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माँ उग्रतारा पुरश्चरण विधि - 1

Updated on 19-04-2021 09:08 PM
जय माँ तारा ! जय गुरु देव !!  समुद्रमथने देवि कालकूटं समुत्थितम् |  सर्वे देवाश्च देव्यश्च महाक्षोभमवाप्नुयुः ||  क्षोभादिरहितं यस्मात् पीतं हालाहलं विषम् | अत एव महेशानि अक्षोभ्यः परिकीर्तितः | तेन सार्धं महामाया तारिणी रमते सदा || हे माँ तारा ! जब तुम्हें याद करता हूँ तो मन भर जाता है और शब्द निकल नहीं पाते क्या लिखूँ तारा माँ तुम्हारे बारे में।प्रेम की पराकाष्ठा हो तुम,परम प्रेममयी हो और सबको तारने वाली प्यारी माँ हो। महर्षि वशिष्ठ के द्वारा तुम्हारी साधना करने पर भी जब तुम्हारी सिद्धि नहीं हो पाई तो तुम्ही को किलित करने लगे। तब तुमने आकाशवाणी कर बताया कि चीनाचार विधि से तुम्हारी साधना सफल हो पायेगी तब जाकर वे तारा की सिद्धि कर पाये और साधना स्थान रहा "तारापीठ की वीरभूमी" जहाँ पंचमुंडी आसन पर बैठकर वे साधना कर पाए। द्वापर युग में कृष्ण के आने पर तुम्हारी साधना के कीलन टुट गये और तुम्हारी साधना सबके लिए सुलभ हो पाया। तुम्हारे परम साधक,भक्त तारापीठ के वामाखेपा जी हुए जिन्होने मंत्र विधि से, प्रेम और भक्ति से ही तुम्हें प्राप्त कर लिया।तुम अपने भक्तों का विशेष ख्याल रखती हो कारण तुम बहुत ममतामयी माँ हो। जय हो माँ तारा की .......    श्रीमद् उग्रतारा पुरश्चरण विधि -  1) आचमन- निम्न मंत्र पढ़ते हुए तीन बार आचमन करें-  ॐ ह्रीं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।  ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।  ॐ ह्रीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।   फिर यह मंत्र बोलते हुए हाथ धो लें -- ॐ ह्रीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा।   2) पवित्रीकरण- बाएँ हांथ मे जल लेकर दाहिनी मध्यमा, अनामिका द्वारा अपने सिर पर छिड़कें- ॐ अपवित्र : पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा।   य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि :॥   ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः, ॐ पुंडरीकाक्ष: पुनातुः ।   3) जल शुद्धि - तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम    कृत्वा ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः    पंचपात्र के ऊपर हुङ् ईति अवगुंठ, वं इति धेनुमुद्रा, मं इति मत्स्य मुद्रा.....१० बार ईष्ट मन्त्र जप । फिर पंचपात्र के ऊपर दाहिनी अंगुष्ठा को हिलाते हुए निम्न मंत्र को पढ़ें—   “ ॐ गंगेश यमुनाष्चैव गोदावरी सरस्वती ।    नर्मदे सिंधु कावेरी जलेहस्मिन सन्निधिम कुरु ॥ 4) आसन शुद्धि – ॐ आसन मंत्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषि सुतलं छन्द कूर्म देवता आसने उपवेसने विनियोग: - पंचपात्र मे से एक आचमनी जल छोड़ें-   आसन के नीचे दाहिनी अनामिका द्वारा -तृकोनश्च-वृतत्व-चतुष्मंडलम कृत्वा ॐ ह्रीं आधारशक्तये पृथिवी देव्यै नमः असनं स्थापयेत ।   आसन को छूकर - ॐ पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्यवं विष्णुनाधृता। त्वं च धारयमां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥   बाएँ हांथ जोड़कर – बामे गुरुभ्यो नमः , परमगुरुभ्यो नमः , परात्पर गुरुभ्यो नमः , परमेष्ठि गुरुभ्यो नमः ।   दाहिने हांथ जोड़कर – श्रीगणेशाय नमः ।   सामने हांथ जोड़कर सिर मे सटाकर – मध्ये श्रीमद् उग्रतारा देव्यै नमः   5) स्वस्तिवाचन :- ॐ स्वस्ति न:इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पुषा विश्ववेदाः ।   स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥  6) गुरुध्यान :- (कूर्म मुद्रा मे)      ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं,   द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम्।   एकं नित्यं विमलमचलं सर्वाधिसाक्षिभूतं,   भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं त्वं नमामि।।    7) मानस पूजन:- अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-  ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।   ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि।   ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि।   ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि ।  ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि।  ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।  गुरु प्रणाम:-    दोनों हांथ जोड़कर--    ॐअखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।  तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥  न गुरोरधिकं तत्त्वं न गुरोरधिकं तपः ।  तत्त्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥  मन्नाथः श्रीजगन्नाथः मद्गुरुः श्रीजगद्गुरुः ।   मदात्मा सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥  अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया ।   चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥  ज्ञानशक्तिसमारूढः तत्त्वमालाविभूषितः ।   भुक्तिमुक्तिप्रदाता च तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥  अनेक जन्मसंप्राप्त कर्मबन्धविदाहिने ।   आत्मज्ञानप्रदानेन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥    9) गणेशजी का ध्यान :-  विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय,  लम्बोदराय सकलाय जगत्‌ हिताय ।   नागाननाय श्रुतियज्ञभूषिताय,   गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥   10) मानस पूजन:-अपने गोद पर बायीं हथेली पर दाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।  ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि।  ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि।   ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि ।  ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि।  ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि।  11) गणेश प्रणाम:-  प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम।  भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु: कामार्थसिद्धये।।  वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसंप्रभ:।  निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।  लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकंप्रियं।  निर्विघ्न कुरुवे देव सर्वकार्ययेषु सर्वदा।।  सर्वविघ्नविनाशाय, सर्वकल्याणहेतवे।   पार्वतीप्रियपुत्राय, श्रीगणेशाय नमो नम: ।।   गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्।   उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।  12) ईष्टदेवी प्रणाम:-   ॐ प्रत्यालीढ़पदेघोरे मुण्ड्माला पाशोभीते ।   खरवे लंबोदरीभीमे श्रीउग्रतारा नामोस्तुते ॥   13) संकल्प:- ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: ॐ तत्सत् श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यश्रीब्रह्मणोऽह्नि द्वितीय परार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे भूप्रेदेशे------प्रदेशे------मासे-----राशि स्थिते भास्करे----पक्षे-----तिथौ----वासरे अस्य-----गोत्रोत्पन्न------नामन:/नाम्नी अस्य श्रीमद्उग्रतारा संदर्शनं प्रीतिकाम: सर्वसिद्धि पूर्णकाम: मन्त्रस्य दशसहस्रादि जप तत् दशांश होमं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश तर्पणम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश अभिसिंचनम् अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप तत् दशांश ब्राह्मण भोजनं अनुकल्पं विहितं तत् द्विगुण जप पंचांग पुरश्चरण कर्माहम् करिष्ये। 14)भूतपसारन :- दाहिने हांथ में जल लेकर निम्न मन्त्र को पढ़कर अपने सिर के ऊपर से दशों दिशाओं मे छोडना है -- ॐ आपः सर्पन्तु ते भूता ये भूता भुवि संस्थिता ।   या भूता विघ्नकर्तारंते नश्यंतु शिवाग्या ॥  ॐ बेतालाश्च पिशाचाश्च राक्षाशाश्च सरीसृपा ।   आपःसर्पन्तु ते सर्वे चंडिकास्त्रेन ताडिता: ॥  ॐ विनायका विघ्नकरा महोग्रा यज्ञद्विषो ये । 
पिशितानाश्च सिद्धार्थकैवज्रसमानकल्पैमया नीरिस्ता विदिश: प्रयान्तु ॥  15) भूतशुद्धि :-   1. ॐ भूतशृंगाटाच्छिर सुषुम्नापथेन जीवशिवं परमशिव पदे योजयामी स्वाहा ।  2. ॐ यं लिंगशरीरं शोषय शोषय स्वाहा ।  3. ॐ रं संकोचशरीरं दह दह स्वाहा ।  4. ॐ परमशिव सुषुम्नापथेन मूलशृंगाटमूल्लसोल्लस ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल सोऽहं हंस: स्वाहा।  16) ऋषयादिन्यास;- ॐ श्रीमद् उग्रतारा मंतरस्य अक्षोभ्य ऋषि, विहति छन्द: , श्रीमदेकजटा देवता, हूँ बीजं , फट् शक्ति , ह्रीं स्त्रीं कीलकम, मम धर्मार्थकाममोक्षार्थे , सर्वाभीष्ट सिध्यर्थे जपे विनियोग:(पंचपात्र से थोड़ा जल सामने पात्र मे छोड़े ) ॐ अक्षोभ्य ऋषये नम: - शिरसे ।    ॐ विहति छन्दसे नम: - मुखे ।   ॐ श्रीमदेकजटा देवतायै नम: - ह्रदये।  ॐ हूँ बीजाय नम: - गुह्ये (फिर हाथ धोए)।   ॐ फट् शक्तये नम: - पादयो ।   ॐ ह्रीं स्त्रीं लकाय नम: - सर्वाङ्गे।
17) करन्यास :-  ॐ ह्रां एक्जटाय अंगुष्ठाभ्यां नम:।   ॐ ह्रीं तारिण्यै तर्जनीभ्यां स्वाहा ।  ॐ ह्रूं बज़्रोदके मध्यमाभ्यां वषट्।   ॐ ह्रऐं उग्रजटे अनामिकाभ्यां हूम।   ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्।  ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे करतलकरपृष्ठाभ्याम् अस्त्राय फट्।  18) अंगन्यास :- ॐ ह्रां एक्जटाय हृदयाय नम:।  ॐ ह्रीं तारिण्यै शिरसे स्वाहा ।   ॐ ह्रूं बज़्रोदके शिखायै वषट्।  ॐ ह्रऐं उग्रजटे कवचाय हूम। ॐ ह्रौं महाप्रतिशरे नेत्रत्रयाय वौषट्।   ॐ ह्र: पिंग्रोंग्रैकजटे अस्त्राय फट्।   19) तत्वन्यास:-  ॐ ह्रीं आत्मतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर पैर से नाभि तक स्पर्श करे ]   ॐ ह्रीं विद्यातत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर नाभि से हृदय तक स्पर्श करे ]    ह्रीं शिवतत्वाय स्वाहा। [ तत्व मुद्रा बना कर हृदय से सहस्त्रसार तक स्पर्श करे ]   20) व्यापक न्यास:- “ह्रीं” मन्त्र से ७ बार   21) माँ उग्रतारा ध्यान:- (कूर्म मुद्रा में)
प्रत्यालीढ़ पदार्पिताग्ध्रीशवहृद घोराटटहासापरा,  खड़गेन्दीवरकर्त्री खर्परभुजा हुंकार बीजोद्भवा ।   खर्वानीलविशालपिंगलजटाजूटैकनागैर्युता,  जाड्यनन्यस्य कपालिकेत्रिजगताम हन्त्युग्रतारा स्वयं॥  22) माँ उग्रतारा मानसपूजन:-अपने गोद पर दायीं हथेली पर बाईं हथेली को रखकर निम्न मंत्र को पढ़ें-   ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं अनुकल्पयामि ।  ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं अनुकल्पयामि ।  ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं अनुकल्पयामि ।  ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं अनुकल्पयामि । । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं अनुकल्पयामि ।  ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं सर्वोपचारं अनुकल्पयामि ।  23)प्राणायाम :- “ह्रीं” मन्त्र से ४/१६/८ ।   24)डाकिन्यादि मंत्रो का न्यास:-(तत्वमुद्रा द्वारा)  मूलाधार में डां डाकिन्यै नम:।  स्वाधिष्ठान में रां राकिन्यै नम:।  मणिपुर में लां लाकिन्यै नम:।   अनाहत में कां काकिन्यै नम:।  विशुद्ध में शां शाकिन्यै नम:।  आज्ञाचक्र में हां हाकिन्यै नम:।  सहस्रार में यां याकिन्यै नम:।  25) मन्त्र शिखा:- श्वास को रुधकर भावना द्वारा कुलकुण्डलिनी को बिलकुल सहस्रार में ले जाये एवं उसी क्षण ही मूलाधार में ले आये। इस तरह से बार बार करते करते सुषुम्ना पथ पर विद्युत की तरह दीर्घाकार का तेज लक्षित होगा।  26) मन्त्र चैतन्य :- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं ” मन्त्र को हृदय में ७ बार जपे।   27) मंत्रार्थ भावना:- देवता का शरीर और मन्त्र अभिन्न है, यही चिंतन करें।  28) निंद्रा भंग:- “ईं ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ईं” मन्त्र को ह्रदय में १० बार जपे ।  29) कुल्लुका:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ” मन्त्र को मस्तक पर ७ बार जपे।   3०) महासेतु:- “हूँ” मन्त्र को कंठ में ७ बार जपे।  31) सेतु:-“ॐ ह्रीं ” मन्त्र को ह्रदय में ७ बार जपे । 32) मुखशोधन:-“ ह्रीं हूँ ह्रीं ” मन्त्र को मुख में ७ बार जपे।   33) जिव्हाशुद्धि:- मत्स्यमुद्रा से आच्छादित करके “हें सौ:” मन्त्र को ७ बार जपे ।  34) करशोधन:- “ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ” मन्त्र को कर में ७ बार जपे ।  35) योनिमुद्रा मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र पर्यंत अधोमुख त्रिकोण एवं ब्रह्मरंध्र से लेकर मूलाधार पर्यंत उर्ध्वमुख त्रिकोण अर्थात् इस प्रकार का षट्कोण की कल्पना कर बाद मे ऐं मन्त्र का १० बार जप करे।  36) अशौचभंग:- “ॐ ह्रीं स्त्रीं हूँ फट् ॐ” मंत्र को हृदय में 7 बार जप करें । 37) मन्त्रचिंता:- मन्त्रस्थान में मन्त्र का चिंतन करे। अर्थात रात्रि के प्रथम दशदण्ड(4 घंटे) में ह्रदय में, परवर्ती दशदण्ड में विन्दुस्थान(मनश्चक्र के ऊपर), उसके बाद के दशदण्ड के बीच कलातीत स्थान में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के प्रथम दशदण्ड के बीच ब्रह्मरंध्र में मन्त्र का ध्यान करे। दिवस के द्वितीय दशदण्ड में ह्रदय में एवं तृतीय दशदण्ड में मनश्चक्र में मन्त्र का चिंतन करे।  38) उत्कीलन :- देवता की गायत्री १० बार जपे।   “ॐ ह्रीं उग्रतारे विद्महे शमशान वासिनयै धीमहि तन्नो स्तारे प्रचोदयात्।”  39) दृष्टिसेतु:- नासाग्र अथवा भ्रूमध्य में दृष्टि रखते हुए १० बार प्रणव का जप करे।  40) जपारंभ:- सहस्रार में गुरु का ध्यान, जिव्हामूल में मन्त्रवर्णो का ध्यान और ह्रदयमें ईष्टदेवता का ध्यान करके बाद में सहस्रार में गुरुमूर्ति तेजोमय, जिव्हामूल में मन्त्र तेजोमय और ह्रदयमें ईष्टदेवता की मूर्ति तेजोमय, इस तरह से चिंतन करे। अनंतर में तीनों तेजोमय की एकता करके, इस तेजोमय के प्रभाव से अपने को भी तेजोमय और उससे अभिन्न की भावना करे। इसके बाद कामकला का ध्यान करके अपना शरीर नहीं है अर्थात् कामकला का रूप त्रिविन्दु ही अपना शरीर के रूप में सोचकर जप का आरम्भ कर दे।  

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