यूं तो पुण्य सलिला भारत भूमि पर कई महान वीर सपूतों का जन्म हुआ है, जिन्होंने देश को स्वतंत्र कराने के लिए अपनी जिंदगी देश के नाम लिख दी थी. लेकिन शहीद ए आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आज़ादी के तीन ऐसे दीवाने थे जो भरी जवानी में हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए थे.
आजादी की लड़ाई के इन महानायकों में से एक महान क्रांतिकारी शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे के खेडा गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में माता पार्वती देवी और पिता हरिनारायण राजगुरु के घर हुआ था . 6 वर्ष की अल्प आयु में ही उनके पिता का निधन हो गया था. विद्याध्ययन करने वो वाराणसी आये, जहां उनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हुआ, चन्द्रशेखर आजाद से प्रभावित होकर वो उनकी पार्टी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी से जुड़ गये जहां पहचान छुपाने के लिए इन्हें रघुनाथ नाम से पुकारा जाता था. राजगुरू को कसरत का बेहद शौक था और वे छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध-शैली के बड़े प्रशंसक थे. वो एक अच्छे निशानेबाज भी थे, लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए 19 दिसंबर 1928 को साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा सुखदेव का पूरा साथ दिया था. इस घटना के बाद अंग्रेजों की रूह कांप गई थी और भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नीव हिल उठी थी. 28 सितंबर 1929 को राजगुरु ने एक गवर्नर को भी मारने की कोशिश की थी, जिसके अगले दिन ही उन्हें पुणे से गिरफ्तार कर लिया गया था.
इस तिकड़ी के दूसरे सदस्य सुखदेव थापर का जन्म पंजाब के लायलपुर में रामलाल थापर व श्रीमती रल्ली देवी के घर 15 मई 1907 को हुआ था. जन्म से तीन माह पूर्व ही पिता का स्वर्गवास हो जाने के कारण इनके ताऊ अचिन्तराम ने इनका पालन पोषण करने में इनकी माता को पूर्ण सहयोग किया. बचपन से ही सुखदेव ने ब्रिटिश राज द्वारा भारत की जनता पर किए जा रहे क्रूर अत्याचारों को देखा था. महज 12 वर्ष की उम्र में अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए भीषण नरसंहार का बालक सुखदेव के मन पर बहुत गहरा असर हुआ. बचपन की इन्हीं यादों ने नौजवान सुखदेव को क्रांतिकारी बना दिया. लाहौर के नेशनल कॉलेज में पढ़ते हुए उन्होंने भगत सिंह, कॉमरेड रामचन्द्र एवं भगवती चरण बोहरा के साथ मिलकर 'नौजवान भारत सभा' की शुरुआत की थी. यह संगठन युवाओं को स्वतंत्रता संग्राम के लिए तैयार करता था.
यूं तो उन्होने कई क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया था लेकिन उन्हें लाहौर षड्यंत्र मामले में उनके साहसी हमले के लिए हमेशा किया जाएगा. साण्डर्स का वध करने में इन्होंने भगत सिंह तथा राजगुरु का पूरा साथ दिया था. अपनी जेल यात्रा के दौरान सुखदेव ने 1929 में कैदीयों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार के विरोध में बन्दियों द्वारा की गयी व्यापक हड़ताल में भी बढ-चढकर भाग लिया था. गान्धी-इर्विन समझौते के सन्दर्भ में इन्होंने एक खुला खत गान्धी के नाम अंग्रेजी में लिखा था जिसमें इन्होंने महात्मा जी से कुछ गम्भीर प्रश्न किये थे.
दोस्तों की इस त्रिवेणी के अग्रणी सदस्य भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को पंजाब के बंगा गांव में जारणवाला (अब पाकिस्तान में) में एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार में हुआ था. उनके चाचा सरदार अजीत सिंह और उनके पिता किशन सिंह महान स्वतंत्रता सेनानी थे. गदर आंदोलन ने उनके दिमाग पर एक गहरी छाप छोड़ी थी. 19 साल की छोटी उम्र में फांसी पर चढ़ा करतार सिंह सराभा, भगत सिंह का हीरो बन गया था.
जब वे बी.ए. परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, जब उनके माता-पिता ने उनका विवाह करने की सोची. तब भगत सिंह ने साफ-साफ इंकार कर दिया और अपने माता पिता से कहा कि अगर मेरी विवाह गुलाम-भारत में ही होनी है, तो मेरी दुल्हन केवल मेरी मृत्यु ही होगी.
निर्धारित तिथि और समय से पूर्व जेल मैनुअल के नियमों को दरकिनार रखते हुए २३ मार्च 1931 को शांम 7 बजे सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह तीनों को लाहौर सेण्ट्रल जेल में फाँसी के फंदे पर लटका कर मार डाला गया. देश के लिए फांसी चढ़ते समय उनकी आँखों में डर नहीं बल्कि गर्व के भाव थे. उनके द्वारा किए गए महान कार्यों और कुर्बानी को देश हमेशा याद रखेगा. उनका जीवन और उनकी शहादत देश के युवाओं को और आगे आने वाली सभी पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी.
इन वीरों की याद में इन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए 23 मार्च का दिन सम्पूर्ण भारत में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस दिन का मकसद वीरता के साथ लड़ने वाले इन सेनानियों की वीरता की गाथाओं को नयी पीढ़ी के समक्ष लाना है.
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