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मोहन यादव सरकार: अपनी लकीर बड़ी करने की पुरजोर कोशिश...

Updated on 04-01-2024 11:19 AM
मध्यप्रदेश में नई भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में डाॅ. मोहन यादव को शुरू में भले ही ‘डार्क हाॅर्स’ माना जा रहा हो, लेकिन अपने 20 दिन के कार्यकाल में उन्होंने जिस तेजी से और जिस संकल्प शक्ति के साथ फैसलों की झड़ी लगा दी है, उससे राज्य में साफ संदेश गया है कि कोई उन्हें ‘हल्के’ में न ले। यह अपनी लकीर बड़ी करने की कोशिश भी है। खास बात यह है कि डाॅ.मोहन यादव के कुछ फैसलों में कई छोटी- छोटी लेकिन गंभीर जमीनी समस्याअों की निदान की चिंता भी दिखाई पड़ती है। यानी ये समस्याएं तो बरसों से चली आ रही हैं, लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री ने इन्हें अब तक बहुत संजीदगी से नहीं लिया। दूसरे, यादव सरकार के फैसलों में राजनीतिक दूरदर्शिता के साथ- साथ प्रशासनिक कसावट का आग्रह भी साफ नजर आती है। 
मप्र में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की चौथी बार बंपर जीत के बाद बहुतों का कयास था कि अब पार्टी को राज्य में नया चेहरा प्रोजेक्ट करना आसान नहीं होगा। लेकिन भाजपा आलाकमान ने सरकार का चेहरा मोहरा बदलने की ठान ली थी। इसी के तहत बहुत कम चर्चित लेकिन भगवान महाकाल की नगरी के बाशिंदे डाॅ. मोहन यादव को मुख्‍यमंत्री पद की कमान सौंपी गई। हालांकि आला कमान द्वारा सुनियोजित तरीके से दरकिनार ‍िकए गए पूर्व मुख्यमंत्री‍ शिवराजसिंह चौहान ने एक अलग रणनीति अपनाते हुए एक बार फिर से अपनी दावेदारी जताने का कोई मौका नहीं छोड़ा  और वो अभी भी यह बताने में लगे हैं कि भूमिका कोई सी भी हो, वो जन सेवा से पीछे हटने वाले नहीं है। शिवराज की यह कसक समझी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने लगभग 17 साल तक देश के इस ह्रदय प्रदेश की कमान संभाली और राजनीति का अपना अलग नरेटिव गढ़ा। लेकिन लगातार सत्ता में बने रहने के अपने दुष्परिणाम भी होते हैं। सरकार में एक काकस और निरंकुशता का भाव बन जाता है। यूं शिवराज भावनात्मक और भौतिक रूप से जनता से जुड़े रहे, लेकिन प्रशासनिक तंत्र जनता से दूर होता चला गया। उसमे मगरूरी का भाव घर कर गया। इसके अलावा खुद शिवराज का बढ़ता कद भी भाजपा आला कमान को असहज करने वाला था। इसलिए माना गया कि अब राज्य में बदलाव का सही समय है। 
नए मुख्‍यमंत्री डाॅ मोहन यादव के सामने वही चुनौतियां थीं, जो किसी भी नए नवेले और अचर्चित मुख्यमंत्री के सामने होती है। उन्हें तय करना था कि वो शिवराज सरकार की छाया और प्रशासनिक शैली से बाहर निकलकर नई पिच पर कैसी बैटिंग करते हैं। जनता देख रही है कि उनमें उनकी अपनी सोच, संघ से तालमेल, भाजपा के एजेंडे को क्रियान्वित करने का संकल्प, नौकरशाही में धमक कायम करने का जज्बा और प्रशासनिक तंत्र को नए नई और सही दिशा में हांकने की क्षमता कितनी है। इस दृष्टि से इतना तो कहा ही जा सकता है कि सीएम डाॅ.मोहन यादव ने इस वन डे मैच के शुरूआती अोवर दमदारी से और सधे हाथों से खेले हैं।
और इस बात के पुष्ट प्रमाण भी हैं। मसलन मुख्‍यमंत्री बनने के तत्काल बाद जारी उनका पहला आदेश प्रदेश में धार्मिक स्थानों पर जोर से लाउड स्पीकर बजाने और खुले में मांस और अंडे की बिक्री पर सख्‍ती से रोक। इस फैसले को यूपी में योगी आदित्यनाथ सरकार के दूसरे कार्यकाल के मंगलाचरण की नकल के रूप में भी देखा गया, लेकिन धार्मिक स्थलों और अन्य कार्यक्रमों में कई बार बहुत ज्यादा शोर और कानफोड़ू लाउड स्पीकर आम जनता की परेशानी का सबब बन गए थे। चूंकि मामला धार्मिक था, इसलिए इसके खिलाफ कोई बोलने की हिम्मत नहीं कर पाता था। विपक्षी कांग्रेस  ने इस आदेश में भाजपा और आरएसएस का साम्प्रदायिक एजेंडा देखा और इस आदेश को परोक्ष रूप से मुसलमानों के खिलाफ बताने की कोशिश भी हुई, लेकिन मोटे तौर पर आम जनता ने इसका स्वागत ही ‍िकया, क्योंकि यह नियम किसी धर्म विशेष के स्थलों के लिए न होकर सभी धार्मिक स्थलों  के लिए था। इसी तरह खुले में मांस व अंडों की बिक्री पर रोक से उन छोटे दुकानदारों और ठेले वालों को जरूर परेशानी हुई है, जो सरेआम सड़क किनारे दुकान लगा कर ये सामग्री बेचकर अपना पेट भरते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों ने इसे इसलिए सही माना, क्योंकि खुले में मांस बिक्री वैसे भी स्वास्थ्य के लिए हानिकर है। ऐसी कुछ अवैध दुकानों को तोड़ा भी गया। यही नहीं सरकार ने ध्वनि प्रदूषण के मामलों की जांच के लिए फ्लाइंग स्क्वॉड भी गठित किया है, जो निर्धारित सीमा से अधिक ध्वनि प्रदूषण की शिकायत मिलने पर क्षेत्र में जाकर कार्रवाई करेगा। धार्मिक स्थलों पर लाउडस्पीकरों से होने वाले ध्वनि प्रदूषण की हर हफ्ते समीक्षा की जाएगी। इसका असर दिखने भी लगा है।  भाजपा नेता उमा भारती यादव सरकार  के इस फैसले से गदगद दिखी। उन्होंने सोशल मीडिया पर इसे ‘यादव सरकार की संवेदनशीलता’ निरूपित किया। 
यादव सरकार का दूसरा अहम फैसला राज्य में विस चुनाव नतीजों के बाद भोपाल में एक भाजपा कार्यकर्ता पर हमला कर उसकी कलाई काटने के आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलाने का था। अल्पसंख्यक समुदाय के आरोपियों के घर बुलडोजर चलवाकर यादव ने यह संदेश दिया कि अपराध नियंत्रण और आरोपी को सबक सिखाने के मामले में वो योगी सरकार की नीति पर चलेंगे। हालांकि बुलडोजर को ‘त्वरित न्याय’ का उपाय मानने और इंसाफ की वैधानिक प्रक्रिया को दरकिनार करने के भाजपाई सोच पर प्रश्नचिन्ह भी लगता रहा है, लेकिन इससे जनाक्रोश को तत्काल कम करने का संदेश भी जाता है। एक और निर्णायक फैसला  प्रदेश की राजधानी भोपाल में विवादित बीआरटीएस ( बस रैपिड ट्रासंपोर्ट सिस्टम) के खात्मे का था। देश के कुछ दूसरे शहरों की नकल पर भोपाल में ‍िनर्मित बीआरटीएस शुरू से विवादों में रहा। करीब 13 पहले शिवराज सरकार के कार्यकाल में बना यह बीआरटीएस 360 करोड़ रू. खर्चने  के बाद भी न तो पूरी तरह बन सका और न ही राजधानी के यातायात को सुगम बनाने का इसका मूल उद्देश्य पूरा हो सका। इसे हटाने की बात बीच में सवा साल के लिए सत्ता में आई कमलनाथ सरकार के कार्यकाल में भी उठी थी, लेकिन अफसरों ने उस सरकार को भी इस बारे में कोई ठोस निर्णय लेने से रोक दिया था। हकीकत में बीआरटीएस जी का जंजाल ज्यादा बन गया था। यह बात अलग है कि इस बीआरटीएस को हटाने में भी अफसर और नेताअों की चांदी होने वाली है, क्योंकि हाथी मरा भी तो सवा लाख का। बताया जा रहा है कि इसे हटाने पर भी 40 करोड़ का खर्च अनुमानित है। 
 लेकिन यादव सरकार के  जिस फैसले ने मोहन यादव सरकार की धमक कायम की वो गुना बस हादसे के समूची नौकरशाही को जिम्मेदार मानते हुए  ‘पूरे घर के बदल डालने’ का था। एक निजी बस और डंपर की टक्कर के बाद लगी आग में 13 यात्रियों की जलकर मौत हो गई थी। जांच में सामने आया कि दोनो ही वाहन अवैध तरीके से चल रहे थे। इसके बाद सीएम मोहन यादव ने गुना जिले के कलेक्टर, एसपी के साथ साथ  ट्रांसपोर्ट कमिश्नर और प्रमुख सचिव परिवहन को भी पद से हटा कर समूची नौकरशाही में कड़ा संदेश ‍िदया।  यह मौका देखकर चौका मारने वाली बात भी थी, क्योंकि आगे पीछे शिवराज सरकार में प्रमुख पदों पर बैठे अफसरों को हटना ही था, लेकिन सड़क हादसा इसका निमित्त बन गया। वैसे भी किसी सड़क हादसे में सरकार द्वारा अब तक की गई यह सबसे बड़ी कार्रवाई है, हालांकि जिस बस के यात्रियों की अकाल मौत हुई, वो एक भाजपा  नेता की है और उसके खिलाफ कार्रवाई का अभी लोगों को इंतजार है।  
जन समस्याअों से जुड़ा एक और मुद्दा जिलों, तहसीलों और थानों की सीमा के पुनर्निधारण का है। इसके लिए एक कमेटी बनाने का फैसला हुआ है, जो इसका अध्ययन कर सरकार को रिपोर्ट देगी। शुरुआत पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इंदौर संभाग से की जाएगी। यह सही है कि राज्य में कई तहसीलों और थानों की भौगोलिक सीमाएं ऐसी हैं, जो स्थानीय नागरिकों की पहुंच से प्रशासन को दूर करती हैं। इनके युक्तियुक्तकरण की बेहद आवश्यकता थी। मसलन किसी गांव से जिला मुख्यालय 10 किमी है तो किसी दूरस्थ तहसील से इसकी  दूरी सौ किमी तक है। जबकि पड़ोस का जिला मुख्यालय वहां से बहुत पास है। यही स्थिति थानों  की भी है। किसी गांव से पुलिस थाना बहुत पास है तो किसी गांव से बहुत दूर। इस विसंगति को मिटाने  के लिए तहसील और थानों की सरहदों का पुनर्निधारण बेहद जरूरी था। यादव सरकार ने इस बारे में निर्णय लेकर एक बुनियादी मसले के हल की दिशा में कदम उठाया है। प्रशासन की लोगों तक सुगम पहुंच के इस फैसले पर अगर सही ढंग से अमल हुआ तो इसका सकारात्मक असर जरूर दिखाई देगा। ताजा तरीन फैसला ड्राइवरों की औकात को लेकर की गई घटिया टिप्पणी के बाद शाजापुर कलेक्टर किशोर कन्याल को ताबड़तोड़ पद से हटाना है। संदेश यही कि ड्राइवर जैसे छोटे कर्मियों का भी सरकार की नजर में बड़ा महत्व है। इसके अलावा उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के उद्देश्य से हर जिले में प्रधानमंत्री एक्सीलेंस काॅलेज खोलने का निर्णय भी अहम है। लेकिन इसी के साथ राज्य में पहले से चल रहे काॅलेज आॅफ एक्सीलेंस और सीए राइज स्कूलों की दुर्दशा पर भी सरकार को गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। कुल मिलाकर नई सरकार का आगाज तो अच्छा है, लेकिन इसके अनुकूल राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक परिणाम कैसे और कितने आते हैं, इस पर यादव सरकार का भविष्य काफी कुछ निर्भर करेगा।
अजय बोकिल, लेखक, संपादक


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