भारत के धार्मिक स्थल विशेषकर मंदिर एक से बढ़कर एक रहस्य अपने में समेटे हुए हैं। ऐसा ही एक मंदिर है उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद के पाटन गांव में सिरिया नदी के तट पर स्थित मां पाटेश्वरी का मंदिर। इस मंदिर के कारण ही इस पूरे मंडल का नाम देवीपाटन पड़ा हुआ है।
मंदिर से कई पौराणिक कहानियां तो जुड़ी ही हैं साथ ही यहां की मान्यता को हर साल यहां मां के दर्शने के लिये आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ से समझा जा सकता है। आइये आपको बताते हैं मां पाटेश्वर के इस पौराणिक इतिहास की गाथा कहते मंदिर की कहानी।
मां पाटेश्वरी की यह मंदिर अपने अंदर कई पौराणिक कहानियों को समेटे हुए है। एक कथा भगवान श्री राम और माता सीता से जुड़ी है।
कहते हैं कि त्रेतायुग में जब भगवान राम, रावण का संहार कर देवी सीता को अयोध्या लाये तो देवी सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा लेकिन कुछ समय पश्चात किसी धोबी ने अपनी पत्नी को अपनाने से इंकार करते हुए भगवान राम पर कटाक्ष किया तो भगवान राम ने गर्भवती सीता को घर से निकाल दिया।
वन में सीता महर्षि वाल्मिकी के आश्रम में रहने लगी जहां उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया इसके बाद लव-कुश ने अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को रोककर भगवान राम को युद्ध की चुनौति दी जिसके बाद उनका परिचय हुआ।
पिता पुत्र के मिलन के बाद सीता को वापस अयोध्या ले जाने को भगवान राम इसी शर्त पर तैयार थे कि माता सीता पुन: अग्नि परीक्षा से गुजरें।
यह बात सीता सहन न कर सकी और उन्होंनें धरती माता को पुकारा और अपनी गोद में समा लेने की प्रार्थना की। फिर क्या था देखते ही देखते धरती का सीना फटा और धरती माता सीता को अपनी गोद में लेकर वापस पाताल लोक को गमन कर गईं।
कहा जाता है कि पाताल से धरती माता निकलने के कारण इसका नाम आरंभ में पातालेश्वरी था जो बाद में पाटेश्वरी हो गया। मान्यता है कि आज भी वहां पाताल लोक तक जाने वाली एक सुरंग मौजूद है जो चांदी के चबूतरे के रूप में दिखाई देती है।
वहीं मां पाटेश्वरी के इस मंदिर से एक कथा देवी सती की शक्तिपीठों से भी जुड़ी है। जब देवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में माता सती के पति भगवान भोलेनाथ शिवशंकर को आमंत्रित नहीं किया तो देवी ने यज्ञ में जाने की जिद की।
देवी यज्ञ में अपने पिता से निमंत्रण न देने का कारण जानने लगी तो उनके पिता दक्ष भगवान शंकर का अपमान करने लगे जिसे देवी सहन कर सकी और हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी। भगवान शंकर को क्रोध आ गया और वो सती शव को लेकर तांडव करने लगे। दुनिया नष्ट होने की कगार पर पंहुच गई। देवताओं के सिंहासन डोलने लगे।
तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन से देवी सती के शव को खंडित किया जहां जहां देवी के अंग व वस्त्र पड़े वहां शक्तिपीठ स्थापित हुईं। मां पाटेश्वरी के इस मंदिर के बारे में माना जाता है कि मां का वाम स्कंद यानि बायां कंधा वस्त्र सहित यहां गिरा था। स्कंदपुराण में इसका वर्णन भी मिलता है।
भगवान परशुराम की तपस्थली तो कर्ण ने सीखी शस्त्र विद्या मंदिर से एक और पौराणिक कथा जुड़ी है माना जाता है कि यहीं पर भगवान परशुराम ने अपनी तपस्या की थी। उसके बाद महाभारत काल में इसी स्थान पर स्थित सरोवर जो आजकल सूर्यकुंड है, में स्नान कर दानवीर कर्ण ने भगवान परशुराम से शस्त्र विद्या ग्रहण की थी।
माना यह भी जाता है कि सूर्यकुंड के जल में स्नान कर इसी जल से देवी की पूजा करने की परंपरा की शुरुआत भी करण से ही चली आ रही है उन्होंने ही इसकी शुरुआत की थी। साथ ही यह भी माना जाता है कि मंदिर का जीर्णोद्धार भी राजा करण ने कराया था।
कहा जाता है कि कालांतार में विक्रमादित्य ने फिर से मंदिर का जीर्णोद्धार किया लेकिन बाद में मुगल शासक औरंगजेब ने मीर समर को मंदिर को नष्ट भ्रष्ट करने भेजा जो देवी प्रकोप का शिकार हुआ मीर समर का समाधिस्थल मंदिर के पूर्व में आज भी है। लेकिन कहा जाता है औरगंजेब ने स्वयं मंदिर को धवस्त किया जिसे बाद में फिर से बनाया गया।
गुरु गोरखनाथ ने की थी पीठ की स्थापना मां पाटेश्वरी के इस मंदिर को सिद्ध योगपीठ एवं शक्तिपीठ दोनों माना जाता है। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ व पीर रत्ननाथ ने यहीं पर सिद्धियां प्राप्त की जिसके बाद उन्होंनें नाथ संप्रदाय को शुरु किया।
मान्यता है कि भगवान शिव की आज्ञा से महायोगी गुरु गोरखनाथ ने सिद्ध शक्तिपीठ देवीपाटन में पाटेश्वरी पीठ की स्थापना कर मां पाटेश्वरी की आराधना एवं योगसाधना की थी। इसका उल्लेख यहां एक शिलालेख से भी मिलता है।
मंदिर में देवी की प्रतिमा मां पाटेश्वरी के इस मंदिर के भीतरी कक्ष में कोई प्रतिमा नहीं बल्कि चांदी से जड़ा हुआ एक चबूतरा है जिस पर कपड़ा बिछा रहता है इसी चबूतरे के ऊपर एक ताम्रछत्र है जिस पर पूरी दुर्गा सप्तशती के श्लोक छपे हुए हैं।
यहां घी की अखंड दीपज्योति जलती रहती है माना जाता है कि यह जोत शक्तिपीठ के स्थापना काल से ही लगातार जल रही है। भीतरी कक्ष में देवी की प्रतिमा नहीं है लेकिन मंदिर में दुर्गा माता के नौ स्वरुप मां शैलपुत्री, मां ब्रह्मचारिणी, मां चंद्रघंटा, मां कूष्मांडा, स्कंदमाता, मां कात्यायनी, मां कालरात्रि, मां महागौरी एवं मां सिद्धीदात्री की प्रतिमायें स्थापित हैं।
यहां होता है कुष्ठरोगों का निवारण मां पाटेश्वरी मंदिर के उत्तर में सूर्यकुंड है। वही सूर्यकुंड जिसके जल से दानवीर कर्ण स्नान कर मां की आराधना किया करते थे। मान्यता है कि रविवार के दिन षोडशोपचार से पूजन किया जाये तो कुष्ठरोग का निवारण हो जाता है।
नवरात्र के दिनों में वैसे तो माता के हर मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगने लगती है लेकिन मां पाटेश्वरी के मंदिर में भारत से लेकर नेपाल तक के श्रद्धालु आते हैं। क्योंकि गुरु गोरखनाथ के शिष्य पीर रत्ननाथ की तपस्या से खुश होकर मां ने उनकी पूजा होने का वरदान दिया था। नेपाल में पीर रत्ननाथ को मानने वाले बहुत लोग हैं।
वसंती नवरात्र की पंचमी को यहां नेपाल से उनकी शोभायात्रा पंहुचती है और पांच दिन तक नेपाल से आये पुजारी मां की पूजा के साथ-साथ रत्ननाथ की पूजा भी करते हैं। वहीं नवरात्र के दौरान यहां मेला भी लगता है जिसमें लाखों की संख्या में पूरे भारतवर्ष से श्रद्धालु आते हैं। मां पाटेश्वरी के मंदिर में मां के नौ रुपों की प्रतिमाएं भी यहां स्थापित हैं इस कारण भी नवरात्र के दिनों में यहां भीड़ रहती है।