जिनेवा । वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के प्रकोप से जूझ रहे दुनिया के देशों को एकजुट करने में संयुक्त राष्ट्र की विफलता को सामने ला दिया है। इसके साथ ही विश्व निकाय में सुधार के लिए नए सिरे से आवाजें उठने लगी हैं ताकि निकाय विविध तरह की चुनौतियों से निपटने में सक्षम हों जो उस वक्त से बहुत अलग हैं, जब संयुक्त राष्ट्र का गठन हुआ था। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुतारेस ने पिछले हफ्ते कहा था, ‘महामारी अंतरराष्ट्रीय सहयोग की स्पष्ट परीक्षा है- एक ऐसी जांच जिसमें हम निश्चित ही विफल रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘नेतृत्व और शक्ति के बीच संपर्क नहीं है’। उन्होंने चेतावनी दी कि 21वीं सदी की एक-दूसरे से कटी हुई दुनिया में ‘एकजुटता सबके हित में है और यदि हम इस बात को नहीं समझ पाते हैं तो इसमें सभी का नुकसान है।’
महासभा में विश्व नेताओं की पहली ऑनलाइन बैठक में प्रमुख शक्तियों के बीच तनाव, गरीब-अमीर देशों के बीच बढ़ती असमानता और संरा के 193 सदस्य राष्ट्रों के प्रमुख मुद्दों पर एकमत होने में बढ़ती कठिनाई सामने आई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह निकाय 50 सदस्यों के साथ बना था तथा सदस्य राष्ट्रों ने ‘आने वाली पीढ़ियों को युद्ध के अभिशाप से बचाने’ का संकल्प लिया था, लेकिन दुनियाभर में असमानता, भूख तथा जलवायु संकट के कारण संघर्ष बढ़ते ही गए। स्विट्जरलैंड के राष्ट्रपति सिमोनेटा सोममारूगा ने कहा, ‘हम इसके लिए संयुक्त राष्ट्र की आलोचना कर सकते हैं लेकिन जब हम संरा को दोष देते हैं तो दरअसल हम बात किसके बारे में कर रहे हैं? हम अपने बारे में बात कर रहे हैं क्योंकि संरा तो सदस्य राष्ट्रों से बना है। ये आमतौर पर सदस्य राष्ट्र ही होते हैं जो संरा के काम में बीच में आ जाते हैं।’ फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र को ‘छोटी-छोटी बातों पर सहमति बनाने में भी इतनी मुश्किल आई कि इसके शक्तिहीन होने का जोखिम हो गया।’
केन्या के राष्ट्रपति उहुरू कन्याटा ने कहा कि बहुसंख्यक वैश्विक आबादी आज संरा की स्थापना की परिस्थितियों से खुद को जुड़ा नहीं पाती। उन्होंने पूछा, ‘आज यह (संरा) दुनिया को क्या दे रहा है?’ कई नेताओं के लिए संरा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है सभी देशों को बात करने के लिए एक साथ लाना। लेकिन सभी सदस्य राष्ट्रों का महत्वपूर्ण दस्तावेजों पर एकमत होना जैसे इसके नियम को लेकर काफी निराशा है। यही वजह है कि सुरक्षा परिषद में सुधार जैसे विषय पर 40 वर्षों से चली आ रही बहस का अब भी कोई अंत नहीं है। पंद्रह सदस्यीय सुरक्षा परिषद में वर्तमान की वास्तविकताओं के अनुरूप बदलाव करने की मांग उठ रही है ताकि इसमें और व्यापक प्रतिनिधित्व हो सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शनिवार को अपने संबोधन में पूछा था, ‘संयुक्त राष्ट्र की निर्णय लेने वाले समिति से भारत को अब और कितने समय तक बाहर रखा जाएगा।