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माता भद्रकाली कालीका पूजन सम्पूर्ण विधि

Updated on 19-04-2021 09:29 PM
ध्यान :
महामेघ प्रभां देवी कृष्णवस्त्रोसिधारिणीम् ।
ललज्जिह्वां घोरदंष्ट्रां कोटराक्षीं हसन्मुखीम् ॥
नागहारलतोपेतां चन्द्रार्द्धकृत शेखराम् ।
द्यां लिखन्तीं जटामेकां लेलिहानासवं पिबम् ॥
नाग यज्ञोपवीताङ्गी नागशय्या निषेदुषीम् ।
पञ्चाशन्मुण्डसंयुक्तं वनमाला महोदरीम् ॥
सहस्त्रफण संयुक्तमनन्तं शिरसोपरि ।
चतुर्दिक्षु नागफणा वेष्टितां भद्रकालिकाम् ॥
तक्षक सर्पराजेन वामकङ्कण भूषिताम् ।
अनन्त नागराजेन कृतदक्षिण कङ्कणम् ॥
नागेन रसनाहार कक्पितां रत्न नूपुराम् ।
वामे शिव स्वरूपं तत्कल्पितं वत्स्‌रूपकम् ॥
द्विभुजां चिन्तयेद्देत्नीं नागयज्ञोपवीतिनीम् ।
नरदेह समाबद्ध कुण्डल श्रुति मण्डिताम् ॥
प्रसन्नवदनां सौम्यां शिवमोहिनीम् ॥
अट्टहासां महाभीमां साधकाभीष्टदायिनीम् ॥
पुष्प समर्पण 
ॐ देवेशि भक्ति सुलभे परिवार समन्विते
यावत्तवां पूजयिष्यामि तावद्देवी स्थिरा भव
नमस्कार
शत्रुनाशकरे देवि ! सर्व सम्पत्करे शुभे
सर्व देवस्तुते ! भद्रकालिके ! त्वां नमाम्यहम
१. आसन👉 प्रथम दिन कि पूजा में माँ को काले रंग के कपडे का / आम कि लकड़ी का सिंहासन जो काले रंग से रंगा गया हो समर्पित करें एवं माँ को उस पर विराजित करने इसके बाद फिर प्रत्येक दिन माँ के चरणों में निम्न मंत्र को बोलते हुए पुष्प / अक्षत समर्पित करें
ॐ आसनं भास्वरं तुङ्गं मांगल्यं सर्वमंगले
भजस्व जगतां मातः प्रसीद जगदीश्वरी
( क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं भद्रकाल्यै क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं परमेश्वरी स्वाहा आसनं समर्पयामि )
२. पाद्य👉 इस क्रिया में शीतल एवं सुवासित जल से चरण धोएं और ऐसा सोचें कि आपके आवाहन पर माँ दूर से आयी हैं और पाद्य समर्पण से माँ को रास्ते में जो श्रम हुआ लगा है उसे आप दूर कर रहे हैं
ॐ गंगादि सलिलाधारं तीर्थं मंत्राभिमंत्रिम
दूर यात्रा भ्रम हरं पाद्यं तत्प्रति गृह्यतां 
( क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं भद्रकाल्यै क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं परमेश्वरी स्वाहा पाद्यं समर्पयामि )
३. उद्वर्तन👉  इस क्रिया में माँ के चरणों में सुगन्धित / तिल के तेल को समर्पित करते हैं
ॐ तिल तण्डुल संयुक्तं कुश पुष्प समन्वितं
सुगंधम फल संयुक्तंमर्ध्य देवी गृहाण में 
( क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं भद्रकाल्यै क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं परमेश्वरी स्वाहा उद्वर्तन तैलं समर्पयामि )
४. आचमन👉  इस क्रिया में माँ को आचमनी से या लोटे से आचमन जल प्रदान करते हैं ( याद रहे कि जल समर्पित करने का क्रम आप मूर्ति और यदि जल कि निकासी कि सुगम व्यवस्था है तो कर सकते हैं किन्तु यदि आपने कागज के चित्र को स्थापित किया हुआ है तो चित्र के सम्मुख एक पात्र रख लें और जल से सम्बंधित सारी क्रियाएँ करके जल उसी पात्र में डालते जाएँ )
ॐ स्नानादिक विधायापि यतः शुद्धिख़ाप्यते
इदं आचमनीयं हि कालिके देवी प्रगृह्यताम् 
( क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं भद्रकाल्यै क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं परमेश्वरी स्वाहा आचमनीयम् समर्पयामि )
५. स्नान👉  इस क्रिया में सुगन्धित पदार्थों से निर्मित जल से स्नान करवाएं ( जल में इत्र , कर्पूर , तिल , कुश एवं अन्य वस्तुएं अपनी सामर्थ्य या सुविधानुसार मिश्रित कर लें यदि सामर्थ्य नहीं है तो सदा जल भी पर्याप्त है जो पूर्ण श्रद्धा से समर्पित किया गया हो )
ॐ खमापः पृथिवी चैव ज्योतिषं वायुरेव च
लोक संस्मृति मात्रेण वारिणा स्नापयाम्यहम् 
( क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं भद्रकाल्यै क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं परमेश्वरी स्वाहा स्नानं निवेदयामि )
६. मधुपर्क👉 इस क्रिया में ( पंचगव्य मिश्रित करें प्रथम दिन ( गाय का शुद्ध दूध , दही , घी , चीनी , शहद ) अन्य दिनों में यदि व्यवस्था कर सकें तो बेहतर है अन्यथा सिर्फ शहद से काम लिया जा सकता है
ॐ मधुपर्क महादेवि ब्रह्मध्धे कल्पितं तव
मया निवेदितम् भक्तया गृहाण गिरिपुत्रिके 
( क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं भद्रकाल्यै क्रीं क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं परमेश्वरी स्वाहा मधुपर्कं समर्पयामि )
विशेष👉  ध्यान रखें चन्दन या सिन्दूर में से कोई भी चीज मस्तक पर समर्पित न करें बल्कि माँ के चरणों में समर्पित करें
७. चन्दन👉 इस क्रिया में सफ़ेद चन्दन समर्पित करें
ॐ मळयांचल सम्भूतं नाना गंध समन्वितं
शीतलं बहुलामोदम चन्दम गृह्यतामिदं 
( क्रीं क्रीं क्रीं…
महाकाली की उत्पत्ति कथा :
श्रीमार्कण्डेय पुराण एवं श्रीदुर्गा सप्तशती के अनुसार काली मां की उत्पत्ति जगत
जननी मां अम्बा के ललाट से हुई थी। कथा के अनुसार शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों के आतंक का प्रकोप इस कदर बढ़ चुका था कि उन्होंने अपने बल,छल एवं महाबली असुरों द्वारा देवराज इन्द्र सहित अन्य समस्त देवतागणों को निष्कासित कर स्वयं उनके स्थान पर आकर उन्हें प्राणरक्षा हेतु भटकने
के लिए छोड़ दिया। दैत्यों द्वारा आतंकित देवों को ध्यान आया कि महिषासुर के इन्द्रपुरी पर अधिकार
कर लिया है,तब दुर्गा ने ही उनकी मदद की थी। तब वे सभी दुर्गा का आह्वान करने लगे। उनके इस प्रकार आह्वान से देवी प्रकट हुईं एवं शुम्भ-निशुम्भ के अति शक्तिशाली असुर चंड तथा मुंड दोनों का एक घमासान युद्ध में नाश कर दिया। चंड-मुंड के इस प्रकार मारे जाने एवं अपनी बहुत सारी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यराज शुम्भ ने अत्यधिक क्रोधित होकर अपनी संपूर्ण सेना को युद्ध में जाने की
आज्ञा दी तथा कहा कि आज छियासी उदायुद्ध नामक दैत्य सेनापति एवं कम्बु दैत्य के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे युद्ध के लिए प्रस्थान करें। कोटिवीर्य कुल के पचास,धौम्र कुल के सौ असुर सेनापति मेरे आदेश पर सेना एवं कालक,दौर्हृद,मौर्य व कालकेय असुरों सहित युद्ध के लिए कूच करें।  अत्यंत क्रूर दुष्टाचारी असुर राज शुंभ अपने साथ सहस्र असुरों वाली महासेना लेकर
चल पड़ा। उसकी भयानक दैत्यसेना को युद्धस्थल में आता देखकर देवी ने अपने धनुष से ऐसी
टंकार दी कि उसकी आवाज से आकाश व समस्त पृथ्वी गूंज उठी।  पहाड़ों में दरारें पड़ गईं। देवी के सिंह ने भी दहाड़ना प्रारंभ किया,फिर जगदम्बिका ने घंटे के स्वर से उस आवाज को दुगना बढ़ा दिया।
धनुष,सिंह एवं घंटे की ध्वनि से समस्त दिशाएं गूंज उठीं। भयंकर नाद को सुनकर असुर सेना ने देवी के सिंह को और मां काली को चारों ओर से घेर लिया।  तदनंतर असुरों के संहार एवं देवगणों के कष्ट निवारण हेतु परमपिता ब्रह्माजी, विष्णु, महेश, कार्तिकेय, इन्द्रादि देवों की शक्तियों ने रूप धारण कर लिए एवं समस्त देवों के शरीर से अनंत शक्तियां निकलकर अपने पराक्रम एवं बल के साथ
मां दुर्गा के पास पहुंचीं। तत्पश्चात समस्त शक्तियों से घिरे शिवजी ने देवी जगदम्बा से कहा-
‘मेरी प्रसन्नता हेतु तुम इस समस्त दानव दलों का सर्वनाश करो।’ तब देवी जगदम्बा के शरीर से भयानक उग्र रूप धारण किए चंडिका देवी शक्ति रूप में प्रकट हुईं।  उनके स्वर में सैकड़ों गीदड़ों की भांति आवाज आती थी। असुरराज शुम्भ-निशुम्भ क्रोध से भर उठे। वे देवी कात्यायनी की ओर युद्ध हेतु बढ़े। अत्यंत क्रोध में चूर उन्होंने देवी पर बाण,शक्ति,शूल,फरसा,ऋषि आदि अस्त्रों-शस्त्रों
द्वारा प्रहार प्रारंभ किया। देवी ने अपने धनुष से टंकार की एवं अपने बाणों द्वारा उनके समस्त अस्त्रों-शस्त्रों को काट डाला,जो उनकी ओर बढ़ रहे थे। मां काली फिर उनके आगे-आगे शत्रुओं को अपने शूलादि के प्रहार द्वारा विदीर्ण करती हुई व खट्वांग से कुचलती हुईं समस्त युद्धभूमि में विचरने लगीं।
सभी राक्षसों चंड मुंडादि को मारने के बाद उसने रक्तबीज को भी मार दिया।  शक्ति का यह अवतार एक रक्तबीज नामक राक्षस को मारने के लिए हुआ था। फिर शुम्भ-निशुंभ का वध करने के बाद बाद भी जब काली मां का गुस्सा शांत नहीं हुआ, तब उनके गुस्से को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्ते में लेट गए और काली  मां का पैर उनके सीने पर पड़ गया। शिव पर पैर रखते ही माता का क्रोध शांत होने लगा।
शवारुढा महाभीमां घोरद्रंष्टां हसन्मुखीम । चतुर्भुजां खडगमुण्डवराभय करां शिवाम।।
मुण्डमालाधरां देवीं ललजिह्वां दिगम्बराम। एवं संचिन्तयेत कालीं श्मशानालयवासिनीम ।।
अर्थात “महाकाली शव पर बैठी है,शरीर की आकृति डरावनी है,देवी के दांत तीखे और महाभयावह है,ऎसे में महाभयानक रुप वाली,हंसती हुई मुद्रा में है.उनकी चार भुजाएं है. एक हाथ में खडग,एक में वर,एक अभयमुद्रा मेम है,गले में मुण्डवाला है,जिह्वा बाहर निकली है,वह सर्वथा नग्न है,वह श्मशान वासिनी हैं.श्मशान ही उनकी आवासभूमि है । उनकी उपासना में सम्प्रदायगत भेद हैं,श्मशानकाली की उपासना दीक्षागम्य है, जो किसी अनुभवी गुरु से दीक्षा लेकर करनी चाहिए। देवी कि साधना दुर्लभ है।
!जय माँ आदिशक्ति काली माँ!

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