अधिकांशतः लोग सोचते हैं कि भगवान का महाप्रसाद सदा सदा से इस संसार में मिलता आया है। परन्तु नीचे वर्णित लीला से पहले भगवान विष्णु का महाप्रसाद इस भौतिक संसार में उपलब्ध नहीं था , शिवजी तथा नारदमुनी जैसे ऋषियों के लिए भी नहीं। फिर कैसे महाप्रसाद इस संसार में आया ? इस सम्बन्ध में चैतन्य मंगल में एक कथा आती है।
एक दिन कैलाश पर्वत पर नारदमुनी की भेंट शिवजी से हुई। नारद मुनि उन्हें भगवान श्री कृष्ण और उद्धव के बीच वार्तालाप का वर्णन करने लगे। इस चर्चा में उद्धव भगवान के महाप्रसाद की महिमा गान करते हुए कहते हैं –
“ हे भगवन! आपकी महाप्रसादी माला, सुगन्धित तेल , वस्त्रों और आभूषणों और आपके उच्छिष्ठ भोजन की स्वीकार करने से आपके भक्त आपकी मायाशक्ति पर विजय प्राप्त कर लेते है। “
“ हे कैलाशपति !” नारदमुनी ने आगे कहना जारी रखा , “ यह सुनकर मेरे ह्रदय में भगवान् विष्णु का महाप्रसाद चखने की तीव्र उत्कंठा जागृत हुई है। इस आशा से मैं वैकुण्ठ गया और जी जान से माता लक्ष्मी की सेवा करने लगा। बारह वर्षों तक सेवा करने के पश्चात् एक दिन लक्ष्मी जी ने मुझसे पुछा, ‘ नारद ! मै तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ। तुम मनचाहा वर मांग सकते हो। “
नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा, “ हे माता ! चिरकाल से मेरा ह्रदय एक बात को लेकर पीड़ित है। मैंने आजतक कभी भगवान नारायण के महाप्रसाद का अस्वादन नहीं किया है। कृपया मेरी यह अभिलाषा पूरी कर दीजिये।“
लक्ष्मी देवी दुविधा में पड़ गई। “ लेकिन नारद , मेरे स्वामी ने मुझे कठोर निर्देश दिए है कि उनका महाप्रसाद किसी को भी न दिया जाए। मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकती हूं। परन्तु तुम्हारे लिए मैं अवश्य कुछ व्यवस्था करूंगी। “
कुछ समय पश्चात् लक्ष्मी देवी ने भगवान नारायण से अपने ह्रदय की बात कही की कैसे उन्होंने गलती से नारदमुनी को भगवान का महाप्रसाद देने का वचन दे दिया है। भगवान् नारायण ने कहा, “ हे प्रिये! तुम्हे बड़ी भरी गलती की है। परन्तु अब क्या किया जा सकता है। तुम नारदमुनी को मेरा महाप्रसाद दे सकती हो , परन्तु मेरी अनुपस्थिति में। “(इसीलिए भक्तों को भी प्रसाद कभी भी अर्चा विग्रह के सामने बैठकर ग्रहण नहीं करना चाहिए )
नारदमुनी ने आगे कहा, “ हे महादेव , आप विश्वास नहीं करेंगे , महाप्रसाद के मात्र स्पर्श से मेरा तेज और अध्यात्मिक शक्ति सौ गुना बढ़ गईं। मैं दिव्य भाव का अनुभव करने लगा और सुनाने यहाँ आया हूँ । ”
“ हे नारद ! निश्चित ही तुम्हारा तेज अलौकिक है परन्तु तुमने ऐसे दुर्लभ महाप्रसाद का एक कण भी मेरे लिए नहीं रखा।
लज्जित होकर नारद मुनी ने अपना सर झुका लिया परन्तु अभी उन्हें स्मरण हुआ की उनके पास अभी भी थोडा महाप्रसाद बचा हुआ है। उन्होंने तुरंत उसे महादेव को दिया जिसे उन्होंने अत्यंत सम्मानपूर्वक स्वीकार कर लिया।
उसे लेते ही शिवजी कृष्ण प्रेम में मदोंन्मत होकर नृत्य करने लगे। उनकी थिरकन से पृथ्वी कम्पायमान होने लगी और सम्पूर्ण ब्रम्हांड में खतरा महसूस किया जाने लगा तब भयभीत होकर माता पृथ्वी देवी पार्वती से महादेव को शांत करने का निवेदन करती हैं। जैसे तैसे माता पार्वती ने शिवजी को शांत किया और फिर उनसे इस उन्मत नृत्य करने का कारण जानना चाहा तो शिवजी ने कहा – देवी मेरे सौभाग्य की बात सुनो और सारा वृतांत सुना दिया और अंत में बोले आज भगवान का महाप्रसाद प्राप्त करके मैं उन्मत हो गया यही मेरे असामान्य भाव और तेज का कारण है। तभी माता पर्वती क्रुद्ध हो गईं और बोली – स्वामी आपको महाप्रसाद मुझे भी देना चाहिए था क्या आप नहीं जानते मेरा नाम वैष्णवी है आज मैं प्रतिज्ञा लेती हूं कि यदि भगवान नारायण मुझ पर अपनी करुणा दिखायेंगे तो मैं प्रयास करुँगी की उनका महाप्रसाद ब्रम्हांड के प्रत्येक व्यक्ति, देवता और यहां तक की कुत्तों बिल्लियों को भी प्राप्त होगा।
आश्चर्य जनक रूप से उसी क्षण भगवान विष्णु माता पर्वती के वचन की रक्षा हेतु वहां तत्क्षण प्रकट हुए और बोले – “ हे देवी पर्वती ! तुम सदैव मेरी भक्ति में संलग्न रहती हो। उमा और महादेव मेरे शरीर से अभिन्न हो। मैं तुम्हें वचन देता हु की मैं स्वयं तुम्हारी प्रतिज्ञा को पूर्ण करूँगा और पुरुषोत्तम क्षेत्र जगन्नाथ पुरी में प्रकट होऊंगा और ब्रम्हांड में प्रत्येक जीव को अपना महाप्रसाद प्रदान करूंगा।
आज भी जगन्नाथ पुरी में भगवान जगन्नाथ को भोग लगाने के पश्चात सर्व प्रथम प्रसाद विमलादेवी(माता पार्वती ) के मंदिर में अर्पित किया जाता है।