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तीर्थ क्या, क्यों और कैसे ?

Updated on 16-06-2021 02:20 PM
तीर्थ क्या, क्यों और कैसे ?
उत्तर, ब्रह्म पुराण से
महतां दर्शनं ब्रह्मज्जायते न हि निष्फलं।
द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसन्गाद्वा प्रमादतः।।
अयसः स्पर्शसंस्पर्शो रुक्मत्वायैव जायते।।
ब्रह्म पुराण से
अर्थ – महापुरुषों का दर्शन निष्फल नहीं होता, भले ही वह द्वेष अथवा अज्ञान से ही क्यों न हुआ हो।लोहे का पारसमणि से प्रसंग या प्रामद से भी स्पर्श हो जाय तो भी वह उसे सोना ही बनाता है।
सोचने वाली बात है कि गंगा जी का पानी कानपुर में उतना शुद्ध क्यों नहीं है और हरिद्वार, काशी में क्यों उद्धार करने वाला है ?
 आगरा क्यों तीर्थ नहीं है और मथुरा, वृन्दावन क्यों तीर्थ है ? क्यों काशी तो महातीर्थ है पर उसके पास का गाजीपुर तीर्थ नहीं है ?.
जब आप शास्त्रों और पुराणों की कड़ी से कड़ी मिलायेंगे तो इसका जवाब मिलता है।जैसा ब्रह्म पुराण के इस श्लोक में लिखा है, कि पारस से आप लोहा छुलायें तो वो सोना बन जाता है।
इसके और उदाहरण देता हूं जब आप चुम्बक को लोहे से घिसते हैं तो देखते हैं कि लोहे में भी चुम्बक के गुण उत्पन्न हो गए हैं, यदि आप किसी लोहे में एक ख़ास डायरेक्शन में करंट बहायेंगे तो देखेंगे कि उस लोहे के अन्दर के गुण धर्म बदल गए हैं और उसके अन्दर के अणुओं की दशा भी उसी डायरेक्शन में हो गयी है।
कहने का तात्पर्य ये है कि जिस चीज के सानिध्य में हम आते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर भी आते हैं या जिस भी चीज को हम ज्यादा देर तक छूते हैं उसके गुण धर्म हमारे अन्दर आते हैं।
इसीलिए कहा गया है, सत्संग करो, कुसंग मत करो। क्यों ? क्योंकि सत्संग करोगे तो कुछ अच्छा ज्ञान प्राप्त होगा और यदि कुसंग करोगे तो वैसे ही गुण धर्म आपके भी धीरे धीरे हो जायेंगे।
आप जिस चीज के पास रहोगे उसके गुण धर्म को आप अवशोषित करेंगे ही करेंगे। इसीलिए हमारे यहां पैर छूने की परम्परा है। क्योंकि ऐसा माना गया कि जिसके आप पैर छूते हैं उसके कुछ गुण आप अवशोषित करते हैं और इसीलिए बड़ों के, गुरुओं के, ऋषियों के पैर छूने की परम्परा रही। पहले ये पैर छूने की परम्परा नहीं थी, पहले तो पैर बाकायदा धो कर उसका पानी पी जाते थे,जिसे चरणोदक कहते थे, ताकि ज्यादा से ज्यादा पुण्य मिले, फिर समय के साथ केवल पैर पखारने तक बात रह गयी, ताकि ज्यादा से ज्यादा देर तक पैरों का स्पर्श रहे और वो पानी हमारी त्वचा में अवशोषित हो और अब केवल पैर छूने की ही प्रथा रह गयी है, कहीं कहीं तो अब घुटने छुए जाते हैं या केवल इशारा कर दिया जाता है और हो गया काम।
पर समझने वाली बात है कि हम दूसरों के पुण्य और पाप अवशोषित करते हैं।. पद्म पुराण में लिखा है कि जो स्थावर योनी होती है (वृक्ष आदि) उनका उद्धार उनके संसर्ग में आने वाले, उनको स्पर्श करने वाले ऋषि और मुनियों के प्रताप से होता है।जो उनकी छाया में तप करते हैं उसका प्रभाव वो पेड़ भी लेते हैं और मुक्त होते हैं। हमारे यहां बताया गया है कि जो लोग ऋषि होते थे, मुनि होते थे, तपस्वी होते थे, उनके सतोगुण का प्रभाव उनके आस पास के वातावरण पर भी पड़ता था, कई आश्रमों का विवरण हैं जहां पर हिरन और शेर एक ही जगह पानी पीते थे। क्योंकि उनका जो तप है उसका प्रभाव उसके आस पास पड़ता था, उस क्षेत्र पर पड़ता था। “जित जित पाव पड़े संतन के” और जहां जहां किसी तपस्वी ने कोई महान तप किया या आश्रम बनाया वह जगह तीर्थ स्थान का रूप पा गयी। लोग उसे तीर्थ कहने लगे। चाहे वो भगवान् बुद्ध का तपस्या क्षेत्र हो या भतृहरि का।
इसी का प्रभाव है कि काशी एक महातीर्थ है, हरिद्वार एक तीर्थ है जबकि आगरा तीर्थ नहीं है। क्योंकि ऐसा माना गया कि उस मिटटी पर, उस जगह पर, उस क्षेत्र पर, जहां पर वो ऋषि मुनि विचरे, उस जगह ने उनके पुण्य अवशोषित किये हैं और अब हम उस जगह से, उस मिटटी से उनके पुण्य अवशोषित कर लेते हैं। जिस जगह पर वो ऋषि मुनि नहाते थे, उस जगह की मिटटी, पत्थर से रगड़ खा कर जो पानी बह रहा है, जो गंगा जी बह रही हैं, उनका पानी भी परम पवित्र हो जाता है और उस पानी में नहा कर हम भी कुछ पुण्य अर्जित करते हैं और इस तरह से वो गंगोत्री, वो हरिद्वार, वो काशी, वो संगम में गंगा जी का पानी और उसमें नहाने वाला उस पुण्य का भागी होता है जो उसमें संचित है।
अब सोचिये, जिन लोगों के केवल छूने भर से, केवल विचरने मात्र से वो जगह, वो स्थान आज तीर्थ है,उसका पुण्य हम हजारों साल बाद भी ले रहे हैं।यदि वैसे ही या उसकी एक छंटाक भर भी पूजा हम, तप, यजन, मनन हम कर लें, तो क्या जरूरत है किसी तीर्थ जाने की ? गंगा जी में डुबकी लगाने की ? 
 अरे ! मन चंगा तो कठौती में गंगा !!!
हमारे ब्रह्म पुराण और अन्य पुराणों में तीर्थ भी दो प्रकार के बताये गए हैं,स्थानिक तीर्थ और मानसिक तीर्थ और कहा गया है,जिसने मानसिक तीर्थ नहीं किया उसका स्थानिक तीर्थ व्यर्थ है। गंगा जी भी आपके पाप नहीं हर सकती, अगर आपने डुबकी मारने के बाद आकर फिर पाप कर्म ही करना है।
मानस तीर्थ -
जायन्ते च भ्रियन्ते च जलेप्वेव जलौकसः। न च गच्छअन्ति ते स्वर्गमविशुदहमनोमलाः ।।
चित्तमंतर्गतम दुष्टं तीर्थस्नानंच शुध्यति । शतशोअपि जलैधौतम सुराभाण्डमिवाशुची ।।
सार : अगत्स्य ने लोपामुद्रा से कहा – निष्पापे ! मैं मानस सतीर्थो का वर्णन करता हूं, सुनो । इन तीर्थों में स्नान करके  मनुष्य परम गति को प्राप्त होता है।
सत्य, क्षमा, इन्द्रिसंयम, सब प्राणियों के प्रति दया, सरलता, दान, मन का दमन, संतोष, ब्रह्मचर्य, प्रियाभाषण, ज्ञान, धृति और तपस्या – ये प्रत्येक एक एक तीर्थ है । इनमें ब्रहमचर्य परम तीर्थ है । मन की परम विशुद्धि तीर्थों का भी तीर्थ है । जल में डुबकी मारने का नाम ही स्नान नहीं है; जिसने इंद्री संयम रूप स्नान किया है, वही स्नान है और जिसका चित्त शुद्ध हो गया है, वही स्नान है ।
‘जो लोभी है,चुगलखोर हैं,निर्दय हैं, दम्भी हैं और विषयों मैं फंसा है, वह सारे तीर्थों में भली भांति स्नान कर लेने पर भी पापी और मलिन ही है । शरीर का मैल उतारने से ही मनुष्य निर्मल नहीं होता; मन के मैल को   पर ही भीतर से सुनिर्मल होता है।
जलजंतु जल में ही पैदा होते हैं और जल में ही मरते हैं, परन्तु वे स्वर्ग में नहीं जाते; क्योंकि उनका मन का मैल नहीं धुलता । विषयों में अत्यंत राग ही मन का मैल है और विषयों से वैराग्य को ही निर्मलता कहते हैं । चित्त अंतर की वस्तु है, उसके दूषित रहने पर केवल तीर्थ स्नान से शुद्धि नहीं होती।
शराब के भाण्ड को चाहे 100 बार जल से धोया जाये, वह अपवित्र ही रहता है, वैसे ही जब तक मन का भाव शुद्ध नहीं है, तब तक उसके लिए दान, यज्ञ, ताप, शौच, तीर्थसेवन और स्वाध्याय – सभी अतीर्थ है । जिसकी इन्द्रियां संयम मैं हैं, वह मनुष्य जहाँ रहता  है, वही उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्करादि तीर्थ विध्यमान हैं । ध्यान से विशुद्ध हुए, रागद्वेषरुपी मल का नाश करने वाले ज्ञान जल में जो स्नान करता है, वाही परम गति को प्राप्त होता है ।
यहां श्लोक केवल सार रूप में  दिया गया है जिसमें  संपूर्ण श्लोक का सार निहित है । सम्पूर्ण श्लोक के अध्ययन के लिए नीचे दिए गए सन्दर्भ के अध्ययन का कष्ट करें ।
सन्दर्भ – स्कन्द पुराण – (काशीखण्ड 6)

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