ॐ अस्य श्री सूर्य-कवचस्य ब्रह्मा ऋषि: , अनुष्टप् छन्दः , श्री सूर्यो देवता: । आरोग्य च विजय प्राप्त्यर्थं , अहम् , पुत्रो श्री , पौत्रो श्री ,गोत्रे जन्मौ , श्रीसूर्य-कवच-पाठे विनियोगः।
अर्थ एवं विधान :
(अपने शुद्ध दाएँ हाथ में आचमनी में जल भरकर लें , बाएँ हाथ से दायीं भुजा को स्पर्श करते हुए निम्न प्रकार से विनियोग करें )
"इस श्री सूर्य कवच के ऋषि ब्रह्मा हैं, छन्द अनुष्टुप् है एवं श्री सूर्य देवता हैं । आरोग्य एवम् विजय की प्राप्ति हेतु मैं - पुत्र श्री - पौत्र श्री --गोत्र में जन्मा हुआ~ श्री सूर्य -कवच के पाठ के निमित्त स्वयं को नियोजित करता हूँ "
ऐसा कहकर आचमनी के जल को~ हाथ को सीधा अर्थात् ऊपर की ओर रखते हुए ही~तीन बार थोड़ा-थोड़ा करके पृथ्वी पर छोड़ दें । उसके बाद निम्नलिखित श्री सूर्य कवच का अपने अभीष्ट अंगों को स्पर्श करते हुए जाप करें ।)
अथ् श्री सूर्य-कवचं :
(१) प्रणवो मे शिरं पातु , घृणि: मे पातु भालकं ।।
सूर्योsव्यान नयनद्वन्दम् , आदित्य कर्णयुग्मकं ।।
अर्थ :
मैं प्रणव को अपने शिर , घृणि को मस्तक , अव्यय सूर्य को दोनों नेत्रों एवम् आदित्य को दोनों कानों में धारण (प्रतिष्ठित) करता हूँ ।
(२) ह्रीं बीजम् मे मुखम् पातु , हृदयम् भुवनेश्वरी ।।
चंद्रबिम्बं विंशदाद्यम् पातु मे गुह्यदेशकम् ।।
शीर्षादि पादपर्यन्तम् सदा पातु वैवस्वतमनुत्तमः।।
अर्थ :
मेरे मुख में ह्रीं बीज , हृदय में भुवनेश्वरी , कँ खँ गँ घँ चँ छँ जँ झँ टँ ठँ डँ ढँ तँ थँ दँ धँ पँ फँ बँ भँ आदि मेरे गुह्यदेश में ~ और शिर से पैरों तक मनुश्रेष्ठ श्री वैवस्वत जी सदैव विराजमान रहें ।
विशेष :
शुद्ध सूती अथवा ऊनी आसन पर पूर्वाभिमुख होकर ~प्रातःकाल इस कवच का प्रतिदिन कम से कम एक बार जाप अवश्य करना चाहिए ।
।।ॐ नमामिःश्रीकृष्णादित्त्याय,परात्परब्रह्मणे च सद्गुरुदेवाय।।