लोकसभा चुनाव 2024: इस ‘पहली बार’ में छिपे हैं भविष्य के कई संकेत...
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27-03-2024 12:01 PM
सार
पहली बार आचार संहिता के दौरान भी ईडी, सीबीआई के विपक्षी नेताओं पर छापे जारी हैं। पहली बार घोड़ा और घास की यारी की तर्ज पर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस साथ हैं। पहली दफा विपक्ष के मन में यह डर है कि यह आम चुनाव कहीं आखिरी साबित न हों तो पहली बार मतदाताओं के मन में भी यह शंका कुलबुला रही है कि भविष्य विपक्ष ही नहीं बचा तो सरकार चुनने का अर्थ क्या रह जाएगा?
विस्तार
बहुत कुछ पहली बार हो रहा है, इस आम चुनाव के दौरान। पहली दफा किसी पदासीन मुख्यमंत्री की घोटाले के आरोप में और वो भी देश में आदर्श आचार संहिता लागू रहते गिरफ्तारी हुई है। खुद को बेकसूर मानने वाले और फिलहाल ईडी की हिरासत में एक मुख्यमंत्री ने जेल से कार्यकारी आदेश जारी किया है। पहली बार किसी राजनीतिक पार्टी ने देश की राष्ट्रपति के खिलाफ याचिका दायर की है तो संभवत: पहली बार कोई प्रधानमंत्री आचार संहिता लागू रहते ही विदेश यात्रा पर गया है तो पहली दफा आचार संहिता लागू रहते किसी राज्य में मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ है।
पहली बार एक राज्यपाल ने सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद एक मंत्री को पद की शपथ दिलाई है तो पहली दफा देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी ने गुहार लगाई है कि सत्तारूढ़ भाजपा ने उसके खाते सील कर दिए हैं, पार्टी के पास प्रचार तक के पैसे नहीं हैं।
पहली बार आचार संहिता के दौरान भी ईडी, सीबीआई के विपक्षी नेताओं पर छापे जारी हैं। पहली बार घोड़ा और घास की यारी की तर्ज पर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस साथ हैं। पहली दफा विपक्ष के मन में यह डर है कि यह आम चुनाव कहीं आखिरी साबित न हों तो पहली बार मतदाताओं के मन में भी यह शंका कुलबुला रही है कि भविष्य विपक्ष ही नहीं बचा तो सरकार चुनने का अर्थ क्या रह जाएगा?
कुछ गौरतलब बातें और भी हैं। मसलन पहली बार चुनावों में एआई का प्रयोग हो रहा है तो पहली दफा यह है कि राजनीतिक पार्टियों के मुखौटों में परिवारवादी नेतृत्व और व्यक्तिवादी नेतृत्व में सीधा आमना-सामना है तो यह पहली बार है कि एक सत्तारूढ़ गठबंधन जीत के प्रति आश्वस्त होने के बाद भी बंपर जीत के लिए प्रयत्नों की पराकाष्ठा किए दे रहा है।
यह भी पहली बार ही है कि अपने अस्तित्व पर आसन्न खतरे को भांप कर भी विपक्ष क्षुद्र स्वार्थों के जाल से पूरी तरह निकल नहीं पा रहा है। और यह भी कि देश के राजनीतिक फलक पर मूल्यविहीन टिकटजीवियों के सम्प्रदाय का निरंतर विस्तार होता जा रहा है।
गोया समूचा परिदृश्य ‘न भूतो’ जैसा है ‘भविष्यति’ होगा या नहीं, कहना मुश्किल है। इसके पहले 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में ऐसी स्थिति बनी थी, ‘जब करो या मरो’ की भावना के साथ विपक्ष एकजुट हुआ था और उसने श्रीमती इंदिरा गांधी की अजेय समझी जाने वाली सत्ता को उलट दिया था। ये अलग बात है कि विपक्ष की वो एकता सतही थी। लेकिन उसी के साथ भविष्य में कांग्रेस के धीरे- धीरे हाशिए पर जाने की पूर्व पीठिका तैयार हो गई थी।
अगले तीन दशकों तक कांग्रेस केन्द्र में कभी अपने दम पर तो कभी गठबंधन की बैसाखी के सहारे सत्ता में आती रही। लेकिन 2014 में उसकी सत्ता में वापसी पर लंबा ब्रेक लग गया। अभी भी वह ऐसे मुद्दों की तलाश में है, जो उसे वापस सत्ता दिला सके। वो भरोसा, जिसके बूते खुद कांग्रेसी ही अपनी पार्टी में न्याय मिलने को लेकर आश्वस्त हो सकें। वो विश्वास, जो कांग्रेस के प्रति अल्पसंख्यकों से भी ज्यादा बहुसंख्यकों में था, कैसे लौट सके। कैसे पार्टी तुष्टिकरण के पूर्वाग्रह को लांघ कर सर्वजन हिताय के रथ में सवार हो सके। कैसे वह अपने ही अंतर्विरोधों को गटककर एक मजबूत और प्रतिबद्ध सेना के रूप में मतदाता के सामने आ सके।
खतरे तो भाजपा के सामने भी हैं। महासागर का रूप ले चुकी पार्टी अब विचारों से ज्यादा सत्ताग्रही आचारों से नियंत्रित और संचालित हो रही है। अगर कांग्रेस को किसी दमदार नायक की तलाश है तो भाजपा के सामने एक अधिनायक की विराट छवि में खुद के गुम जाने का खतरा है।
एक चेहरे पर अति निर्भरता उसे भविष्य में कांग्रेस की राह पर ले जा सकती है। भाजपा और संघ ने एक सुचिंतित रणनीति और लक्ष्य के तहत धर्मनिरपेक्षता की परतें उधेड़ कर उसमें बहुसंख्यक समाज की हैसियत और वर्चस्व को संस्थापित किया, लेकिन इसका अतिवाद खुद उसके अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी बन सकता है। क्योंकि एकजुटता में ही अंतर्विरोधों के बीज छुपे होते हैं।
बेशक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज देश के सबसे लोकप्रिय और दमदार नेता हैं। देश के मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उनसे सम्मोहित है। लेकिन यह स्थिति भाजपा के सत्ता में लौटने की आश्वस्ति से ज्यादा पार्टी संगठन के हाशिए पर चले जाते जाने का अलार्म भी है, जिसे भाजपा और संघ में अंदरूनी तौर पर महसूस किया जा रहा है।
अधिनायकत्व का बड़ा कारण अक्सर आत्ममुग्धता और अति आत्म विश्वास होता है। लेकिन पैरों से नीचे खिसकती जमीन का अहसास उसके खिसक जाने के बाद ही होता है, बशर्तें कि संगठन के कील कांटे समय पर ही दुरूस्त न कर लिए जाएं। वोटों की किसी भी कीमत पर गोलबंदी अगर लोकतंत्र की अनिवार्य बुराई है तो जनता के मानस का बदलना भी ठोस सच्चाई है।
लोगों की बदलती, बढ़ती चेतना, अपेक्षाएं आशा और निराशा का भाव ही किसी न किसी राजनीतिक विचार के आवरण में जनाकांक्षा के रूप में उभरता है और मतदातााओं, समूहों को नए सिरे से गोलबंद करता है। यह गोलबंदी एक सीमा तक विस्तारित होते जाने के बाद अपने चरम पर जाकर नया मोड़ लेती है, जो किसी नए राजनीतिक, सामाजिक अथवा आर्थिक आंदोलन, हिंसा और सत्ता परिवर्तन के रूप में रूप में भी हो सकता है। अयोध्या में रामलला मंदिर और कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति के रूप में चरम पर पहुंचा एक राजनीतिक और धार्मिक चेतना से उपजा ज्वार अब उतार पर है।
यह भी सच्चाई है कि जब भावनात्मक मुद्दे शिथिल होते हैं तो सामाजिक यथार्थ के मुद्दे उसकी जगह लेते हैं। बावजूद इसके कि बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, शोषण जैसे मुद्दे स्थायी होते हुए भी सत्ता परिवर्तन के लिए अक्सर निर्णायक कारक नहीं होते।
भारत जैसे लोकतंत्र में ये स्थायी लेकिन आनुषांगिक मुद्दे रहते आए हैं। कोई जज्बाती मुद्दे का तड़का ही सामान्यत: चुनाव जिताऊ सिद्ध होता है और भाजपा ऐसे मुद्दे की खोज और गढ़न में माहिर हो चुकी है। जबकि विपक्ष के पास ऐसा ही कोई निर्णायक मुद्दा मिसिंग है। इसमें भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा है, जो राजनीतिक दृष्टि से उभयलिंगी है।
मसलन विपक्ष में रहते हुए जो दल भ्रष्टाचार खत्म करने की कसमें खाता है, सत्ता मिलते ही वह भ्रष्टाचार को शिष्टाचार का प्रोटेक्टिव किट पहनाने में संकोच नहीं करता। सत्ता सापेक्ष भ्रष्टाचार को वाजिब ठहराने के लिए कुतर्क गढ़े जाते हैं।
इसका सबसे ताजा और विडंबनापूर्ण उदाहरण आम आदमी पार्टी का है। 13 साल पहले यह पार्टी भ्रष्टाचार विरोध की कोख से जन्मी थी और आज उसी का मुख्यमंत्री भ्रष्टाचार के आरोपो में जेल में है। हालांकि, आप इस पूरे एपीसोड को मोदी सरकार का राजनीतिक षड्यंत्र बता रही है। लेकिन जन्मत: इस पार्टी ने उन युवाओं को एक नई राजनीतिक दिशा दी थी, जो सत्ता मोह से ज्यादा समाज परिवर्तन की बात करते थे, लेकिन आज उसी पार्टी का मुख्यमंत्री जेल से सरकार चलाने पर आमादा है। अनैतिकता का यह अट्टहास खुद के निर्दोष होने के आग्रह के बजाए उस अंदरूनी भय से जन्मा है, जिसमें एक बार कुर्सी किसी दूसरे के हाथ में चले जाने पर फिर न मिलने की आशंका छिपी है।
दुर्भाग्य से भ्रष्टाचार अब इस देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तंत्र का ऐसा ‘च्यवनप्राश’ बन चुका है, जिसे खा तो सभी रहे हैं, लेकिन बता बुराई रहे हैं। इलेक्टोरल बांड का घूंघटिया भ्रष्टाचार तो एक बानगी भर है। इसके पक्ष में तर्क यह है कि इलेक्टोरल बांड भ्रष्टाचार की दारू छुड़ाने के लिए दी गई कम नशे की दवा है। या यूं कहें कि यह काले धन को सफेद गाउन पहनाने की कानूनी कोशिश थी।
केजरीवाल सरकार के 600 करोड़ रूपये के कथित शराब निजीकरण घोटाले में कितना पैसा किसने किसको दिया, कब दिया, क्यों दिया, यह सब जांच और अदालती कार्रवाई में पता चलेगा, लेकिन जो दिख रहा है, उससे एक आम मतदाता को इतना ही समझ आ रहा है कि दो नंबर के पैसे के खेल में आम आदमी पार्टी अभी जूनियर केजी में है। पैसे का भ्रष्टाचार पेशेवर सफाई के साथ करना भी अब एक ‘कला’ है।
हुनर इस बात का कि नियंत्रक संस्थाओं की निगरानी की नजर बंदी कैसे की जाए और ‘खेल’ करने के बाद भी बेदाग कैसे दिखा जाए। वैसे भी आजकल राजनैतिक नैतिकता उस गुटखे की माफिक है, जिसे जब चाहा निगला और उगला जा सकता है। राजनीतिक निष्ठा, परसेप्शन और वोटों की हेराफेरी की ऐवज में करोड़ों रूपए इधर से उधर हो जाते हैं और कानो कान खबर नहीं लगती। लगता है कि आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल ज्यादा होशियारी और बड़बोलेपन में ही गच्चा खा गए वरना करप्शन के इस मेगा डिनर में लोग डकार लेते हैं तो भी आवाज नहीं आती।
सत्ता का लोभ भ्रष्टाचार को प्रेरित करता है और भ्रष्टाचार से सत्ता का रिमोट हाथ में रहता है। सत्ता का यही लोभ जहां भाजपा के प्रभाव विस्तार का बड़ा कारक है, वहीं, कांग्रेस और तमाम दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों के सामने अपना वजूद बचाने की चुनौती है। इनके अलावा जो पार्टियां प्रगतिशीलता के नारे के साथ वैचारिक कूप मंडूकता में ही अटकी हैं, उन्हें तो अपने पैर जमीन पर टिकाए रखना भी मुश्किल होता जा रहा है।
अब सवाल यह कि इन अभूतपूर्व हालातों का मतदाता के मानस पर क्या असर होगा? इस सवाल का जवाब आसान नहीं हैं। क्योंकि अब वोटर केवल एक मुद्दे, एक वादे, एक अभिलाषा, एक प्रताड़ना अथवा एक लालच और एक लाभ से प्रेरित होकर वोट नहीं करता।
केजरीवाल के अंदर जाने और उनकी गिरफ्तारी को बार- बार दिल्ली की जनता के अपमान से जोड़ने का राजनीतिक दांव आप को बहुत लाभ देने वाला नहीं है, न ही इलेक्टोरल बांड की आड़ में ‘पैसे दो, ठेका लो’ की हेराफेरी मतदाता को बहुत ज्यादा उद्वेलित करने वाली है। मतदाता के हाथ में इतना ही है कि वह रेवड़ी और गारंटियों के बीसियों ऑफरों में से बेस्ट च्वाइस क्या करे ? वैसे भी राजनीतिक अनैतिकता की मंडी में केवल मतदाता से नैतिक होने की अपेक्षा करना होली के हुड़दंग में धूनी रमाने की अपेक्षा करने जैसा है।
केजरीवाल प्रकरण में सबसे दुविधापूर्ण स्थिति कांग्रेस की है। क्योंकि सबसे पहले उसने ही केजरीवाल सरकार को भ्रष्ट कहा था और मुख्यमंत्री से इस्तीफे की मांग की थी। अब उसी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व केजरीवाल की गिरफ्तारी को लोकतंत्र की हत्या के आईने में देखने की बात कर रहा है तो राज्यों में कांग्रेस नेता केजरीवाल की गिरफ्तारी को सही बता रहे हैं।
भाजपा विरोध में कांग्रेस के इस नीतिगत शिफ्ट से आम कांग्रेसी भी हैरान है कि सही क्या है? क्योंकि अगर केजरीवाल लोकतंत्र के सच्चे सिपाही हैं तो फिर अजित पवार को महाभ्रष्ट बताकर बाद में सत्ता की ही खातिर गले लगाने वाले मोदी गलत कैसे हैं? कुर्सी केन्द्रित यह राजनीतिक गिरोहबंदी भी सत्ता महाभारत के दोनो खेमों के बीच समान रूप से इतने बड़े पैमाने पर हो रही है, क्या यह भी पहली बार नहीं है? सोचना मतदाता को है कि वो भविष्य में लोकतंत्र को किस स्वरूप में देखना चाहता है।
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