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श्री सत्यनारायण व्रत कथा विशेष - 1

Updated on 26-04-2021 03:44 PM
पूर्णिमा पर क्यों सुनी जाती है सत्‍यनारायण व्रत कथा...? - आमतौर पर देखा जाता है किसी भी शुभ काम से पहले या मनोकामनाएं पूरी होने पर सत्यनारायण व्रत की कथा सुनी जाती है। सनातन धर्म से जुड़ा शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने श्रीसत्यनारायण कथा का नाम न सुना हो । इस कथा को सुनने का फल हजारों सालों तक किए गये यज्ञ के बराबर माना जाता है । शास्त्रों के मुताबिक ऐसा माना गया है कि इस कथा को सुनने वाला व्यक्ति अगर व्रत रखता है तो उसेके जीवन के दुखों को श्री हरि विष्णु खुद ही हर लेते हैं । स्कन्द पुराण के मुताबिक भगवान  सत्यनारायण श्री हरि विष्णु का ही दूसरा रूप हैं । इस कथा की महिमा को भगवान सत्यनारायण ने अपने मुख से देवर्षि नारद को बताया है । पूर्णिमा के दिन इस कथा को सुनने का विशेष महत्व है । कलयुग में इस व्रत कथा को सुनना बहुत प्रभावशाली माना गया है । जो लोग पूर्णिमा के दिन कथा नहीं सुन पाते हैं , वे कम से कम भगवान सत्यनारायण का मन में ध्यान कर लें । विशेष लाभ होगा । पुराणों में ऐसा भी बताया गया है कि जिस स्थान पर भी श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा होती है, वहां गौरी-गणेश, नवग्रह और समस्त दिक्पाल आ जाते हैं। केले के पेड़ के नीचे अथवा घर के ब्रह्म स्थान पर पूजा करना उत्तम फल देता है। भोग में पंजीरी, पंचामृत, केला और तुलसी दल विशेष रूप से शामिल करें।  सिर्फ पूर्णिमा को ही नहीं परिस्थितियों के मुताबिक किसी भी दिन कथा सुनी जा सकती है, बृहस्पतिवार को कथा सुनना विशेष लाभकारी होता है, भगवान तो बस भाव के भूखे हैं । मन में उनके प्रति अगर सच्चा प्रेम है तो कोई भी दिन हो प्रभु की कृपा बरसती रहेगी । इस कथा के प्रभाव से खुशहाल जीवन, दाम्पत्य सुख, मनचाहे वर-वधु, संतान, स्वास्थ्य जैसी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है । अगर पैसों से जुड़ी कोई समस्या है तो ये कथा किसी संजीवनी से कम नहीं है । तो जब भी मौका मिले भगवान की कथा सुने और सुनाएं ।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पूरा सन्दर्भ - पुराकालमें शौनकादिऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुंचे। ऋषिगण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्टमुक्ति, सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादिऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुखसमृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुखसमृद्धि की प्राप्ति सत्याचरणद्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरणका अर्थ है ईश्वराराधन, भगवत्पूजा।
सत्यनारायण व्रत कथा के पात्र दो कोटि में आते हैं, निष्ठावान सत्यव्रतीएवं स्वार्थबद्धसत्यव्रती। शतानन्द, काष्ठ-विक्रेता भील एवं राजा उल्कामुखनिष्ठावान सत्यव्रतीथे। इन पात्रों ने सत्याचरणएवं सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकरके लौकिक एवं पारलौकिक सुखोंकी प्राप्ति की। शतानन्दअति दीन ब्राह्मण थे। भिक्षावृत्तिअपनाकर वे अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। अपनी तीव्र सत्यनिष्ठा के कारण उन्होंने सत्याचरणका व्रत लिया। भगवान सत्यनारायण की विधिवत् पूजा अर्चना की। 
वे इहलोकेसुखंभुक्त्वाचान्तंसत्यपुरंययौ (इस लोक में सुखभोग एवं अन्त में सत्यपुरमें प्रवेश) की स्थिति में आए। काष्ठ-विक्रेता भील भी अति निर्धन था। किसी तरह लकडी बेचकर अपना और अपने परिवार का पेट पालता था। उसने भी सम्पूर्ण निष्ठा के साथ सत्याचरणकिया; सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकी। राजा उल्कामुखभी निष्ठावान सत्यव्रतीथे। वे नियमित रूप से भद्रशीलानदी के किनारे सपत्नीक सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकरते थे। सत्याचरणही उनके जीवन का मूलमन्त्र था। दूसरी तरफ साधु वणिक एवं राजा तुंगध्वजस्वार्थबद्धकोटि के सत्यव्रतीथे। स्वार्थ साधन हेतु बाध्य होकर इन दोनों पात्रों ने सत्याचरणकिया ; सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकी। साधु वणिक की सत्यनारायण भगवान में निष्ठा नहीं थी। सत्यनारायण पूजार्चाका संकल्प लेने के उपरान्त उसके परिवार में कलावतीनामक कन्या-रत्न का जन्म हुआ। कन्याजन्मके पश्चात उसने अपने संकल्प को भुला दिया और सत्यनारायण भगवान की पूजार्चानहीं की। उसने पूजा कन्या के विवाह तक के लिए टाल दी। कन्या के विवाह-अवसर पर भी उसने सत्याचरणएवं पूजार्चासे मुंह मोड लिया और दामाद के साथ व्यापार-यात्रा पर चल पडा। दैवयोग से रत्नसारपुरमें श्वसुर-दामाद के ऊपर चोरी का आरोप लगा। यहां उन्हें राजा चंद्रकेतुके कारागार में रहना पडा। श्वसुर और दामाद कारागार से मुक्त हुए तो श्वसुर (साधु वाणिक) ने एक दण्डीस्वामीसे झूठ बोल दिया कि उसकी नौका में रत्नादिनहीं, मात्र लता-पत्र है। इस मिथ्यावादनके कारण उसे संपत्ति-विनाश का कष्ट भोगना पडा। अन्तत:बाध्य होकर उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत किया। साधु वाणिकके मिथ्याचार के कारण उसके घर पर भी भयंकर चोरी हो गई। पत्नी-पुत्र दाने-दाने को मुहताज। इसी बीच उन्हें साधु वाणिकके सकुशल घर लौटने की सूचना मिली। उस समय कलावतीअपनी माता लीलावती के साथ सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकर रही थी। समाचार सुनते ही कलावतीअपने पिता और पति से मिलने के लिए दौडी। इसी हडबडी में वह भगवान का प्रसाद ग्रहण करना भूल गई। प्रसाद न ग्रहण करने के कारण साधु वाणिकऔर उसके दामाद नाव सहित समुद्र में डूब गए। फिर अचानक कलावतीको अपनी भूल की याद आई। वह दौडी-दौडी घर आई और भगवान का प्रसाद लिया। इसके बाद सब कुछ ठीक हो गया। लगभग यही स्थिति राजा तुंगध्वजकी भी थी। एक स्थान पर गोपबन्धुभगवान सत्यनारायण की पूजा कर रहे थे। राजसत्तामदांधतुंगध्वजन तो पूजास्थलपर गए और न ही गोपबंधुओंद्वारा प्रदत्त भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इसीलिए उन्हें कष्ट भोगना पडा। अंतत:बाध्य होकर उन्होंने सत्यनारायण भगवान की पूजार्चाकी और सत्याचरणका व्रत लिया। सत्यनारायण व्रतकथाके उपर्युक्त पांचों पात्र मात्र कथापात्रही नहीं, वे मानवमनकी दो प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। ये प्रवृत्तियां हैं, सत्याग्रह एवं मिथ्याग्रह। लोक में सर्वदाइन दोनों प्रवृत्तियों के धारक रहते हैं। इन पात्रों के माध्यम से स्कंदपुराणयह संदेश देना चाहता है कि निर्धन एवं सत्ताहीनव्यक्ति भी सत्याग्रही, सत्यव्रती, सत्यनिष्ठ हो सकता है और धन तथा सत्तासंपन्नव्यक्ति मिथ्याग्रहीहो सकता है। शतानन्दऔर काष्ठ-विक्रेता भील निर्धन और सत्ताहीनथे। फिर भी इनमें तीव्र सत्याग्रहवृत्तिथी। इसके विपरीत साधु वाणिकएवं राजा तुंगध्वजधनसम्पन्न एवं सत्तासम्पन्नथे। पर उनकी वृत्ति मिथ्याग्रहीथी। सत्ता एवं धनसम्पन्न व्यक्ति में सत्याग्रह हो, ऐसी घटना विरल होती है। सत्यनारायण व्रतकथाके पात्र राजा उल्कामुखऐसी ही विरल कोटि के व्यक्ति थे। पूरी सत्यनारायण व्रतकथाका निहितार्थ यह है कि लौकिक एवं परलौकिकहितों की साधना के लिए मनुष्य को सत्याचरणका व्रत लेना चाहिए। सत्य ही भगवान है। सत्य ही विष्णु है। लोक में सारी बुराइयों, सारे क्लेशों, सारे संघर्षो का मूल कारण है सत्याचरणका अभाव। सत्यनारायण व्रत कथा पुस्तिका में इस संबंध में श्लोक इस प्रकार है :
यत्कृत्वासर्वदु:खेभ्योमुक्तोभवतिमानव:। विशेषत:कलियुगेसत्यपूजाफलप्रदा।  केचित् कालंवदिष्यन्तिसत्यमीशंतमेवच। सत्यनारायणंकेचित् सत्यदेवंतथाऽपरे। नाना रूपधरोभूत्वासर्वेषामीप्सितप्रद:। भविष्यतिकलौविष्णु: सत्यरूपीसनातन:।
अर्थात् सत्यनारायण व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो जाता है। कलिकाल में सत्य की पूजा विशेष रूप से फलदायीहोती है। सत्य के अनेक नाम हैं, यथा-सत्यनारायण, सत्यदेव। सनातन सत्यरूपीविष्णु भगवान कलियुग में अनेक रूप धारण करके लोगों को मनोवांछित फल देंगे।
भगवन सत्यनारायण की मूर्ति या फ़ोटो
1 चौकी या पटला तथा उस पर बिछाने के लिए एक मीटर पीला या सफ़ेद कपडा
अबीर, गुलाल,कुमकुम (रोली),सिंदूर,हल्दी,मोली,धुप,अगरबत्ती,10 ग्राम लौंग,10 ग्राम इलायची,32 सुपारी,चन्दन
500 ग्राम चावल,250 गेहूँ,50 ग्राम कपूर,इत्र,कापूस,गंगाजल,गुलाबजल,गोमूत्र,पञ्च मेवा,5 जनेऊ,1 नारियल
भगवन के वस्त्र,250 ग्राम घी,10 ग्राम पीली राई,5 पान के पत्ते,5 आम के पत्ते,हार फूल तुलसी पत्र,4 केले के खम्बे
250 ग्राम मिठाई,1 लीटर दूध,250 ग्राम दही,100 ग्राम चीनी,50 ग्राम शहद,भगवन के भोग के लिये चूरमा, पंजीरी या हलुआ इत्यादि,हवन प्रकरण (यदि हवन करना हो तो ),हवन सामग्री,तिल,चावल,जौ,चीनी,घी,नव ग्रह समिधा 2 बण्डल
1 किलो आम की लकड़ी I
पूजा के पूर्व की तैयारी - जिस दिन पूजा करनी हो एक या दो दिन पूर्व ही यतन अनुसार पूजा की सभी सामग्री बाजार से ला कर उसे चेक कर ले ताकि पूजा के समय असुविधा न हो।
पूजन विधि - श्री सत्यनारायण का पूजन महीने में एक बार पूर्णिमा या संक्रांति को या किसी भी दिन या समयानुसार किया जा सकता है। सत्यनारायण का पूजन जीवन में सत्य के महत्तव को बतलाता है। इस दिन स्नान करके कोरे अथवा धुले हुए शुद्ध वस्त्र पहनें। माथे पर तिलक लगाएं। अब भगवान गणेश का नाम लेकर पूजन शुरु करें।
पूजन का मंडप तैयार करना - पूर्वाभिमुख हो कर एक चोकी पर पीला कपडा बिछा कर केले के खम्बे को लगा दे उस के बाद चित्रानुसार भगवन श्री सत्यनाराण गणेश नवग्रह कलश षोडश मातृकाएँ वास्तुदेवता की स्थापना करें अष्टदल या स्वस्तिक बनाएं। बीच में चावल रखें। पान सुपारी से भगवान गणेश की स्थापना करें। अब भगवान सत्यनारायण की तस्वीर रखें। श्री कृष्ण या नारायण की प्रतिमा की भी स्थापना करें।
सत्यनारायण के दाहिनी ओर शंख की स्थापना करें। जल से भरा एक कलश भी दाहिनी ओर रखें। कलश पर शक्कर या चावल से भरी कटोरी रखें। कटोरी पर नारियल भी रखा जा सकता है। अब बायी ओर दीपक रखें। केले के पत्तों से पाटे के दोनो ओर सजावट करें। अब पाटे के आगे एक सफेद कपड़ा बिछाकर उस पर नौ जगह चावल की ढेरी रखें तथा नवग्रह मंडल बनाएं पूजन के समय इनमें नवग्रहों का पूजन किया जाना है। और उस के साथ ही गेहूँ की सोलह ढेरी रखें तथा षोडशमातृका मंडल तैयार करने के बाद पूजन शुरु करें।प्रसाद के लिए पंचामृत, गेहूं के आटे को सेंककर तैयार की गई पंजीरी या शक्कर का बूरा, फल, नारियल इन सबको सवाया मात्रा में इकठ्ठा कर लें। या जितना शक्ति हो उस अनुसार इकठ्ठा कर लें। भगवान की तस्वीर के आगे ये सभी पदार्थ रख दें।
सकंल्प  - संकल्प करने से पहले हाथों मेे जल, फूल व चावल लें। सकंल्प में जिस दिन पूजन कर रहे हैं उस वर्ष, उस वार, तिथि उस जगह और अपने नाम को लेकर अपनी इच्छा बोले। अब हाथों में लिए गए जल को जमीन पर छोड़ दें।
पवित्रकरण - बाएँ हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ की अनामिका से निम्न मंत्र बोलते हुए अपने ऊपर एवं पूजन सामग्री पर जल छिड़कें- अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः।।
पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं, पुनः पुण्डरीकाक्षं ।
आसन शुद्धि - निम्न मंत्र से अपने आसन पर उपरोक्त तरह से जल छिड़कें- पृथ्वी त्वया घता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता । त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु च आसनम्। 
ग्रंथि बंधन - यदि यजमान या पूजा करने वाले भक्त सपत्नीक बैठ रहे हों तो निम्न मंत्र के पाठ से ग्रंथि बंधन या गठजोड़ा करें-  यदाबध्नन दाक्षायणा हिरण्य(गुं)शतानीकाय सुमनस्यमानाः ।  तन्म आ बन्धामि शत शारदायायुष्यंजरदष्टियर्थासम्।
आचमन करें -  इसके बाद दाहिने हाथ में जल लेकर तीन बार आचमन करें व तीन बार कहें-
ऊँ केशवाय नमः , ऊँ नारायणाय नमः ,  ऊँ माधवाय नमः    यह मंत्र बोलकर हाथ धोएं -
ऊँ गोविन्दाय नमः हस्तं प्रक्षालयामि ।
स्वस्तिवाचन मंत्र -  सबसे पहले स्वस्तिवाचन किया जाना चाहिए।
स्वस्ति न इंद्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्ताक्र्षयो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।
द्यौः शांतिः अंतरिक्षगुं शांतिः पृथिवी शांतिरापः  शांतिरोषधयः शांतिः। वनस्पतयः शांतिर्विश्वे देवाः
शांतिर्ब्रह्म शांतिः सर्वगुं शांतिः शांतिरेव शांति सा  मा शांतिरेधि। यतो यतः समिहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शंन्नः कुरु प्राजाभ्यो अभयं नः पशुभ्यः। सुशांतिर्भवतु।  अब सभी देवी-देवताओं को प्रणाम करें-
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः ।  उमा महेश्वराभ्यां नमः ।  वाणी हिरण्यगर्भाभ्यां नमः ।
शचीपुरन्दराभ्यां नमः ।  मातृ-पितृचरणकमलेभ्यो नमः । इष्टदेवताभ्यो नमः । कुलदेवताभ्यो नमः ।
ग्रामदेवताभ्यो नमः ।  वास्तुदेवताभ्यो नमः । स्थानदेवताभ्यो नमः । सर्वेभ्योदेवेभ्यो नमः । सर्वेभ्यो ब्राह्मणोभ्यो नमः।
सिद्धि बुद्धि सहिताय श्री मन्यहा गणाधिपतये नमः।

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