धृतराष्ट्री परिवारवाद और सुदामाई परिवारवाद में एक नैतिक जंग...
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09-04-2024 06:04 PM
महाभारत काल में पुत्र मोह में अंधे हुए राजा धृतराष्ट्र और मित्र प्रेम लाचार हुए सुदामा कभी आपस में मिले थे, इसका कोई पौराणिक जिक्र भले न हो, लेकिन कलियुग में यह भेंट संभव हुई है। न केवल संभव हुई बल्कि इस डायलाॅग के साथ हुई कि सुदामा तुम तय कर लो कि तुम्हें सुदामा ही रहना है या फिर धृतराष्ट्र बनना है। इस संवाद में चेतावनी भी है और धमकी भी। चेतावनी इस बात की कि गरीब सुदामा को कभी सम्राट धृतराष्ट्र बनने का ख्वाब नहीं देखना चाहिए और धमकी इस बात की कि अगर तुमने सुदामा की औकात से बाहर निकलने की कोशिश की तो राजनीतिक आख्यानों में भले तुम्हे अमरत्व हासिल हो जाए, लेकिन सियासी जिंदगी में तुम्हारी भू्णहत्या भी हो सकती है।
द्वापर युग का यह समूचा संदर्भ (पौराणिक स्रोतों के अनुसार) वर्तमान कलियुग के 5126 वें वर्ष में लोकतांत्रिक भारत में हो रहे 18 वीं लोकसभा चुनाव के पहले चरण में होने वाले िछंदवाड़ा लोकसभा सीट पर चुनाव जीतने के उद्देश्य से दो नेताअों के बीच हुए संवाद का है। संवाद कहने के बजाए उसे एकालाप कहना ज्यादा उचित होगा। मीडिया में आई रिपोर्टों को सही मानें तो जो नैतिक डायलाॅग बोला गया वो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कमलनाथ का था, जो दूसरी बार अपने पुत्र को छिंदवाड़ा से लोकसभा में भेजने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ चार दशकों से कमलनाथ के सेवक रहे दीपक सक्सेना हैं, जो आर्थिक रूप से भले ही गब्बर बन गए हों, लेकिन राजनीतिक रूप से सुदामा ही रहे। सुदामा होना केवल आर्थिक असमानता का प्रतिफल ही नहीं है बल्कि ऐसा भाग्यफल भी है, जिसमें लक्ष्मी और सत्ता सुंदरी दोनो गठबंधन कर याचक को ठेंगा दिखाती रहतीं हैं। दीपक सक्सेना नामक पात्र की सियासी ट्रेजिडी यही है कि तमाम वफादारियों के बाद भी उनके हिस्से में दरी उठाने का काम ही आया है। उनका कमलनाथ भक्त होना ही मानो इस राजनीतिक अभिशाप का कारण है। लिहाजा इस चुनाव में उन्होंने कमलनाथ से नाल तोड़कर कमलदल से जोड़ने की जुर्रत की तो बदले में उलाहना मिला कि धृतराष्ट्र बनने की कोशिश भी न करना। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि एक हस्तिनापुर में एक ही धृतराष्ट्र रह सकता है। या यूं कहें कि पुत्र मोह पालने का विशेषाधिकार भी उन्हीं को है, जो सत्ता सम्पन्न हैं। सत्ता में जमे हुए हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी जमे रहना चाहते हैं। यह जनता का पुनीत कर्तव्य है कि वह एक पीढ़ी के इन्वेस्टमेंट पर कई नस्लों को राजनीतिक लाभांश देती रहे। राजनेताअों के लिए अपने पुत्र/पुत्री/ पत्नी आदि के सियासी कॅरियर के आगे हर शै बेमानी है। कोई सुदामा अगर उसे चु्नौती देने की धृष्टता करेगा भी तो वह आंखों के साथ हाथ- पैरों से भी हाथ धो बैठेगा।
यूं तो धृतराष्ट्र और सुदामा की कहानी में कहीं कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। ये सारा ताना बाना उस कूटनीतिज्ञ और भगवान कृष्ण के माध्यम से है, जो धृतराष्ट्र को पुत्र मोह से बचने की समझाइश देते हैं और नाकाम रहते हैं दूसरी तरफ सुदामा को दोस्ती का वास्ता देकर भौतिक आकांक्षाअों को तृप्त करने की कोशिश करते हैं। पुराणों में सुदामा के पिता का तो उल्लेख है कि वो राक्षसराज शंखचूड़ के पुत्र थे। शंखचूड़ को ब्रह्मा से अमरत्व का वरदान था। लेकिन सुदामा के पुत्रों का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। चूंकि सुदामा राजनेता नहीं थे, इसलिए उनके पुत्रो के राजनीतिक और आर्थिक भविष्य की चिंता करने की गरज पुराणकारों को भी महसूस नहीं हुई होगी। ब्राह्मण सुदामा मूलत: उस समाजवादी सोच की उपज थे, जिसमें अमीरी के बजाए गरीबी के समान वितरण पर ज्यादा जोर रहा है। इसका सीधा अर्थ है कि दीपक सक्सेना के भाग्य में सुदामा होना ही बदा है। द्वापर युग में योगीराज कृष्ण ने अपने इस बाल मित्र को दोस्ती की खातिर जो कुछ माल- ताल दे दिया, उसे सुदामा को अपना सौभाग्य समझ कर संतुष्ट रहना चाहिए। इससे ज्यादा की उम्मीद पालना भी अपने आप में राजनीतिक अपराध है। आखिर नौकर, नौकर है और मालिक, मालिक । यह सही है कि दीपक सक्सेना कमलनाथ की कृपा से ही चार बार विधायक, एक बार मंत्री और एक बार प्रोटेम स्पीकर बने। लेकिन जब उनके राजनीतिक अरमान उरूज पर थे, तभी उनका पत्ता काट दिया गया। स्वामी की खातिर पद और पावर गंवाने की ऐवज में उन्हें कुछ नहीं मिला। जब छिंदवाड़ा से लोकसभा के लिए किसी को भेजने की बात आई तो कमलनाथ ने अपने पुत्र नकुलनाथ को चुना। गौरतलब है कि राजनीति में सेवा के बदले मेवा मिलने का गणित इस बात पर निर्भर करता है कि आपका स्वामी कौन है, स्वयं धृतराष्ट्र है अथवा कृष्ण।
बहरहाल कांग्रेस में अपनी उपेक्षा और स्वामीभक्ति के बदले मिली दुत्कार से दुखी दीपक सक्सेना ने भाजपा में जाने की हिमाकत की, जो उन कमलनाथ को रास नहीं आई, बावजूद इसके कि खुद उनके पुत्र समेत पाला बदलने की सुर्खियां मीडिया में चली थीं। तब भी लक्ष्य एक ही था पुत्र की कुर्सी बचाना। अब भी मकसद वही है। फर्क इतना है कि पुत्र प्रेम का यही पासवर्ड दीपक सक्सेना ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की लिंक अोपन करने के लिए डालना चाहा तो वो कमलनाथ का कोपभाजन बन गए। और तो और कमलनाथ की पुत्रवधु प्रिया नाथ ने भी दीपक पर कटाक्ष करते हुए कहा कि कमलनाथजी ने जिनकी मदद की, वही अग्नि परीक्षा के वक्त उन्हें छोड़कर जा रहे हैं। उधर लगातार मिल रहे दास ट्रीटमेंट से आहत दीपक ने पहले तो अपने बेटे अजय को भाजपा में भेजा और खुद भी भगवा धारण करने की तैयारी में थे। तभी उन्हें अल्टीमेटम दिया गया कि वो धृतराष्ट्र और सुदामा में से कोई एक आॅप्शन को आप्ट कर लें।
यहां दीपक सक्सेना की ‘गलती’ यही है कि उन्होंने धृतराष्ट्री परिवारवाद के बदले सुदामाई परिवारवाद को खड़ा करने की कोशिश की। चरण वंदन के बदले माथे पर तिलक चंदन मांगा। परिवारवादी राजनीतिक संस्कृति में यही महापाप है। वरना धृतराष्ट्र खुद अपनी निष्प्राण आंखों के साथ पाला बदल लें तो यह राजनीतिक पैंतरा होता है और सेवक अपनी जीवित आंखों के साथ दूसरे का दामन थाम ले तो स्वामीद्रोह कहलाता है। है न गजब थ्यो री ! वैसे भी धृतराष्ट्रवादी चिंतन में सत्ता की रेवडि़यां अपनो के अकाउंट में ही ट्रासंफर होती हैं। लोकतंत्र में इसके औचित्य को सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जिस ढंग से तार्किक जामा पहनाया, वह अनूठा है। अखिलेश ने कहा कि भाजपा वाले (हालांकि परिवारवाद वहां भी है) हम पर परिवारवादी होने का आरोप लगाते हैं, इसीलिए मैंने इस बार अपने परिवार के लोगो को ही ज्यादा से ज्यादा टिकट दिए हैं।
फिलहाल इस धृतराष्ट्रवादी चुनावी एपीसोड में कमलनाथ ने इमोशनल कार्ड का ब्रह्मास्त्र चल दिया है। जिसका एक निशाना खुद दीपक सक्सेना भी हैं। जानकारों का कहना है कि वहां भाजपा की गंगा में कितने ही आयातित नेताअों का शुद्धिकरण हो जाए, लेकिन कमलनाथ का भावनात्मक दांव बीजेपी की तमाम कोशिशों पर भारी पड़ सकता है। भाजपा अपने मिशन- 29 के तहत छिंदवाड़ा में कमलनाथ की नाल हर कीमत पर काटना चाहती है, लेकिन साम-दाम-दंड-भेद के बाद भी छिंदवाड़ा में इस बार चुनाव में ‘कमल’ नहीं खिल पाया तो मुश्किल कमलनाथ के बजाए कमलदल के कर्णधारों की बढ़ेगी।
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