Select Date:

मध्यप्रदेश चुनाव: क्या टिकट की मारामारी इसलिए क्योंकि राजनीति ही सर्वाधिक ‘लाभ का धंधा’ है?

Updated on 27-10-2023 01:48 PM
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या अब चुनाव का टिकट पाना या उसका कटना ही नेताओं के जीवन- मरण का प्रश्न बन गया है? क्या समाज में जनसेवा के दूसरे माध्यम बेमानी हो चुके हैं और यह भी कि क्या राजनीति अब सबसे ज्यादा लाभ और रौब का धंधा बन चुकी है? 
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बार सत्ता के दावेदार दो प्रमुख राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस में टिकट को लेकर जिस बड़े पैमाने पर बगावत और नाराजगी दिखाई दे रही है, वह देश की राजनीति में आ रहे चरित्रगत बदलाव का संकेत है। साथ ही यह वैचारिक और दलीय प्रतिबद्धता पर हावी हो रहे व्यक्तिवाद और निजी स्वार्थ की स्पष्ट छवि भी है। 
चुनाव के लिए नामांकन प्रारंभ होने के बाद भाजपा और कांग्रेस में करीब 70 सीटों पर भारी असंतोष और बगावत की लपटें हैं। समय रहते इन्हें शांत नहीं किया जा सका तो ये बागी, चुनाव में राजनीतिक दलों के समीकरणों को बिगाड़ सकते हैं।
सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या अब चुनाव का टिकट पाना या उसका कटना ही नेताओं के जीवन- मरण का प्रश्न बन गया है? क्या समाज में जनसेवा के दूसरे माध्यम बेमानी हो चुके हैं और यह भी कि क्या राजनीति अब सबसे ज्यादा लाभ और रौब का धंधा बन चुकी है? 

ऐसा नहीं है कि चुनाव के समय राजनीतिक दलों में टिकट वितरण को लेकर असंतोष नहीं होता। यह स्वाभाविक भी है कि जो राजनीतिक कार्यकर्ता वर्षों मेहनत करे और टिकट वितरण के समय उसे दरकिनार कर दूसरे या किसी आयातित व्यक्ति को टिकट दे दिया जाए तो राजनीति में निष्ठा और समर्पण का पैमाना अपने आप दफन होने लगता है।

वैसे भी हर पार्टी में एक सीट पर टिकट के एक से अधिक आकांक्षी होते हैं। दलों की संवैधानिक मर्यादा है कि वे चुनाव में किसी एक को ही टिकट दे सकती हैं। ऐसे में बाकी को या तो पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार का समर्थन करना होगा या फिर दूसरे किसी दल से टिकट लेकर अथवा निर्दलीय चुनाव में खड़ा होना होगा।

तीसरे, वह पार्टी हाई कमान और टिकट वितरणकर्ताओं के सामने खुलकर अपनी नाराजगी का प्रदर्शन कर मन को हल्का करे। चौथा और अनैतिक विकल्प यह है कि वह पार्टी में रहकर ही भीतरघात कर पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी को हरवाकर अपनी उपेक्षा का बदला ले और अगले चुनाव में अपनी उम्मीदवारी का खाता खुला रखे।

मध्यप्रदेश में विरोध के दिख रहे अलग-अलग तरीके
मध्यप्रदेश में जो सीन बन रहा है, वह इन सारे दृश्यों का नकारात्मक कोलाज है। बात अब विरोध के प्राचीन तरीकों जैसे कि नारेबाजी, धरना प्रदर्शन से मीलों आगे जाकर शीर्ष नेताओं के घरों के सामने आत्मदाह करने, पार्टी दफ्तरों पर हमले, नेताओं के कपड़े फाड़ने, हाथापाई, सामूहिक इस्तीफे और टिकट कटने के बाद मातमी अंदाज में जार-जार आंसू बहाने से लेकर इस परिस्थिति के लिए गालियां खाने की पावर ऑफ एटार्नी ट्रांसफर करने तक पहुंच गई है।

अमूमन ये सब करने और कराने वाले वही लोग होते हैं, जो टिकट कटने से पहले पार्टी के निष्ठावान और प्रतिबद्ध कार्यकर्ता कहलाते थे। आलम यह है कि कई जगह तो बड़े नेताओं को अपने ही कार्यकर्ताओं के हिंसक आक्रोश का शिकार होने से बचने जान बचाकर भागना पड़ रहा है। मानो सभी दलों में अनुशासनहीनता और अराजकता की एक अघोषित स्पर्द्धा चल रही हो, जिसमें हर असंतुष्ट अपने गिरोह के साथ दूसरे को पीछे छोड़ने की दबंगई में लगा है।  

ऐसा नहीं है कि आला नेताओं को कार्यकर्ताओं के इस तरह उग्र अथवा बागी होने का अंदाजा न हो। लेकिन पार्टियां चुनाव का टिकट बांटती हैं तो टिकट देने और टिकट काटने के उसके अपने पैमाने होते हैं। कई बार तो ये पैमाने ही एक- दूसरे को काटते दिखाई देते हैं।

मप्र में भाजपा और कांग्रेस ने जो सूचियां जारी की हैं, उसमें कोई निश्चित पैटर्न या फार्मूला नजर नहीं आता, सिवाय किसी कीमत पर सत्ता में लौटने या उसे कायम रखने की व्यग्रता के। इसमें नेताओं की आपसी प्रतिद्वंद्विता, जुगाड़, डीलिंग, राजनीतिक शह और मात, तथाकथित सर्वे, निजी पसंद- नापसंद, किसी भी हद तक जाकर उपकृत करने की बेताबी और विवशता, जातिगत समीकरण, धन और बाहुबलीय क्षमता तथा अपने ही नैतिक प्रतिमानों का खुशी-खुशी विध्वंस भी इसमें शामिल है।
दोनों पार्टियों में टिकट बांटने के लिए बैठकों पर बैठकें हुईं। जोड़- तोड़ जुगाडों के सत्र चले। गोपनीयता का आवरण ओढ़ा गया। हर दिन राजनीतिक हानि- लाभ का नया चौघड़िया रचने की कोशिशें हुईं। चेहरों के हिसाब से दर्पण सजाने के उपक्रम हुए। इतना कुछ हुआ कि भगवान भी अगर इस टिकट वितरण का विश्लेषण करने बैठें तो चकरा जाएं।

यानी एक दिन पहले पार्टी में शामिल को भी टिकट मिले तो उन बुजुर्गों को भी टिकट से नवाजा गया जो खुद चार धाम की यात्रा पर जाने की तैयारी में थे।

कुछ को टिकट दिया भी उस क्षेत्र से, जहां उसे अपनी नेतागिरी का नारियल फोड़ना है। एक ऐसे नाराज माने जाने वाले विधायक को भी टिकट दिया गया, जिसने नाउम्मीदी में टिकटों की घोषणा से पहले ही राजधानी में अपना सरकारी आवास खाली कर दिया था।

कहीं भाई- भाई या सगे रिश्तेदारों को लड़ा दिया गया तो कहीं सालों से मेहनत करते कार्यकर्ता के हाथ में ऐन वक्त पर तुलसी पत्र पकड़ा दिया गया। कई उन मंत्रियों और विधायकों को फिर से टिकट मिल गया, जिन्होंने पांच साल में सिर्फ माल कमाया, अकड़ दिखाई और पब्लिक की गालियां खाईं।

टिकट जुगाड़ने के लिए कहीं धमक काम आई, कहीं पैसा काम आया। कहीं सेवा का तड़का लगा तो कहीं चरणोदक काम आया। अगर इस समूची प्रक्रिया में कोई ठगा गया तो वह मतदाता। 
चुनाव पर क्या होगा इसका असर?
जाहिर है कि जब दो प्रमुख दलों में इतने बड़े पैमाने पर बगावत है तो उसका असर चुनाव नतीजों पर पड़ेगा ही। अभी करीब एक दर्जन टिकटवंचित उम्मीदवार छोटे दलों के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरने का एलान कर चुके हैं। नाम वापसी तक यह संख्या और बढ़ सकती है। हालांकि, नाराजों को बिठाने और चुप कराने के लिए दोनोॆ दलों में बड़े नेता साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीके अपनाने में लगे हैं।

लेकिन राजनीतिक कार्यकर्ता यह बखूबी जानता है कि बड़े नेताओं द्वारा उससे किए वादे भी ज्यादातर चुनावी वादों की तरह खोखले अथवा आधे-अधूरे होते हैं। साथ में यह भी सच है कि बड़े दलों में अब वो ऋषि राजनेता नहीं रहे, जिनकी कार्यकर्ता के मन पर पकड़ थी और जो शीर्ष नेतृत्व और जमीनी कार्यकर्ता के बीच रेशमी धागे का काम करते थे। जो गरल को भी अमृत के भाव से पी सकते थे, पिला सकते थे।

ऐसे दिग्गत नेताओं का नैतिक प्रभाव खत्म होने के बाद आजकल कार्यकर्ताओं को मनाने का फार्मूला मोटे तौर पर अगले चुनाव में टिकट के वादे, सत्ता में आने पर किसी पद की रेवड़ी, किसी कार्यकर्ता के घर जाकर चाय आदि पीने की दरियादिली या फिर बात-बेबात उसकी पीठ थपथपाने, मंच से तारीफ के दो शब्द कहकर भावनात्मक शोषण करने या फिर कैश डीलिंग के रूप में भी हो सकता है।

ध्यान रहे कि राजनीति में ‘ठगना’ शब्द के अनेकार्थ हैं और वो परिस्थिति तथा पात्र के हिसाब से बदलते रहते हैं। चुनाव के मंगलाचरण में अगर बड़े नेताओं का यह ‘समझाइश कैम्पेन’ खास सफल नहीं रहा और घोषित तौर पर बैठे प्रत्याशी ने अघोषित रूप से अंदर ही अंदर पार्टी प्रत्याशी को पलीता लगा दिया तो नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं। 

धूमिल होती राजनीति की बुनियादी नैतिकता
यहां सबसे बड़ा सवाल तो राजनीति में बुनियादी नैतिकता का है? लोकतंत्र में चुनाव टिकट की आकांक्षा रखना स्वाभाविक है, लेकिन उसे जीने-मरने का सवाल बना देना क्या संदेश देता है? क्या चुनाव का टिकट मिलना कोई कुबेर के खजाने की चाभी है या उसका न मिलना घर के कर्ता पुरूष की असामयिक मौत है? टिकट न मिलने पर इतना शोक और रूदन क्यों? और मिल जाने पर आकाश स्पर्श का परमानंद क्यों?

दरअसल राजनीतिक व्यवस्था मूलत: लोकतंत्र को चलाने और इस तंत्र के असल मालिक लोक के जीवन को सुचारू और समृद्ध बनाने के लिए है, लोकतांत्रिक माफिया बनने के लिए तो नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के अमृत काल में यह कड़वा सच है कि राजनीति अब अधिकांश लोगों के लिए शुद्ध रूप से चौतरफा लाभ का धंधा है। इसीलिए वो इसे छोड़ना तो दूर इसे किसी सेठ की गद्दी की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रखना चाहते हैं ताकि पावर, पैसा और प्रतिष्ठा की गंगोत्री सूख न सके।

कहीं यह ‘परिवारवाद’ के रूप में है तो कहीं ‘पैतृक सेवावाद’ के रूप में है, जिसे इस कथित जनसेवा का चस्का लगा, वह दूसरों को यह ‘मौका’ भूलकर भी नहीं देना चाहता। और जिसे यह अब तक नहीं मिला, वो इसे पाने के लिए अघोरी साधना करने के लिए भी तैयार है।

अफसोस, कि जिस जन की सेवा के लिए चुनाव टिकट रूपी एंट्री पास तैयार किया गया है, वह ‘जन’ पहले भी हतप्रभ था, आज भी है और शायद आगे भी रहेगा।

अजय बोकिल, लेखक, संपादक 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

अन्य महत्वपुर्ण खबरें

 16 November 2024
महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति और कांग्रेसनीत महाविकास आघाडी के लिए इस बार का विधानसभा चुनाव जीतना राजनीतिक  जीवन मरण का प्रश्न बन गया है। भाजपा ने शुरू में यूपी के…
 07 November 2024
एक ही साल में यह तीसरी बार है, जब भारत निर्वाचन आयोग ने मतदान और मतगणना की तारीखें चुनाव कार्यक्रम घोषित हो जाने के बाद बदली हैं। एक बार मतगणना…
 05 November 2024
लोकसभा विधानसभा चुनाव के परिणाम घोषित हो चुके हैं।अमरवाड़ा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी कमलेश शाह को विजयश्री का आशीर्वाद जनता ने दिया है। लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 29 की 29 …
 05 November 2024
चिंताजनक पक्ष यह है कि डिजिटल अरेस्ट का शिकार ज्यादातर वो लोग हो रहे हैं, जो बुजुर्ग हैं और आमतौर पर कानून और व्यवस्था का सम्मान करने वाले हैं। ये…
 04 November 2024
छत्तीसगढ़ के नीति निर्धारकों को दो कारकों पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है एक तो यहां की आदिवासी बहुल आबादी और दूसरी यहां की कृषि प्रधान अर्थव्यस्था। राज्य की नीतियां…
 03 November 2024
भाजपा के राष्ट्रव्यापी संगठन पर्व सदस्यता अभियान में सदस्य संख्या दस करोड़ से अधिक हो गई है।पूर्व की 18 करोड़ की सदस्य संख्या में दस करोड़ नए सदस्य जोड़ने का…
 01 November 2024
छत्तीसगढ़ राज्य ने सरकार की योजनाओं और कार्यों को पारदर्शी और कुशल बनाने के लिए डिजिटल तकनीक को अपना प्रमुख साधन बनाया है। जनता की सुविधाओं को ध्यान में रखते…
 01 November 2024
संत कंवर रामजी का जन्म 13 अप्रैल सन् 1885 ईस्वी को बैसाखी के दिन सिंध प्रांत में सक्खर जिले के मीरपुर माथेलो तहसील के जरवार ग्राम में हुआ था। उनके…
 22 October 2024
वर्तमान समय में टूटते बिखरते समाज को पुनः संगठित करने के लिये जरूरत है उर्मिला जैसी आत्मबल और चारित्रिक गुणों से भरपूर महिलाओं की जो समाज को एकजुट रख राष्ट्र…
Advertisement