नारी शक्ति वंदन अधिनियम 2023: तत्काल अमल न होने से राहत में हैं राजनीतिक दल
Updated on
26-09-2023 07:50 AM
सार
गर वर्तमान 17वीं लोकसभा की ही बात की जाए तो इसमे 543 में से केवल 78 महिलाएं हैं, जो कुल सदस्य संख्या का 14 फीसदी हैं ( यह भी अब तक का सर्वाधिक प्रतिशत है)। सदन की कुल सीटों में से 362 जनरल और ओबीसी की सीटे हैं, जबकि 84 अनुसूचित जाति (एससी) व 47 अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए हैं। यानी कुल महिला सदस्यों में से 55 जनरल व ओबीसी तथा 11 एससी व 12 एसटी की महिलाएं हैं।
विस्तार
जैसी कि उम्मीद थी लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के राजनीतिक आरक्षण का बिल दोनो सदनो में मोटे तौर सर्वसम्मति से पारित हो गया। विपक्ष ने इसे समर्थन देने के साथ- साथ इस बिल को तत्काल लागू करने तथा इसमें ओबीसी (पिछड़े वर्ग की महिलाओं) के लिए सीटों के आरक्षण की मांग रखी। उसी हिसाब से सदन में संशोधन प्रस्ताव भी रखे गए, जो खारिज हो गए। महिला आरक्षण विधेयक हकीकत में कब से लागू होगा, इसको लेकर अभी भी संशय की स्थिति है।
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दरअसल, घोषित रूप से भले कोई न कहे, लेकिन इस बिल के तत्काल लागू न होने से सभी राजनीतिक दलों और खासकर पुरुष सांसदों ने राहत की सांस ली है। कांग्रेस सहित विभिन्न विपक्षी पार्टियों और विशेषकर पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले दलों ने सदन में अपना विरोध जरूर दर्ज कराया, लेकिन वो कागजी ज्यादा था, क्योंकि महिला आरक्षण लागू होता तो सबसे ज्यादा दिक्कत भी उन्हीं को होने वाली थी।
मोटे तौर पर मोदी सरकार लोकसभा चुनाव के कुछ पहले यह विधेयक मुख्यत: तीन कारणों से लेकर आई। पहला तो नए संसद भवन के शुभारंभ सत्र को एक ऐतिहासिक स्वरूप देना था, क्योंकि महिला आरक्षण बिल के पारित होने के साथ ही इस विशेष सत्र को अलग तरह की गरिमा और सामाजिक न्याय की आभा मिली।
दूसरे, आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इसका राजनीतिक लाभ लेना और तीसरे महिला आरक्षण को लेकर भीतरी अंतर्विरोधों को ढंकना और इसे लेकर विपक्ष में घमासान मचने देना।
महिला आरक्षण बिल और भाजपा का राजनीतिक लाभ
जहां तक महिला आरक्षण के राजनीतिक लाभ की बात है तो इसका कुछ न कुछ फायदा सभी दलों के मिलेगा। खास बात है इसे लाने की टाइमिंग। सदन में चर्चा के दौरान यह आरोप भी लगे कि सरकार लोकसभा चुनाव के पहले ही यह बिल क्यों लेकर आई? उसका इरादा महज देश की आबादी को चुनावी झुनझुना दिखाना है। इस सवाल का सीधा जवाब यह है कि अगर सरकार जम्मू- कश्मीर से धारा 370 हटाने की तर्ज पर पिछला लोकसभा चुनाव जीतने के तत्काल बाद यह बिल लेकर आती तो विपक्ष इसे किसी कीमत पर पारित नहीं होने देता।
हालांकि, अगर उस वक्त यह बिल पारित हो जाता तो शायद 2024 के लोकसभा चुनाव तक इस आरक्षण की तमाम वैधानिक और कानूनी प्रक्रियाएं पूरी हो चुकी होतीं। इसके पहले जब- जब भी यह विधेयक संसद में आया है, ओबीसी आरक्षण की आड़ में इसमें अड़ंगा लगाया गया। लेकिन इस बार सभी दलों ने मजबूरी में समर्थन इसलिए किया क्योंकि उनके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था। दूसरे, इस बीच रणनीतिक रूप से राजनीतिक दलों की नीति और एप्रोच में कुछ बदलाव आया है।
मसलन कांग्रेस भी अब पिछड़े वर्ग की राजनीति करने लगी है तो पिछड़े वर्ग की सियासत करने वाले दलों को दूसरे वर्गों और महिला वोटों की चिंता सता रही है। जबकि भाजपा ओबीसी और अन्य वर्गों की राजनीति में संतुलन साधने की कोशिश कर रही है। अगर विरोधी दल इस बार भी महिला विरोध करते तो चुनाव में उनके महिला विरोधी होने का गलत संदेश जाता और इसका फायदा भी अंतत: भाजपा को ही मिलता। विपक्षी दल यह जोखिम नहीं लेना चाहते थे, लेकिन इससे भी बड़ी राहत की बात उनके लिए यह है कि यह महिला आरक्षण भी तत्काल लागू नहीं होने वाला।
अगर वर्तमान 17वीं लोकसभा की ही बात की जाए तो इसमे 543 में से केवल 78 महिलाएं हैं, जो कुल सदस्य संख्या का 14 फीसदी हैं ( यह भी अब तक का सर्वाधिक प्रतिशत है)। सदन की कुल सीटों में से 362 जनरल और ओबीसी की सीटे हैं, जबकि 84 अनुसूचित जाति (एससी) व 47 अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए हैं। यानी कुल महिला सदस्यों में से 55 जनरल व ओबीसी तथा 11 एससी व 12 एसटी की महिलाएं हैं। अगर आज महिला आरक्षण लागू होता तो सदन की कुल 181 सीटें आरक्षित हो जातीं। जिनमें जनरल व ओबीसी की 119 सीटें होतीं। इसका सीधा अर्थ है कि 64 पुरूष सांसदों को अपनी सीटों से हाथ धोना पड़ता।
इसी प्रकार एससी में 16 पुरूष सांसदों और सबसे कम नुकसान एसटी में होता, जहां केवल 3 तीन पुरुष सांसदों को ही अपनी सीट महिलाओं के लिए छोड़नी पड़ती। चूंकि सभी राजनीतिक दल पुरुष प्रधान ही हैं, इसलिए कम से कम इस चुनाव में उनके टिकट बचे रहने की पूरी संभावना है। राजनीतिक दुकान के हिसाब से यह राहत भी कम नहीं है।
दूसरा सवाल ओबीसी आरक्षण का है। यह अपने आप में जटिल सवाल है कि देश में उनकी कुल आबादी कितनी है। चूंकि 2011 की जनगणना पुरानी हो चुकी है, और नई जनगणना 2025 में संभावित है। इस जनगणना के बात पता चलेगा कि ओबीसी आबादी कितनी है और उसी हिसाब से सीटों परिसीमन होकर ओबीसी महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण होगा। इसमे समय लगेगा।
वैसे भी सरकार मनमर्जी से सीटों का आरक्षण तो कर नहीं सकती। करती तो भी उस पर धांधली का आरोप लगता। आखिर सीटों के आरक्षण का यह काम विधिवत, सर्वमान्य और प्रामाणिक तरीके से ही होगा। और जब तक महिला आरक्षण की यह प्रक्रिया पूरी होगी, तब तक सभी राजनीतिक दल अपनी भावी राजनीति और रणनीति आराम से तय कर सकेंगे। महिला आरक्षण बिल में एक बिंदु, जिस पर अभी बवाल मच सकता है, वो है महिला सीटों का रोटेशनल (चक्रानुक्रम) से सीटों का आरक्षण।
इसका अर्थ यह है कि जो सीट महिला के लिए एक बार आरक्षित हुई, वो अगली बार भी होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इससे महिला नेतृत्व को आगे बढ़ाने की निरंतरता पर असर पड़ेगा। हालांकि स्थानीय निकाय चुनाव में अभी आरक्षण की यही प्रक्रिया है। यहां जनरल ओबीसी व महिला सीटों का आरक्षण लॉटरी से होता है।
एक और खतरा सांस दपति नामक असंवैधानिक संस्था का और मजबूत होने का है। निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में महिलाएं इस आंतरिक चुनौती का मुकाबला कैसे करती हैं, यह देखने की बात है।
कितना व्यवहारिक होगा यह बिल?
यूं भी महिला आरक्षण की बात करना और वास्तव में उतनी संख्या में महिलाओं को टिकट देने में जमीन-आसमान का फर्क है, क्योंकि राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं ज्यादा हावी होती हैं। ऐसे में कौन सांसद अपनी सीट छोड़ना चाहेगा। यानी इसको लेकर राजनीतिक दलों के भीतर घमासान मचना तय है।
सियासी पार्टियों के लिए सीटों को छोड़ना कितने जिगर का काम है, यह हम उस इंडिया गठबंधन में ही देख रहे हैं, जो नरेन्द्र मोदी और भाजपा को हराने के मुद्दे पर एकमत होने के बाद भी सहयोगी दलों के बीच सीटों के बंटवारे पर कोई फैसला नहीं कर पा रहा है।
अभी तक कोई ऐसा फार्मूला तैयार हुआ है, जो सभी दलों के राजनीतिक स्वार्थों और वैचारिक आग्रहों को साथ लेकर चले। खुद बीजेपी में भी महिला आरक्षण आसानी से नहीं होने वाला है। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों में संभावित नए घमासान का बीजारोपण भी इस महिला आरक्षण ने कर दिया है।
इसका असर हमे जल्द ही दिखाई देगा। इसीलिए महिला आरक्षण को सिद्धांत रूप में स्वीकार करते हुए भी इस पर तत्काल अमल सुविचारित तरीके से टाला गया है, क्योंकि सभी राजनीतिक दल भीतर से यही चाहते थे। बावजूद इसके इस बिल का राजनीतिक, सामाजिक और लैंगिक समानता की दृष्टि से दीर्घकालिक महत्व है। वो ये कि भारतीय समाज अब महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने के लिए मानसिक रूप से तैयार है।
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