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गीता जी के 18 अध्यायो का संक्षेप में (प्रथम से तृतीय अध्याय तक )

Updated on 28-12-2020 12:32 PM
भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और इसी उपदेश को सुनकर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति हुई। गीता का उपदेश मात्र अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि ये समस्त जगत के लिए था, अगर कोई व्यक्ति गीता में दिए गए उपदेश को अपने जीवन में अपनाता है तो वह कभी किसी से परास्त नहीं हो सकता है। गीता माहात्म्य में उपनिषदों को गाय और गीता को उसका दूध कहा गया है। इसका अर्थ है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या है , उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। गीता के 18 अध्याय में क्या संदेश छिपा हुआ है आइए संक्षिप्त में जाने...
पहला अध्याय 
अर्जुन ने युद्ध भूमि में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। मैं न तो विजय चाहता हूं, न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूं, हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा है, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूं, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें लेकिन अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं। हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। इस प्रकार शोक से संतप्त होकर अर्जुन युद्ध-भूमि में धनुष को त्यागकर रथ पर बैठ गए तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य को भूल बैठे अर्जुन को उनके कर्तव्य और कर्म के बारे में बताया। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सच के परिचित कराया। कृष्ण ने अर्जुन की स्थिति को भांप लिया भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन का शरीर ठीक है लेकिन युद्ध आरंभ होने से पहले ही उसका मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अत: भगवान कृष्ण ने एक गुरु का कर्तव्य निभाते हुए तर्क, बुद्धि, ज्ञान, कर्म की चर्चा, विश्व के स्वभाव, उसमें जीवन की स्थिति और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार किया।
दूसरा अध्याय 
दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष से मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियां वश में नहीं रहती हैं ।इंद्रियजय ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। समुद्र में नदियां आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में ब्राह्मीस्थिति कहा है।
तीसरा अध्याय 
तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूं, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी मैं तंद्रारहित होकर कर्म करता हूं और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता हैं। गीता में यहीं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जाएँगे। प्रकृति व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। जो व्यक्ति कर्म से बचना चाहता है वह ऊपर से तो कर्म छोड़ देता है पर मन ही मन उसमे डूबा रहता है।
जारी है .....

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