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पौराणिक कथा : पुत्र मोह कितना उचित ?

Updated on 05-05-2021 12:48 AM
महाराजा चित्रकेतु पुत्र हीन थे । महर्षि अंगिरा का उनके यहाँ आना जाना होता था । जब भी आते राजा उनसे निवेदन करते, महर्षि पुत्र हीन हूँ , इतना राज्य कौन सम्भालेगा। कृपा करो एक पुत्र मिल जाए, एक पुत्र हो जाए । ऋषि बहुत देर तक टालते रहे । कहते - राजन् ! पुत्र वाले भी उतने ही दुखी हैं जितने पुत्रहीन । किंतु पुत्र मोह बहुत प्रबल है । बहुत आग्रह किया , कहा - ठीक है, परमेश्वर कृपा करेंगे तेरे ऊपर , पुत्र पैदा होगा। समय के बाद, एक पुत्र पैदा हुआ । थोडा ही बडा हुआ होगा, राज़ा की दूसरी रानी ने उसे ज़हर दे कर मरवा दिया । 
राजा चित्रकेतु शोक में डूबे हुए हैं । बाहर नहीं निकल रहे। महर्षि को याद कर रहा है। उनकी बातों को याद कर रहा है। महर्षि बहुत देर तक इस होनी को टालते रहे । लेकिन होनी भी उतनी प्रबल । संत महात्मा भी होनी को कब तक टालते।आखर जो प्रारब्ध में होना है वह होकर रहता है। संत ही है जो टाल सकता है। कि आज का दिन इसको न देखना पड़े तो टालता रहा। आज पुन: आए हैं लेकिन देवऋषि नारद को साथ लेकर आए है । राजा बहुत परेशान है । 
देवऋषि राज़ा को समझाते हैं कि तेरा पुत्र जहाँ चला गया है वहाँ से लौट कर नहीं आ सकता। शोक रहित हो जा। तेरे शोक करने से तेरी सुनवाई नहीं होने वाली। बहुत समझा रहे हैं राजा को, लेकिन राजा फूट फूट कर रो रहा है। ऐसे समय में एक ही शकायत होती है कि यदि लेना ही था तो दिया क्यों ? यह तो आदमी भूल जाता है कि किस प्रकार से आदमी माँग कर लेता है। मन्नतें माँग कर, इधर जा उधर जा, मन्नतें माँग माँग कर लिया है पुत्र को लेकिन आज उन्हें ही उलाहना दे रहा है। 
देवर्षि नारद राजा को समझाते हैं कि पुत्र चार प्रकार के होते हैं । पिछले जन्म का वैरी, अपना वैर चुकाने के लिए पैदा होता है, उसे शत्रु पुत्र कहा जाता है। पिछले जन्म का ऋण दाता। अपना ऋण वसूल करने आया है। हिसाब किताब पूरा होता है , जीवनभर का दुख दे कर चला जाता है। यह दूसरी तरह का पुत्र। तीसरे तरह के पुत्र उदासीन पुत्र । विवाह से पहले माँ बाप के । विवाह होते ही माँ बाप से अलग हो जाते हैं । अब मेरी और आपकी निभ नहीं सकती। पशुवत पुत्र बन जाते हैं। चौथे प्रकार के पुत्र सेवक पुत्र होते हैं। माता पिता में परमात्मा को देखने वाले, सेवक पुत्र। सेवा करने वाले। उनके लिए , माता पिता की सेवा, परमात्मा की सेवा। माता पिता की सेवा हर एक की क़िस्मत में नहीं है। कोई कोई भाग्यवान है जिसको यह सेवा मिलती है। उसकी साधना की यात्रा बहुत तेज गति से आगे चलती है। घर बैठे भगवान की उपासना करता है। 
राजन तेरा पुत्र शत्रु पुत्र था । शत्रुता निभाने आया था, चला गया। यह महर्षि अंगीरा इसी को टाल रहे थे। पर तू न माना । समझाने के बावजूद भी राजा रोए जा रहा है। माने शोक से बाहर नहीं निकल पा रहा। देवर्षि नारद कहते हैं राजन मैं तुझे तेरे पुत्र के दर्शन करवाता हूँ । 
सारी विधि विधान तोड के तो देवर्षि उसके मरे हुए पुत्र को ले कर आए हैं । शुभ्र श्वेत कपड़ों में लिपटा हुआ है। राजा के सामने आ कर खडा हो गया। देवर्षि कहते हैं क्या देख रहे हो। तुम्हारे पिता हैं प्रणाम करो। पुत्र / आत्मा पहचानने से इन्कार कर रहा है। कौन पिता किसका पिता? देवर्षि क्या कह रहे हो आप ? न जाने मेरे कितने जन्म हो चुके हैं । कितने पिता ! मैं नहीं पहचानता यह कौन है! किस किस के पहचानूँ ? मेरे आज तक कितने माई बाप हो चुके हुए हैं । किसको किसकी पहचान रहती है? मैं इस समय विशुद्ध आत्मा हूँ । मेरा माई बाप कोई नहीं । मेरा माई बाप परमात्मा है। तो शरीर के सम्बंध टूट गए । कितनी लाख योनियाँ आदमी भुगत चुका है, उतने ही माँ बाप । कभी चिड़िया में मा बाप , कभी कौआ में मा बाप , कभी हिरण में कभी पेड़ पौधों में इत्यादि इत्यादि । 
सुन लिया राजन । यह अपने आप बोल रहा है। जिसके लिए मैं रो रहा हूँ , जिसके लिए मैं बिलख रहा हूँ वह मुझे पहचानने से इंकार कर रहा है। जो पहला आघात था, उससे बाहर निकला। जिस शोक सागर में पहले डूबा हुआ था तो परमात्मा ने उसे दूसरे शोक सागर में डाल कर पहले से बाहर निकाला ।  समझा कि पुत्र मोह केवल मन का भ्रम है। सत्य सनातन तो केवल परमात्मा है। 
संत महात्मा कहते हैं जो माता पिता अपने पुत्र को पुत्री को इस जन्म में सुसंस्कारी नहीं बनाते, उन्हें मानव जन्म का महत्व नहीं समझाते, उनको संसारी बना कर उनके शत्रु समान व्यवहार करते हैं, तो अगले जन्म में उनके बच्चे शत्रु व वैरी पुत्र पैदा होते हैं उनके घर ।  अत: संतान का सुख भी अपने ही कर्मों के अनुसार मिलता है, ज़बरदस्ती मन्नत इत्यादि से नही और मिल भी जाये तो कब तक रहे इसका कोई भरोसा नहीं। 

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