जाति गणना व रोहिणी आयोग की रिपोर्ट: जातीय संघर्ष के नए चक्रव्यूह की तरफ बढ़ रहा देश अजय बोकिल
Updated on
04-08-2023 04:40 PM
सार
ओबीसी जातियों को शिक्षा और नौकरी में 27 फीसदी आरक्षण तो मिल ही चुका है। नया आंकड़ा आने पर सरकार को इस आरक्षण को भी बढ़ाना पड़ सकता है। साथ ही तमाम ओबीसी जातियां जनप्रतिनिधित्व में भी उनकी संख्या के हिसाब से आरक्षण मांगेगीं, जो अधिकांश राजनीतिक दलों के लिए बड़ी चुनौती साबित होने वाला है।
विस्तार
हाल में दो घटनाएं लगभग एक साथ हुई हैं, जो भारतीय राजनीति और सामाजिक न्याय के संघर्ष का नया मोर्चा खोल सकती हैं। पहला है-पटना हाईकोर्ट द्वारा बिहार की नीतीश सरकार को राज्य में जातिगत सर्वे कराने की अनुमति देना और दूसरा देश में ओबीसी आरक्षण को लेकर गठित रोहिणी आयोग द्वारा अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपना। इस रिपोर्ट में आयोग ने ओबीसी जातियों को चार श्रेणियों में विभाजित करने की सिफारिश की है।
यानी अगर जातिगत सर्वे से जहां बिहार में पिछड़ा वर्ग जातियों की सही संख्या का पता लगेगा, वहीं रोहिणी आयोग रिपोर्ट यदि लागू होती है तो ओबीसी में श्रेणीवार आरक्षण का नए सिरे से बंटवारा होगा। यानी कोटे के भीतर कोटा वाली व्यवस्था लागू होगी।
वर्तमान में देश में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण ( राज्यों में यह प्रतिशत अलग-अलग है) लागू है। इन दोनों घटनाओं का राजनीतिक दल अपने हित साधन की दृष्टि से अलग-अलग तरीके से फायदा उठाएंगे। लेकिन एक बात साफ है कि इन घटनाओं ने ठंडी पड़ चुकी मंडल राजनीति को नए सिरे हवा दे दी है, जिसका काउंटर अब कमंडल राजनीति से करना मुनासिब बहुत नहीं होगा।
इस ‘मंडल पार्ट 2’ में सबसे बड़ा खतरा ओबीसी के भीतर मचने वाला नया घमासान होगा, जिसका फायदा राजनीतिक दल कैसे और किस रूप में उठाएंगे, यह देखने की बात है। अगले एक दशक तक यही राजनीति देश पर हावी रह सकती है।
जाति जनगणना की बिहार से हुई शुरुआत पूरे देश में ऐसी मांग के रूप में तेज होगी। इसका असर इस साल होने वाले चार राज्यों के विधानसभा और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा, क्योंकि पिछड़ा वर्ग आरक्षण की लड़ाई का सबसे महत्वपूर्ण चरण तो राजनीतिक आरक्षण का है, जो अभी तक अनसुलझा है या यूं कहें कि उसे किसी तरह दूसरे मुद्दे उठाकर दबाकर रखा गया है।
बढ़ सकता है ओबीसी आरक्षण
ओबीसी जातियों को शिक्षा और नौकरी में 27 फीसदी आरक्षण तो मिल ही चुका है। नया आंकड़ा आने पर सरकार को इस आरक्षण को भी बढ़ाना पड़ सकता है। साथ ही तमाम ओबीसी जातियां जनप्रतिनिधित्व में भी उनकी संख्या के हिसाब से आरक्षण मांगेगीं, जो अधिकांश राजनीतिक दलों के लिए बड़ी चुनौती साबित होने वाला है।
वो पुराना नारा ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ फिर जोर पकड़ेगा। ध्यान रहे कि देश में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का बिल इसी कारण से अटका हुआ है कि ओबीसी पहले अपना राजनीतिक आरक्षण सुनिश्चित करना चाहते हैं, उसके बाद ही महिला आरक्षण का समर्थन करना चाहते हैं। यही कारण है कि नौ सालों से केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद भी भाजपा महिला आरक्षण बिल संसद में पारित कराने का साहस नहीं जुटा पाई है।
देश में जाति आधारित जनगणना 1931 के बाद से नहीं हुई है। आजादी के बाद से देश में अनुसूचित जाति और जनजातियों की गणना तो होती है, लेकिन ओबीसी और सामान्य वर्ग की जातियों को अलग-अलग नहीं गिना गया है। फिर भी अनुमानत: ओबीसी जातियों की संख्या 50 फीसदी के आसपास है। जाति गणना को अनदेखा करने के पीछे असल भय राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में ऊंची और प्रभावशाली जातियों का वर्चस्व छिनना है और संख्याधारित आरक्षण के आगे योग्यता के मूल्य का हाशिए पर जाने का है।
इसका अर्थ यह नहीं कि ओबीसी में योग्य लोग नहीं हैं। वहां भी हैं, लेकिन अभी भी उच्चतम पदों और जिम्मेदारियों को संभालने वालों में ऊंची जातियां ही हावी हैं।
देश में ओबीसी की वास्तविक संख्या कितनी है, यह तभी पता चलेगा, जब देश के सभी राज्यों में जाति जनगणना हो। अभी तक केन्द्र सरकार इसे नकारती आई है, क्योंकि इसमें धर्म के आधार काफी हद तक गोलबंद किए गए हिंदू समाज का जाति के आधार पर नए सिर से विभाजन का खतरा तो है ही, साथ में खुद ओबीसी श्रेणी में नए घमासान मचने की चिंता भी है (हालांकि मुसलमानों के मामले में भाजपा इसी जाति चेतना की समर्थक है)।
इससे भी बढ़कर परेशानी यह है कि अगर रोहिणी आयोग की रिपोर्ट पर सरकार ने कार्रवाई की तो वो पिछड़ी जातियां, जो ओबीसी आरक्षण के बाद सबल हुई हैं और इस आरक्षण का सर्वाधिक लाभ उन्होंने ही उठाया है, सरकार से नाराज हो सकती हैं। ये वो जातियां हैं, जो अलग-अलग राज्यों में संख्या बल, धन बल और बाहुबल के आधार पर राजनीतिक पलड़ा अपने पक्ष में झुकाने में सक्षम हैं। क्या सरकारें इन्हें नाराज करने का जोखिम मोल ले सकती हैं?
रोहिणी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में ओबीसी के तहत आने वाली सभी जातियों की संख्या और इस वर्ग को 30 वर्ष पूर्व मिले आरक्षण के बाद उनकी सामाजिक स्थिति व आरक्षण लाभ की वस्तुस्थिति का लेखा-जोखा पेश किया है। रिपोर्ट के मुताबिक देश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तहत कुल 2633 जातियां सूचीबद्ध हैं। लेकिन आरक्षण लाभ की दृष्टि से यहां सामाजिक न्याय की उपेक्षा अथवा पक्षपाती लाभ ही हुआ है।
मसलन कुल ओबीसी जातियों/ उपजातियो में से 983 जातियों को ओबीसी आरक्षण का शून्य लाभ मिला है। फिर चाहे व शिक्षा की बात हो या फिर सरकारी नौकरी की। इसी तरह 994 जातियों की हिस्सेदारी नौकरी और पढ़ाई में मात्र 2.68 फीसदी की रही है। इसका सीधा अर्थ यह है कि ओबीसी आरक्षण का कोई विशेष लाभ इस वर्ग की एक तिहाई जातियों को नहीं मिला है।
आरक्षण की असली लाभार्थी वही जातियां रही हैं, जो ओबीसी में भी धनबली और बाहुबली रही हैं। आरक्षण लाभ के ये वास्तविक आंकड़े समान सामाजिक न्याय के मूलभूत उद्देश्य को ही पराजित करने वाले हैं।
ओबीसी आरक्षण के लिए चार श्रेणियां प्रस्तावित
रोहिणी आयोग की रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है, लेकिन मीडिया में आई खबरों की मानें तो आयोग ने ओबीसी आरक्षण की पिछड़ेपन के आधार पर चार श्रेणियां प्रस्तावित की हैं, लेकिन इन चार श्रेणियों की जातियों/ उपजातियों के बीच आरक्षण कोटा बंटवारे का आधार क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं है। अगर यह आधार भी जाति जनसंख्या होगी तो सबसे ज्यादा नुकसान में वो जातियां रह सकती हैं, जो संख्या में कम होने के बावजूद सामाजिक जागरूकता और संसाधनों के चलते आरक्षण का सबसे ज्यादा लाभ उठाती रही हैं, जैसे कि जाट, यादव, गूजर, कुर्मी, कुणबी मराठा, पाटीदार आदि।
अगर संख्या के आधार पर कोटे के भीतर कोटे में इनका आरक्षण कम किया गया तो इनमें भारी नाराजी फैल सकती है। दूसरे, असंतोष उन जातियों में भी फैल सकता है, जो संख्या में ज्यादा होने के बावजूद कम आरक्षण कोटा पाएंगीं।
संभव है कि विपक्ष की जाति गणना की मांग के मुद्दे की धार को भोंथरा करने के लिए केन्द्र की मोदी सरकार लोकसभा चुनाव के पहले देश में जाति गणना की घोषणा कर दे। वैसे भी इस पर अमल 2025 में ही हो पाएगा। अगर 2014 में भाजपानीत एनडीए फिर सत्ता में आया तो देखा जाएगा। फिलहाल यह संदेश दिया ही जा सकता है कि भाजपा जाति गणना के विरोध में नहीं है।
वैसे भी भाजपा के पास ओबीसी चेहरे के रूप में प्रधानमंत्री नरेंन्द्र मोदी के रूप में सबसे बड़ा तुरूप का इक्का है, जिसकी काट किसी दल के पास नहीं है। बाकी दलों के ओबीसी नेता क्षेत्रीय क्षत्रप की हैसियत वाले हैं।
संभव है कि मोदी सरकार जाति जनगणना की काट के रूप में रोहिणी आयोग रिपोर्ट का इस्तेमाल करें। यह दांव ओबीसी में भी अति पिछड़ी 1977 जातियों को कोटे के भीतर आरक्षण कोटा लागू कर उसे सामाजिक न्याय का नाम देकर चली जा सकता है। इसका असर यह होगा कि ओबीसी वोट गहराई के साथ विभाजित होगा और ‘पिछड़ों में अगड़ी’ बन चुकी जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने वाला होगा।
दूसरे, रोहिणी आयोग रिपोर्ट ओबीसी में दूसरे विभाजन का कारण बनेगी। क्योंकि ओबीसी में एक विभाजन तो सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही क्रीमी लेयर और नाॅन क्रीमी लेयर के रूप में कर दिया था।
क्या हो सकता है इसका असर?
इस पूरे घटनाक्रम का सीधा असर जनगणना में पहले से गिनी जाने वाली अनुसूचित जातियों और जनजातियों पर भी पड़ सकता है, क्योंकि वहां भी आरक्षण की मलाई चुनिंदा जातियों ने ही खाई है। लिहाजा रोहिणी आयोग जैसा कोई नया आयोग एससी/ एसटी जातियों में आरक्षण लाभ के अध्ययन के लिए बनाने की मांग जोर पकड़ सकती है, साथ ही वहां भी क्रीमी लेयर जैसा कुछ प्रावधान करने की मांग तेज हो सकती है।
रही बात मंडल पार्ट-2 का राजनीतिक मुकाबला करने की तो भाजपा के पास अब राम मंदिर जैसा कोई बहुत सशक्त मुद्दा नहीं बचा है, जो बहुसंख्यक हिंदू समाज को उसी ताकत से एक कर दे, क्योंकि राम मंदिर अब आकार ले ही रहा है और ज्ञानवापी अथवा मथुरा का मंदिर मस्जिद मुद्दा स्थानीय स्तर का ज्यादा है। ऐसे में वापस जातियों के आधार पर हिंदू समाज विभाजित होने के खतरे ज्यादा हैं।
कुल मिलाकर यह देश आर्थिक महाशक्ति बनने के दावों के बीच सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष के अगले चरण के चक्रव्यूह की ओर बढ़ रहा है। इसे कोई चाहकर भी नहीं टाल सकेगा, क्योंकि इसके अपने राजनीतिक लाभ और नुकसान हैं।
असली सवाल यह है कि आरक्षण को हम संघर्ष के किस माइक्रो लेवल तक ले जाना चाहते हैं, क्योंकि कोई भी ऐसी आदर्श स्थिति हो ही नहीं सकती, जिससे समाज का हर तबका संतुष्ट हो। इसके लिए आज नहीं तो कल अनंत काल तक आरक्षण के बजाय आरक्षण लाभ की समय सीमा तय करनी ही पड़ेगी। वरना सभी को सामाजिक न्याय की बात केवल नारेबाजी और सपना ही रहेगा।
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