इस जगह का नाम कन्याकुमारी पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने असुर बाणासुर को वरदान दिया था कि कुंवारी कन्या के अलावा किसी के हाथों उसका वध नहीं होगा। प्राचीन काल में भारत पर शासन करने वाले राजा भरत को आठ पुत्री और एक पुत्र था। भरत ने अपना साम्राज्य को नौ बराबर हिस्सों में बांटकर अपनी संतानों को दे दिया। दक्षिण का हिस्सा उसकी पुत्री कुमारी को मिला। कुमारी को शक्ति देवी का अवतार माना जाता था। कुमारी ने दक्षिण भारत के इस हिस्से पर कुशलतापूर्वक शासन किया। उसकी ईच्छा थी कि वह शिव से विवाह करें। इसके लिए वह उनकी पूजा करती थी। शिव विवाह के लिए राजी भी हो गए थे और विवाह की तैयारियां होने लगीं थी। लेकिन नारद मुनि चाहते थे कि बाणासुर का कुमारी के हाथों वध हो जाए। इस कारण शिव और देवी कुमारी का विवाह नहीं हो पाया। इस बीच बाणासुर को जब कुमारी की सुंदरता के बारे में पता चला तो उसने कुमारी के समक्ष शादी का प्रस्ताव रखा। कुमारी ने कहा कि यदि वह उसे युद्ध में हरा देगा तो वह उससे विवाह कर लेगी। दोनों के बीच युद्ध हुआ और बाणासुर को मृत्यु की प्राप्ति हुई। कुमारी की याद में ही दक्षिण भारत के इस स्थान को कन्याकुमारी कहा जाता है।माना जाता है कि शिव और कुमारी के विवाह की तैयारी का सामान गेहू व चावल थे, आगे चलकर रंग बिरंगी रेत में परिवर्तित हो गये। सागर के मुहाने के दाई और स्थित यह एक छोटा सा मंदिर है जो पार्वती को समर्पित है। मंदिर तीनों समुद्रों के संगम स्थल पर बना हुआ है। यहां सागर की लहरों की आवाज स्वर्ग के संगीत की भांति सुनाई देती है। भक्तगण मंदिर में प्रवेश करने से पहले त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाते हैं जो मंदिर के बाई ओर 500 मीटर की दूरी पर है। मंदिर का पूर्वी प्रवेश द्वार को हमेशा बंद करके रखा जाता है क्योंकि मंदिर में स्थापित देवी के आभूषण की रोशनी से समुद्री जहाज इसे लाइटहाउस समझने की भूल कर बैठते है और जहाज को किनारे करने के चक्कर में दुर्घटनाग्रस्त हो जाते है।हिन्दुओ के लिए हमेशा से यह स्थान पावन एवं पवित्र माना जाता रहा हैं। यह एक ऐसा स्थान हैं जहा देवी भगवती के नाबालिंग रूप की पूजा होती हैं।पुराने ग्रंथो में इस स्थान का जिक्र मिलता हैं. एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार ये स्थान हिन्दू धर्म के 51 शक्ति पीठो में से एक हैं. यहाँ देवी सती की पीठ गिरी थी और यहाँ देवी के पीठ रूप की पूजा होती हैं। एक अन्य कथा के अनुसार जब देवी कन्या ने शिव से विवाह की इच्छा जताई और इसके लिए देवी ने समुन्द्र में एक चट्टान पर एक पैर पर खड़े होकर शिव को प्रसन्न कर उन्हें विवाह के राजी किया तो शिव ने विवाह के लिए एक नियत समय तय किया। उस दिन भगवान शिव कैलाश से बारात लेकर चले, पर जिस रात को शिव को समुन्द्र तट पर पहुचना था उस रात को वे वहा पहुचते उससे पहले नारद जी, जो की बाणासुर का वध कुँवारी कन्या के हाथो करवाना चाहते थे। उन्होंने मुर्गा बन कर बाग लगा दी और दिन का उदय कर दिया इस तरह भगवान शिव कन्याकुमारी स्थान से 10 किलोमीटर दूर एक स्थान जो आज शुचीन्द्रम के नाम से जाना जाता हैं वहा रुक गए। इस प्रकार पार्वती अवतार देवी और शिव का मिलाप नहीं हो सका।
मान्यता है कि इस कन्या को कलयुग के अंत तक शिव जी से विवाह के लिए अब इंतजार करना है।