वे पानी बिना मछरी, पवन बिना धाने, सेवा बिना भोजली के तरसे पराने...,
रिमझिम-रिमझिम सावन के फुहारे, चंदन छिटा देवंव दाई जम्मो अंग तुम्हारे.
गांव के नदी या तालाब पहुचने पर वहाँ भोजली उठाने का कार्य नाते का भाई
द्वारा किया जाता है। नदी या तालाब किनारे भोजली माता की अंतिम पूजा और
आरती की जाती है तत्पश्चात नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। भोजली
स्त्रियाँ विसर्जन करने के बाद दुखी होती हैं।
एक चिमटी माखुर कड़क भइगे चूना।
चली दीन्ह भोजली मंदिर भइगे सूना।।
विसर्जन करते
समय कुछ बालीयाँ (भोजली) बचा लिये जाते हैं, जिसे बाद में आशीर्वाद स्वरूप
घर लाते है व ग्राम के सभी देवालयों चढ़ाया जाता है।
भोजली पर्व को मित्रता का पर्व भी माना जाता है। इस दिन लोगों में भोजली
(बालीयां) एकदूसरे से अदला बदली कर भोजली बदने की परम्परा है। इस प्रकार
भोजली पर्व अच्छी फसल की कामना व मित्रता कि पर्व के रूप बड़े हर्षाेलास के
साथ पूरे छत्तीसगढ़ विशेषकर ग्रामीण अंचल में मानाया जाता है।