लोकसभा चुनाव के मद्देनजर देश में गरमा रहे सियासी माहौल और तीखे आरोप प्रत्यारोपों के बीच भारतीय राजनीति में दबे पांव आ रहे एक सांस्कृतिक बदलाव की अोर कम ही लोगों का ध्यान गया है। वोटों की रस्साकशी के बीच हाल में फायर ब्रांड नेत्री और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने राज्य की सभी 42 लोकसभा सीटों पर अपने प्रत्याशियों की नुमाइश एक रैम्प वाॅक के जरिए की। इसमें ममता खुद सबसे आगे दर्शक प्रशंसकों के बीच से दोनो हाथ हिलाते और मुस्कुराते हुए गुजरीं। उनके पीछे- पीछे बाकी के प्रत्याशी रैम्प पर अभिवादन करते हुए गुजरे। रैम्प के दोनो अोर बैठे दर्शकों के चेहरों पर राजनेताअों के इस नए अंदाज से हैरानी भरी खुशी थी। इस राजनीतिक रैम्प वाॅक के लिए तीन बड़े मंचों को दो रैम्प से जोड़ा गया था। इनमें से एक 330 तो दूसरा 240 फीट लंबा था। तर्क था कि दूर पीछे बैठे दर्शकों को मंच पर बैठे अतिथि और वक्ता ठीक से नजर नहीं आते। रैम्प इसी कमी को पूरा करता है। लगता है कि लोगों ने भी इस नए प्रयोग का खुशी से स्वीकारा। संदेश यही है कि अब राजनीति में रैम्प को उतना ही स्पेस मिलने लगा है। या यूं कहे कि राजनीति अब रैम्प पर आ गई है। और यह भी कि राजनीति भी अब एक फैशन है और फैशन के जरिए भी राजनीति को साधा जा सकता है। इससे वोट बढ़ें न बढ़ें, व्यूज और लाइक्स जरूर बढ़ेंगे। आभासी दुनिया का दायरा बढ़ेगा।
हालांकि इसके पहले भारत में कुछ राजनेता अपने स्टाइल स्टेटमेंट के जरिए चाहने वालों के िदलों में घर बना चुके थे। आजादी के बाद के दौर के भारत में ऐसी हस्तियों में पहला नाम जवाहर लाल नेहरू का है, जिनकी शेरवानी पर लाल गुलाब और कुर्ते पर पहनी वाली जैकेट कभी नेहरू जैकेट के नाम से मशहूर हुई थी। बाद में श्रीमती इंदिरा गांधी की सुंदर साडि़यां भी कभी समांतर चर्चा का विषय हुआ करती थीं। राजीव गांधी सुदर्शन व्यक्ति थे, इसलिए हर कपड़ा उन पर फबता था। बाद के दौर में सियासत ज्यादा उथल पुथल के दौर के गुजरी, नेताअोंका ध्यान कपड़ों से ज्यादा सत्ता संघर्ष की तरफ रहा। उसमें भी एक जमाने में पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह द्वारा पहनी जाने वाली फर की कश्मीरी टोपी भी उनकी पहचान बना गई। राजनीति में टोपी पहनना या पहनाना भी नया मुहावरा बना। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्टाइल स्टेटमेंट में सबको पीछे छो़ड़ दिया है। वो दिन में कई अलग- अलग ड्रेस, कुर्ते और जैकेट पहने नमूदार होते हैं। सब कुछ मैचिंग, व्यवस्थित, फिजा के अनुकूल और गहरा राजनीतिक संदेश देता हुआ। इसके लिए मोदी जी की कई बार आलोचना भी होती है, लेकिन अपने फैशन और राजनीतिक कटाक्षों से विरोधियों को चौंकाना सियासत की नई मोदी स्टाइल बन चुकी है। यहां तक कि उन्होंने नेहरू जैकेट में भी नया वैचारिक अस्तर लगाते हुए मोदी जैकेट में तब्दील कर दिया है।
अलबत्ता ममता और उन जैसे कुछ नेता जिस किस्म की नई और नैनलुभावन राजनीति कर रहे हैं, वह मोदी स्टाइल से भी कुछ आगे की चीज है। लगता है कि आने वाले समय में नेता जनता की सेवा करें न करें, लेकिन राजनीति के रैम्प पर कैटवाॅक करते खूब नजर आएंगे। इस कैट वाॅक के लाखों वीडियो बनेंगे और सोशल मीडिया पर युवा पीढ़ी इसे देख देख दीवानी हुई जाएगी। वैसे राजनीतिक संदेश देने और जनता से कनेक्ट होने के इस अभिनव तरीके की शुरूआत ममता दीदी ने की हो, ऐसा नहीं है। इसके पहले कुछ दूसरे नेता ऐसे प्रयोगो की शुरूआत कर चुके हैं। मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने पिछले एक साल से मंच के बजाए रैम्प बनवाकर और हाथ में माइक लेकर घूम घूम कर भाषण देने की शैली ईजाद की थी। इससे एक फर्क यह पड़ता था कि श्रोताअोंको अपनी गर्दन और आंखें दोनो घुमा घुमाकर ‘मामा’ के भाषण सुनना और उन्हें देखना पड़ता था। इस संबोधन शैली, जो अक्सर मनोरंजन के कार्यक्रमों में नजर आती रही है, राजनीति में प्रवेश से सियासत को रंजक बनाने में थोड़ी मदद जरूर मिली है। श्रोताअों को निस्पंद बोरियत से भी उबारा है। दूसरे, इस वक्तृत्व शैली से वक्ता का शारीरिक व्यायाम भी स्वत: हो जाता है, जिसकी कि अधिकांश नेताअोंको जरूरत होती है। भाषण के इस पैटर्न में दर्शकों की नजर कानों से ज्यादा काम करती है और वो शब्दों के साथ- साथ वक्ता के कपड़ों पर भी ध्यान देते हैं। क्या पहना है, कैसा पहना है, क्यों पहना है। कुछ वैसे ही कि जैसे फैशन परेड में रैम्प पर चलने वाले अथवा वालियों के कपड़ों पर दर्शकों की आंखें टिकीं रहती हैं। ममता से भी पहले इस नई शैली को अपनाने का काम आंध्र प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी ने किया था। उन्होंने अपनी पार्टी के कैडर तक पहुंचने के लिए डेंडलुरू में बहुत बड़ा रैम्प तैयार करवाया और वहां से लोगों को सम्बोधित किया। उन्होंने इस बात का खास तौर पर ध्यान रखा कि दर्शकों को उनकी पीठ न दिखाई दे।
वैसे फैशन की दुनिया में रैम्प वाॅक डेढ़ सदी पुरानी शैली है। भारत के ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बनने के साथ ही 1860 में ब्रिटेन में नए नए कपड़ों के डिजाइन अमीरों तक पहुंचाने के लिए इस तरह की शुरूआत हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फैशन उद्दयोग के वैश्विक आकार ग्रहण किया। आजादी के बाद धीरे धीरे भारत में भी फैशन उद्दयोग ने जड़े जमाईं और आज देश में फैशन का कारोबार करीब 6 खरब रूपए का है और जानकारो के मुताबिक 2027 तक यह 11 खरब रूपए तक हो सकता है। देश में हजारो फैशन डिजाइनर्स हैं और उनके काम को लोगों तक पहुंचाने के लिए सैंकड़ों रैम्प वाॅकर भी हैं। बहुत से लोग इसे पूंजीवादी चोचला मानते हैं, लेकिन यही वस्त्रोद्योग 6 करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार भी देता है। और राजनीति भी लाखों लोगों को ‘काम’ देती है।
रही बात फैशन उद्योग और राजनीति के उद्योग के अंतर्सबंध की। क्या दोनो में कोई समानता है? इसका जवाब दुनिया के जाने में म्युजियम क्यूरेटर एंड्र्यू बोल्टन के इस बयान में है। उन्होंने कहा था कि फैशन हमारे समय का दर्पण है और इसीलिए राजनीति इसमें अंतनिर्हित है।‘ बोल्टन कहते हैं कि समय के साथ इसमें कुछ नए आयाम जरूर जुड़ गए हैं। कह सकते हैं कि फैशन राजनेताअों के चरित्र को छुपाता है तो उजागर भी करता है। अगर भारत की बात करें तो हमारे यहां अब वैचारिक और दलीय निष्ठा भी फैशन की माफिक हो गए हैं। जब चाहा बदल डाला। क्योंकि अब हर कोई सत्ता के रैम्प पर ही वाॅक करना चाहता है। वैसे रैम्प वाॅक को कैट वाॅक भी कहा जाता है। इससे आशय यह है कि जिस तरह बिल्ली बदन चुराकर भी संकरी जगह से निकलने की राह बना लेती है, उसी तरह हमारे यहां राजनेता भी स्वार्थ सिद्धि की पतली गलियां न सिर्फ खोज लेते हैं बल्कि उससे निकलने या उसमें घुसने के अजीबो गरीब तर्क भी गढ़ लेते हैं। बहुतों का मानना है कि रैम्प पर दिखाए जाने वाले कपड़े ज्यादातर अव्यावहारिक और उस पर चलने वाले माॅडलों की देह भाषा रूखी और निष्प्राण होती है। यह सच है कि रैम्प पर चलने वाली माॅडल कितनी ही खूबसूरत क्यों न हो, कितनी ही अदाएं क्यों न बिखेरे, लेकिन वो दर्शकों के सामने किंचित भी नहीं मुस्कुराती। कारण कि ऐसा करने से दर्शकों का ध्यान कपड़ों से हटकर सौंदर्य पर केन्द्रित हो सकता है। यानी फैशन की दुनिया में सुंदरता केवल एक साधन है साध्य नहीं। ठीक वैसे ही कि जैसे राजनीति में वोट हासिल करना साधन है, साध्य तो सत्ता है जो मिल जाने पर उसे दिलाने वाला ही हाशिए पर फेंक दिया जाता है। अलबत्ता नेता रैम्प पर मुस्कुराते हुए चलते हैं। कई बार चीखते गरियाते भी हैं। हवा में हाथ भी लहराते हैं। यह शायद रैम्प वाॅक का गंवई पक्ष है या यूं कहें कि रैम्प वाॅक की सजावटी दुनिया का असली मानवीय और राजनीतिक पहलू भी है। चुनावी वादों के समय भी राजनेताअोंकी कोशिश यही रहती है कि जनता उनके हावभाव को ध्यान में रखे वादों पर संजीदगी न दिखाए। जनता की मुश्किल यह है कि उसे ‘वाॅक’ करने के लिए रैम्प केवल पांच साल में एक बार ही मिलता है।
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