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Madhya pradesh election 2023: चुनावी चकल्लस में रेवड़ियों के साथ-साथ जोड़ियों की चर्चा

Updated on 09-11-2023 04:04 AM
सार
कहते हैं कि राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही कोई कायम दुश्मन। राजनीतिक दोस्ती और दुश्मनी अवसरवाद और स्वार्थ सिद्धी के हिसाब से संचालित  होती है और बिखरती है। यहां कब जानी  दुश्मन एक- दूसरे को गले लगाने लगें और कब एक- दूसरे का गला काटने लगें, कोई नहीं जानता और ऐसा करने के वाजिब तर्क भी गढ़ लिए जाते हैं।

मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार रेवडि़यों के साथ राजनीतिक जोड़ियों को लेकर भी खूब बवाल मचा है। बात ‘शोले’ के ‘जय- वीरू’ से शुरू होकर मेरे अपने के श्याम- छेनू से होते हुए ‘गब्बरसिंह और सांभा’ तक पहुंची।

इस जोडि़यों का जिक्र कभी राजनीतिक विरोधियों का चरित्र उजागर करने तो कभी सियासी संदर्भ में अपनी अटूट मैत्री जताने के भाव से किया जा रहा है। लेकिन जिस शाश्वत् मैत्री को दर्शाने के लिए जिन जोड़ियों का जिक्र किया गया, वो स्वयं अपने आप में नकारात्मक फिल्मी चरित्र रहे हैं। ऐसे में ऐसी उपमा देने और रूपक बांधने वाले नेताओं का मानस और सोच पर भी सवाल उठते हैं।

चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, राम का नाम किसी न किसी न संदर्भ में चुनाव में लिया जा रहा है, लेकिन किसी ने भी किसी की तुलना ‘राम- लखन’ की जोड़ी से नहीं की, शायद इसलिए क्योंकि राजनीति में नैतिक जीवन जीने, मर्यादाओं में रहने और वचन निभाने की बात महज जुमलेबाजी से ज्यादा नहीं है। ऐसे में कोई राम- लखन नहीं बनना चाहता। बनना चाहता है तो ‘जय वीरू’ या ‘श्याम छेनू वगैरह।‘ गहराई से देखें तो यह भारतीय राजनीति और राजनेताओं के मानस में आई गुणात्मक गिरावट को भी परिलक्षित करता है।  
कहते हैं कि राजनीति में न तो कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही कोई कायम दुश्मन। राजनीतिक दोस्ती और दुश्मनी अवसरवाद और स्वार्थ सिद्धी के हिसाब से संचालित  होती है और बिखरती है। यहां कब जानी  दुश्मन एक- दूसरे को गले लगाने लगें और कब एक- दूसरे का गला काटने लगें, कोई नहीं जानता और ऐसा करने के वाजिब तर्क भी गढ़ लिए जाते हैं।

मप्र के विधानसभा चुनाव बीजेपी और कांग्रेस का गणित 
मप्र के विधानसभा चुनाव में इस बार जहां मतदाताओं को खुलकर रेवड़ियां बांटने की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में होड़ मची है, वहीं दोनो पार्टियों के शीर्ष नेता एक दूसरे को खारिज करने अथवा स्वयं को ‘दो जिस्म एक जान’ बताने के लिए मिथक बन चुकी फिल्मी जोड़ियों के नामों का सहारा ले रहे हैं।

चुनाव प्रचार के घमासान में बात ‘शोले’ के अमर चरित्र ‘जय और वीरू’ की जोड़ी के जिक्र से शुरू हुई। राज्य में कांग्रेस के दो शीर्ष नेताओं कमलनाथ और दिग्विजय के बीच अनबन की खबरों का खंडन करते कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव रणदीप सुरजेवाला ने मीडिया से कहा कि दोनो शोले के जय और वीरू की जोड़ी हैं। अर्थात् दोनो मिलकर एक ही लक्ष्य के लिए काम कर रहे हैं, जिसका मकसद बदला लेना है। लेकिन सुरजेवाला भूल गए कि शोले के जय और वीरू पेशे से चोर थे, जिन्हें डाकुओं से बदला लेने की सुपारी एक ठाकुर ने दी थी।

जय और वीरू की दोस्ती भले ‘दम तोड़ने तक कायम’ रहने वाली थी। लेकिन उनकी पृष्ठभूमि नकारात्मक थी। बीजेपी ने इस तुलना को हाथों-हाथ लेकर कांग्रेस पर जवाबी हमले शुरू कर दिए। मजे लेने के अंदाज में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा कि ‘जय- वीरू’ ‘की यह जोड़ी लूट के माल के लिए है।

प्रदेश भाजपाध्यक्ष वी.डी.शर्मा ने इसे कांग्रेस की लुटेरी जोड़ी बताया। इस पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने पलटवार किया कि शिवराज जी, जय और वीरू ने ही अत्याचारी गब्बर सिंह का हिसाब किया था। मध्य प्रदेश 18 साल से अत्याचार से त्रस्त है। अब  अत्याचार के अंत का समय आ गया है। लेकिन इन्हीं ‘जय वीरू’ में केन्द्रीय मंत्री और दिमनी सीट से भाजपा प्रत्याशी नरेन्द्र सिंह तोमर ने ‘पक्की दोस्ती’ का सकारात्मक तत्व बूझते हुए स्वयं को और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को ‘जय- वीरू की जोड़ी बताया। उस वक्त उनका आशय शायद डाकू गब्बर का खात्मा करने वाले जय- वीरू से था। इसका अर्थ यह हुआ कि भाजपा वाले ‘जय- वीरू’ की जोड़ी की व्याख्या भी सुविधा से परिवारवादी अंदाज में करते हैं। 

शिवराज सिंह चौहान की श्याम छेनू की जोड़ी 
उधर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने जब जय-वीरू की दो व्याख्याएं सामने आईं तो उन्होने तुरंत ट्रैक बदला और कमलनाथ- दिग्विजय की जोड़ी को गुलजार की यादगार फिल्म ‘मेरे अपने’ की जोड़ी ‘श्याम- छेनू’ से कर दी। ये जोड़ी भी गांव के रंगदारों की थी, जिनमें मोहल्ले पर कब्जे को लेकर प्रतिस्पर्द्धा चलती है। 
ये चरित्र भी समाज के लिए नकारात्मक ही थे। इस पर कमलनाथ का पलटवार था कि शिवराजजी अपनी अदाकारी के लिए मशहूर हैं। अब नरेन्द्र तोमर भी फिल्मी  पात्रों पर शोध कर रहे हैं। उन्होंने कटाक्ष किया कि अब भाजपा इमर्जेंसी मीटिंग बुलाकर तय कर ले कि इन दोनो में गब्बर है और सांभा है।

यानी मामला अब चोरी, रंगदारी से बढ़कर डाका डालने वाले चरित्रों तक पहुंच गया। चरित्र हनन के आरोप- प्रत्यारोपों के बीच भाजपा नेता और केन्द्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी सभा में जनता से पूछा कि ‘जय वीरू’ कौन थे तो जवाब आया ‘चोर थे।‘ यही नहीं एक सभा में ज्योतिरादित्य ने खुद को ऐसा काला कौआ बताया जो झूठ बोलने वाले को काटता है। उनका निशाना भी उनकी पूर्व पार्टी कांग्रेस के शीर्ष नेता थे। अब यह अलग बात है कि झूठ बोलने वाले कौव्वे का कोई इलाज शास्त्रों में नहीं बताया गया है।
 
हैरानी की बात यह है कि हिंदी फिल्मों में नायकों की जो जोड़ियां चर्चा में रही हैं, वो प्राय: नकारात्मक चरित्रों से सम्बन्धित ही हैं। भले ही महिमा मंडित करने के लिए बाद में उनसे सत्कर्म कराने पर दिया गया हो। मसलन फिल्म ‘विक्टोरिया नंबर 203 के किडनैपर राजा और राना की जोड़ी हो या फिर गुमशुदा करोड़पति लड़की को खोजने वाले कथित ‘दो जासूस’ धरमचंद करमचंद की जोड़ी हो। एक हिट जोड़ी फिल्म ‘छोटे मियां, बड़े मियां’ के दो पुलिस इंस्पेक्टर दोस्तों  ‘अर्जुनसिंह और प्यारेमोहन’ की भी है, लेकिन उनसे अपनी तुलना कोई राजनेता नहीं करना चाहता।
 

अब सवाल यह है कि राजनेताओं को ‘जय- वीरू टाइप चरित्र ही क्यों भाते हैं? ऐसी दोस्तियां ही उन्हें अनुकरणीय क्यों लगती हैं? इसका राजनेताओं के मनोविज्ञान और नैतिकता से कितना और कैसा सम्बन्ध है? क्या वो जनता के मानस को बेहतर ढंग से समझते हैं और क्या जनता भी ऐसे ही चरित्रों और दोस्तियों को सत्ता सिंहासन पर विराजमान होना क्यों देखना चाहती है? और अगर ऐसे ही चरित्र समाज को स्वीकार्य हैं तो हमे राजनीति में नीतिमत्ता की बात क्यों कर करना चाहिए?

अजय बोकिल  , लेखक, संपादक 

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