. से भी ज्यादा बजट वाले कृषि मंत्रालय का जिम्मा सौंपा। साथ में ग्रामीण विकास विभाग भी दिया। लेकिन शिवराज के लिए कृषि का मामला केवल बजट के हिसाब से ही बड़ा नहीं है बल्कि यह आज की तारीख में सबसे ज्यादा चुनौती भरा विभाग है, जिसमें किसानों की समस्याएं सुलझाने के साथ-साथ पार्टी के राजनीतिक हित भी जुड़े हुए हैं। यानी खेती सिर्फ आर्थिक लाभ का ही धंधा न होकर भाजपा के लिए राजनीतिक लाभ का धंधा कैसे बने, यह सवाल है।
विशेषकर देश के तीन राज्यों पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तथा आंशिक रूप से राजस्थान भी शामिल है, में पूर्व में वापस हुए तीन कृषि कानूनो और किसानो के संदर्भ में मोदी सरकार की अब तक की नीतियों को लेकर गहरा असंतोष रहा है। इसी का नतीजा था कि लोकसभा चुनाव में इन राज्यों में किसानों ने भाजपा को तगड़ा झटका दे दिया। क्योंकि किसानो के मामले में सरकार की ‘एकला चलो’ की नीति फेल हो चुकी है।
किसानों की मांगों और दिक्कतों को समझकर तदनुसार कोई सर्वमान्य हल ढूंढना और वो भी क्रेडिट अपने खाते में लिखवाए बगैर करना, शिवराजजी के समक्ष बड़ी चुनौती है। किसान आंदोलन को डील करने के मामले में उनके पूर्ववर्ती कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी।
सरकार और किसानों के बीच अपेक्षित संवाद की कमी भी इसका एक कारण थी। तीनो कृषि कानून, जिन्हें मोदीजी को वापस लेना पड़ा, लाने से पहले उन पर व्यापक बहस कराना और जनमत जानना जरूरी नही समझा गया था। क्या इस रवैए में अब कोई बदलाव दिखेगा या नहीं, यह देखने की बात है। यह सवाल इसलिए भी है, क्योंकि शिवराज के पास पब्लिक कनेक्ट की कला है। वो अगर चाहें और उन्हें वैसा करने की आजादी मिले तो वो किसानों की नाराजी का वो कोई बहुमान्य हल ढ़ूंढ सकते हैं।
शिवराज और उनके पूर्ववर्ती केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर में एक बुनियादी अंतर यह है कि तोमर मूलत: शहरी पृष्ठभूमि से आते हैं, जबकि शिवराज पूरी तरह किसानी और ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं। लिहाजा किसानों की दिक्कतों और अपेक्षाओं को बेहतर ढंग से समझते हैं। मप्र का मुख्यमंत्री बनने के बाद ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि उनकी पहली प्राथमिकता खेती को लाभ का धंधा बनाने की है। इस दिशा में उन्होंने उन्होंने अपने शुरू के तीनो कार्यकालों में काफी काम किया।
प्रदेश की कृषि जीडीपी 2005-06 से 2022-23 तक औसतन प्रति 7% बढ़ी, जो दशक के लिए राष्ट्रीय औसत 3.8% से अधिक रही। शिवराज के मुख्यमंत्री रहते एमपी को कृषि उत्पादन तथा योजना संचालन के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए सात बार कृषि कर्मण अवॉर्ड मिले। यही नहीं मप्र सिंचाई क्षमता भी 6 गुना बढ़कर 43 लाख हेक्टेयर हो गई। किसानों की फसल के समर्थन मूल्य पर खरीदी पर बोनस की योजना शुरू हुई। इस योजना का फायदा प्रदेश के 80% से ज्यादा किसानों को मिला। किसानों का आपदा के समय बेहतर मुआवजा मिला। उन्हीं के नेतृत्व में प्रदेश को सात बार कृषि कर्मण अवॉर्ड मिले हैं।
इसी के साथ प्रदेश नई समस्या से भी जूझ रहा है, वो है कृषि उत्पादन में भारी बढ़ोतरी के अनुपात में अनाज भंडारण की अपर्याप्त व्यवस्था और स्थानीय उपज के लिए समुचित खाद्य प्रसंस्करण उद्दयोगों की कमी। शिवराज इन समस्याअोंसे भली भांति वाकिफ हैं। उम्मीद है कि वो मप्र की इन दिक्कतों को भी हल करेंगे। यही कारण था कि दिल्ली में लंबे चले किसान आंदोलन में मप्र के किसानों की भागीदारी नहीं के बराबर थी। अलबत्ता शिवराज के कार्यकाल पर काले टीके के रूप में मंदसौर में एमएसपी को लेकर आंदोलन कर रहे किसानों पर पुलिस की गोली से चार किसानों की मौत जरूर दर्ज है।
मोदी सरकार 2020 में अपने दूसरे कार्यकाल में तीन कृषि कानून लेकर आई थी। संसद में इस बिल के पास होते ही उत्तरी राज्यों के किसान सड़कों पर उतर आए। इस असंतोष को हवा देने में कुछ राजनीतिक दलों और स्वयंसेवी संगठनों की भी बड़ी भूमिका थी। बावजूद इसके यह भी सच था कि किसानों की आंशकाओं का कोई ठोस और संतोषजनक जवाब सरकार इस बिल को लाते समय नहीं दे पाई थी। मोदी सरकार द्वारा जो तीन कृषि कानून लाए गए थे, उनमें पहला था- आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून:
इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान किया गया था ताकि बाजार में प्रतिस्पर्द्धा बढ़े। किसानों को उपज का बेहतर मूल्य मिले। दूसरा था- कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून: इसके तहत किसान कृषि मंडी के बाहर भी अपनी उपज बेच सकते थे। इसके लिए किसानों व खरीदारों को कोई शुल्क नहीं देना था। तीसरा था- कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून: इस कानून का मुख्य उद्देश्य किसानों को उनकी फसल की निश्चित कीमत दिलवाना था। इसके तहत कोई किसान फसल उगाने से पहले ही किसी व्यापारी से समझौता कर सकता था।
किसान को फसल की डिलिवरी के समय ही दो तिहाई राशि का भुगतान किया जाता और बाकी पैसा 30 दिन में देना होता। अगर एक पक्ष समझौते को तोड़ता तो उस पर जुर्माना लगाया जाता। लेकिन इन कानूनों के प्रावधानों से तीनो राज्यों के किसान खुश नहीं थे। वो चाहते थे कि सरकार उनकी सारी उपज एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर ही खरीदे।
यह एमएसपी भी स्वामीनाथन (जिन्हें सरकार ने इस साल भारत रत्न दिया) आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक हो तथा सरकार एमएसपी की केवल घोषणा ही नहीं करे बल्कि इसकी कानूनी गारंटी भी दे। वर्तमान में भारत सरकार कुल 23 फसलों पर एमएसपी देती है। किसान आंदोलन के दौरान बताया जाता है कि सरकार चुनिंदा फसलों पर एमएसपी की गारंटी देने को तैयार भी हो गई थी, लेकिन आंदोलनकारी किसान इस पर सहमत नहीं थे।
दूसरी आशंका कारपोरेट फार्मिंग को मंजूरी मिलने पर किसान हितों की रक्षा की कमजोर व्यवस्था थी। डर था कि फसल खराब होने पर किसान अपनी जमीन भी कारपोरेट के हाथों गंवा सकता है। इन्हीं के चलते दिल्ली की सीमा पर लगभग साल भर तक किसान आंदोलन चला, जो अंतत: पीएम मोदी द्वारा इन कानूनों की वापसी के बाद कमजोर पड़ा। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि कृषि सुधार कानून लाने के पीछे मकसद सही था, लेकिन तरीका गलत था। कृषि कानून वापसी के दांव का फायदा बीजेपी को 2022 में यूपी के विधानसभा चुनाव में मिला। लेकिन किसानों की मांगों का कोई हल नहीं हुआ। सरकार सभी फसलों परएमएसपी की कानूनी गारंटी देने को तैयार नहीं है।
उसका मानना है कि ऐसा किया गया तो सरकार पर सभी फसले खरीदने पर असहनीय आर्थिक बोझ बढ़ेगा। दूसरे, कच्चा माल महंगा होने पर सभी खाद्य वस्तुएं भी महंगी होंगी, जिससे आम उपभोक्ता खासकर मध्यम व निम्न वर्ग की नाराजी का सामना सरकार को करना पड़ेगा। न सिर्फ मध्यम व निम्न वर्ग खुद किसान को भी परेशानी हो सकती है, क्योंकि वह कतिपय फसलों का उत्पादक भले हो, लेकिन बाकी चीजों का तो उपभोक्ता ही है। खेती के मामले में अब एक और नई बड़ी चुनौती बार-बार बदलते मौसम की भी है। मौसम के बदले मिजाज से अच्छी भली फसल पर ऐन वक्त पर पानी फिर जाता है और किसान के सामने माथा पकड़ने के अलावा कुछ नहीं रह जाता। खराब या दागी फसल ठीक से बिक भी नहीं पातीं।
अब नए देश के कृषि मंत्री शिवराज सिंह के सामने बड़ी चुनौती नाराज किसानों के सामने कोई सर्वमान्य हल पेश करने की होगी। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश ऐसे इलाके हैं, जहां फसलों की एमएसपी पर सर्वाधिक खरीदी होती है। वहां के किसानो को विश्वास में कैसे लिया जाएगा, यह देखने की बात है। छोटी जोतों के बाद भी खेती लाभ का धंधा कैसे बने, खरीदी गई उपज का समुचित भंडारण और प्रोसेसिंग कैसे हो, खेती राम भरोसे न रहे, उसका आधुनिकीकरण कैसे हो, कृषि क्षेत्र में सुधारों की बात हर हलके से उठ रही है, लेकिन ये सुधार किस रूप में हों, कैसे हो, इस पर मतभेद हैं।
प्रामाणिक बीज, पर्याप्त सिंचाई, उत्पादित फसल की सही मार्केटिंग व भंडारण की सुविधा तथा कारपोरेट फार्मिंग में किसानों के अधिकार कैसे सुरक्षित रहें, यह भी बड़ा मुद्दा है। खेती में घाटे से निराश और कर्ज में डूबे किसानों की आत्महत्या, जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाना व खेती में रोजगार बढ़ाने की संभावना तलाश करना भी बड़ा मुद्दा है।
शिवराज इन सबमें तालमेल कैसे बिठा पाएंगे, यह देखना होगा। अगर कामयाब रहे तो उनकी राजनीतिक उपलब्धियों का एक नया युग शुरू हो सकता है। किसान असंतोष का समाप्त होना भाजपा की राजनीतिक मजबूती का परिचायक भी होगा। वरना अभी तो नाराज किसान उन पार्टियों को वोट दे रहे हैं, जो एमएसपी की कानूनी गारंटी के वादे कर रही हैं।
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