छठ पर्व की शुरुआत त्रेता युग मे रामायण काल में हुई थी। युद्ध के समय प्रभु श्री राम को रावण के माया छल से चिंतित पाकर ऋषि अगस्त ने इसकी विधि, विशेषता के साथ आदित्य हृदय स्तोत्र और माता देवसेना षष्ठी देवी का षष्ठी देवी स्तोत्र का उपदेश दिया और इसे धारण करा कर लंका पर विजय दिलाई । लंका विजय के बाद अपने राज्याभिषेक के पूर्व प्रभु श्री राम एवं माता सीता ने कार्तिक शुक्ल चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी तिथि को माता देवसेना एवं कौशिकी देवी की सूर्यास्त से सूर्योदय तक सर्वप्रथम इसका विधिवत अनुष्ठान किया एवं सप्तमी तिथि को उदित सूर्य को अर्घ्य देकर इस महाव्रत का पारण किया था, तब से लोक आस्था में इस व्रत की महत्व हो गया।
राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी। तब महर्षि कश्यप ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को यज्ञ आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र तो हुआ, लेकिन वह मृत पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में स्वयं भी प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त ऋषि अगस्त्य के प्रार्थना से देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने कहा, ‘सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी कहलाती हुँ। राजन तुम मेरी कार्तिक शुक्ल षष्ठी का व्रत पूजन करो ’ राजा ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुनः पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
महाभारत काल में सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य देव की पूजा की।कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।
जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब श्री कृष्ण के बताने पर द्रौपदी ने 12 वर्षों तक कार्तिक मास में चार दिनों का छठ व्रत किया और रात्रि में माता कौशिकी का व्रत पूजन कर प्रातः उदित सूर्य को अर्घ्य देकर व्रत पारण किया। इस व्रत राज के प्रभाव से ही दुःशाशन और दुर्योधन का वध सम्भव हुआ एवं द्रौपदी की सभी मनोकामना पूरी हुईं तथा पांडवों को राजपाट वापस मिल गया।
लोक परंपरा के अनुसार, सूर्य देव और छठी मईया का संबंध प्रकृति और वनस्पति तथा पुरुष श्री सूर्यनारायण से है।
चुकि प्रकृति (वनस्पति) और पुरुष (सूर्य) के संयोग से *प्रकाशसंश्लेशण* की क्रिया संभव है जिससे प्राणी मात्र के जीवन के लिए ऑक्सीजन उत्पन्न होता है।
इसलिए छठ व्रत में प्रकृति के सभी तत्कालीन उत्पादों फसलों से प्रकृति स्वरूपा माता देवसेना षष्ठी एवं सूर्य की आराधना पूर्ण पवित्रता एवं सत्य अहिंसा के साथ बिना किसी विशेष कर्मकांड, विशेष ज्ञान मंत्र एवं बिना भेद भाव के साथ विशेष फलदायी होता है। इस व्रत में प्रकृति के सभी फल - फूल वनस्पतियों से सृष्टि की रचना पालन एवं सम्पूर्ण सुरक्षा के लिए प्रकृति पुरुष की आराधना की जाती है।
श्री सूर्य देव के साथ माता षष्ठी देवी की विशेष कृपा हम सभी भक्तों पर बनी रहे।
सबका जीवन सुख सौभाग्य, उत्तम आयु आरोग्यता सम्पन्नता एवं सम्पूर्ण प्रसन्नता से भर जाए।