कश्मीर अब-4, नई सियासत के साथ पूर्ण राज्य के दर्जे की आस में है कश्मीर
Updated on
21-09-2023 11:10 AM
कश्मीर घाटी में वर्तमान में बेहतर हालात, बढ़ता पर्यटन और अन्य गतिविधियों के बाद भी यह कड़वी सचाई है कि अलगाववादी और आतंकी कार्रवाइयां पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं। इसमें कमी आई है, लेकिन अभी भी कुछ कश्मीरी युवा गुमराह होकर कथित आजादी की लड़ाई लड़ते हुए जानें गंवा रहे हैं। वर्तमान में राज्य में उपराज्यपाल शासन है और कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा घटाकर केन्द्र शासित प्रदेश कर दिया गया है। इससे जहां शांति और प्रशासनिक कसावट आई है, वहीं कश्मीरियो में पूर्ण राज्य का दर्जा खोने की कसक भी है। वो चाहते हैं कि प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा फिर से जल्द हासिल हो।
राज्य में धारा 370 हटने के बाद तीखी राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई थी। लेकिन अब चार साल बाद प्रदेश में राजनीतिक गतिविधियां मंद गति से चल रही हैं। सभी असमंजस में हैं कि उनकी राजनीति की दिशा क्या हो? कश्मीर में धारा 370 की वापसी या फिर कश्मीर को पुन: पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाना? जहां तक धारा 370 की वापसी की बात है तो यह अब असंभव लगता है। हालांकि कुछ राजनीतिक दल वापसी का समर्थन कर रहे हैं, जो वोट बैंक की राजनीति ज्यादा है। धारा 370 हटाने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला अभी आना है, लेकिन केन्द्र में काबिज कोई भी सरकार अगर कालचक्र को उलटा घुमाने की कोशिश करेगी तो इसका देश में विपरीत संदेश जाएगा और मसला फिर जहां का तहां पहुंच जाएगा। फिलहाल कश्मीरी राजनीति का समयोचित मुद्दा पूर्व राज्य के दर्जे की मांग ही हो सकता है, जो जायज भी है। लेकिन लगता है मोदी सरकार इस बारे में फैसला अनुकूल राजनीतिक परिस्थति के बाद ही करेगी। यह भी ध्या्न में रखना होगा कि कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और निर्वाचित सरकार द्वारा सत्ता संभालने के बाद वहां कानून व्यवस्था की स्थिति फिर बिगड़ न जाए। राज्य में विधानसभा के आखिरी चुनाव 2014 में हुए थे, जिसके बाद राज्य में पीडीपी और भाजपा ने मिलकर सरकार बनाई थी, जो 2018 में गिर गई। वैसे जम्मू कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल 6 साल का होता है।
गौरतलब है कि धारा 370 हटाने के बाद कश्मीर की स्वायत्तता छिनने को मुद्दा बनाकर कश्मीर के घाटी की 6 प्रमुख पार्टियों ने एक अनौपचारिक संगठन बनाया था, जिसे पीपुल्स अलायंस फाॅर गुपकार डिक्लेरेशन के नाम से जाना जाता है। इसने एक घोषणा पत्र जारी किया था, जिसमें कश्मीर में धारा 370 व धारा 35 ए की वापसी तथा कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने का संकल्प व्यक्त किया गया था। यह गठजोड़ चूंकि शेर और बकरी को एक घाट पर पानी पिलाने जैसा था, इसलिए चल नहीं पाया। क्योंकि राज्य की दो प्रमुख परस्पर विरोधी पार्टियां नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी इसमें शामिल थीं। दोनो का वोट बैंक मुख्य रूप से कश्मीर घाटी में ही है। वर्तमान में ये दोनो पार्टियां राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया गठबंधन में शामिल हैं। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस द्वारा राज्य की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने के इकतरफा ऐलान के बाद गुपकार गठबंधन की हवा निकल गई है।
अब आगे कश्मीर की राजनीति नई सियासी हालात के हिसाब से तय होगी। केन्द्र शासित प्रदेश बनने के बाद कश्मीर में कई नई व्यवस्थाए लागू हुई हैं। उसी हिसाब से राजनीतिक दलों को अपनी रणनीति भी तय करनी होगी। पिछले दिनो ब्लाॅक व जिला विकास परिषदों के चुनाव शांतिपूर्वक हुए हैं। विधानसभा सीटों का परिसीमन हो गया है और हिंदू बहुल जम्मू क्षेत्र में सीटों की संख्या 37 से बढ़कर 43 और मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में सीटों की तादाद 46 से बढ़कर 47 हो गई है। विधानसभा में कुल सीटें अब 90 होंगी। पहली बार इनमें से 9 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए तथा 3 सीटें आप्रवासियों के लिए आरक्षित होंगी। इनमें दो सीटें कश्मीरी पंडितो और 1 सीट पीअोके से आने वाले कश्मीरियों के लिए होंगी। 24 सीटें पीअोके के लिए खाली रखी गई हैं। परिसीमन के बाद जम्मू क्षेत्र में 2 और कश्मीर घाटी में एक विधानसीट बढ़ी है। राज्य की लोकसभा सीटें भी 6 से घटकर 5 हो जाएंगी। माना जा रहा है कि विधानसभा चुनाव भी लोकसभा के साथ हो सकते हैं।
फिलहाल यहां के राजनेता असमंजस में हैं। वो कभी स्थानीय मुद्दे उठाते हैं तो कभी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा व एनडीए को हराने की बात करते हैं। हाल में कोकरनाग में हुए आतंकी हमले के बाद नेकां नेता फारूख अब्दुल्ला ने कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान से बात करने की पैरवी की, जिसका महबूबा मुफ्तीश ने भी समर्थन किया। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि पाकिस्तान में भी भारत सरकार बात करे तो किससे? वहां की अंतरिम सरकार से, जिसके पास कोई अधिकार नहीं है या पाक सेना से जिसका वजूद ही कश्मीर मुद्दे को जीवित रखने के कारण है और जो खुद आंतक को बढ़ावा दे रही है। और यह भी कि भारत ने जब जब पाक की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो उसका हश्र क्या हुआ?
राज्य में संविधान की धारा 370 व धारा 35 ए हटने के बाद गुस्से की लहर कश्मीर में चली थी, क्योंकि इसने कश्मीरियों की स्वायत्तता के सपने को तगड़ा झटका दिया था। बावजूद इस सचाई के कि भारत की आजादी के साथ ही पहली बार स्थानीय कश्मीरियों के हाथ में कश्मीर की सत्ता आई थी। तब कश्मीरियों के भारत में विलय की ऐवज में धारा 370 व धारा 35 ए की सुविधा दी थी। जिसका उद्देश्य कश्मीरियो की भावना और अस्मिता का सम्मान करना था।
लेकिन बाद में इसने अलगाववाद का रास्ता अख्तियार कर लिया। अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष स्वायत्तता मिली थी। इसके प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार था। लेकिन बाकी मामलों में केन्द्र के कानून राज्य सरकार की मंजूरी के बगैर लागू नहीं हो सकते थे। इसी तरह धारा 35 ए जम्मू-कश्मीर राज्य विधानमंडल को 'स्थायी निवासी' परिभाषित करने और उन नागरिकों को विशेषाधिकार प्रदान करने का अधिकार देती थी। इसे भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति से राष्ट्रपति के आदेश पर जोड़ा गया था। अनुच्छेद 35 ए से जम्मू-कश्मीर के लिए स्थायी नागरिकता के नियम और नागरिकों के अधिकार तय होते थे। 14 मई 1954 के पहले जो कश्मीर में बस गए थे, उन्हीं को स्थायी निवासी माना जाता था। जो जम्मू-कश्मीर का स्थायी निवासी नहीं था, राज्य में संपत्ति नहीं खरीद सकता था।
अब स्थिति बदल जाएगी।
जहां तक कश्मीर की स्वायत्तता का अर्थ अगर कश्मीर पर कश्मीरियों के शासन से है तो यह स्थिति 1339 में ही समाप्त हो गई थी। वहां आखिरी हिंदू राजवंश करकोटा था। लंबे समय तक राज करने के बाद यह राजवंश अंतर्कलह और कुशासन में डूब गया। कश्मीर का आखिरी हिंदू राजा सहदेव लोहारा था। इसी बीच पूर्वी एशिया से इस्लाम पश्चिम एशिया की तरफ बढ़ रहा था। 11 सदी में महमूद गजनवी ने भी कश्मीर को जीतने की नाकाम कोशिश की। हालांकि कश्मीर का पहला मुसलमान कोई कश्मीरी न होकर एक तिब्बती बौद्ध रिनचेन था, जिसने खुद को कश्मीर का शासक घोषित किया। कहते हैं कि रिनचेन के मुसलमान बनने के पीछे उसके एक मंत्री शाह मीर का हाथ था। शाह मीर स्वयं बहुत महत्वाकांक्षी था। उसने रिनचेन को हटाकर सत्ता हथिया ली। शाह मीर तुर्क था या मंगोल, इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं। शाह मीर वंश में प्रसिद्ध सुलतान जैनुल आबेदीन हुआ, जिसके दौर में कश्मीर में अमन चैन रहा और इसी दौर में तकरीबन पूरी घाटी इस्लाम में धर्मांतरित हो गई। जो बचे वो कश्मीरी पंडित कहलाए। इसके पहले बहुत से ब्राह्मणों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया था। ये धर्मांतरित ब्राह्मण आज भी अपने नाम के आगे भट या पंडित आदि लिखते हैं। मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल में 1540 में उसके सेनापति मिर्जा मोहम्मद कश्मीर पर हमला कर उसे जीत लिया। अकबर ने कश्मीर को अपने काबुल प्रांत में मिला दिया। बाद में बादशाह शाहजहां ने कश्मीर को अलग सूबा बनाया। मुगल सत्ता के कमजोर होने के बाद 1752 में अफगान आक्रांता अहमद शाह दुर्रानी ने कश्मीर पर हमला किया और उसे जीता। 1819 में सिख महाराजा रणजीतसिंह ने कश्मीर पर हमला कर अफगानों को पराजित किया और कश्मीर में सिखों का शासन शुरू हुआ। महाराजा रणजीतसिंह ने डोगरा राजा गुलाब सिंह को जम्मू का राजा नियुक्त किया। गुलाब सिंह ने गिलगित और बाल्तीस्तान को भी जीत लिया। महाराजा रणजीतसिंह के निधन के बाद सिख साम्राज्य बिखर गया और राजा गुलाबसिंह ने अंग्रेजों से संधि कर समूचे कश्मीर को साढ़े सात लाख रू. में खरीद लिया। इसके बाद कश्मीर पर डोगरा वंश का शासन रहा, जो 1947 तक रहा। अंतिम डोगरा शासक हरिसिंह ने अपनी विवादास्पद चालों के बाद भारत में विलय के दस्तावेज पर दस्तखत कर दिए। लेकिन इसके पहले कश्मीर में डोगरा शासन के खिलाफ आंदोलन शुरू हो चुका था। जिसके प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला थे। शेख पंडित नेहरू के भी चहेते थे। लेकिन हरिसिंह द्वारा कश्मीर के भारत विलय पत्र पर हस्ताक्षर में देरी के चलते नए बने पाकिस्तान के कबाइली हमलावरो ने कश्मीर पर हमला कर दिया। पाकिस्तान का तर्क था कि बंटवारे की शर्तों के मुताबिक चूंकि कश्मीर मुस्लिम बहुल है, इसलिए उसे पाकिस्तान में मिलना चाहिए। जबकि ज्यादातर कश्मीरी स्वतंत्र ही रहना चाहते थे। कश्मीर पर हमले के बाद वहां के राजा ने भारत से सैन्य मदद मांगी। भारतीय सेना ने कबाइलियों को श्रीनगर से काफी दूर तक खदेड़ा। वो पूरा कश्मीर खाली कराती इसके पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर नेहरू युद्धविराम घोषित कर मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए। जो हिस्सा कबाइलियों के कब्जे में रहा वो पीअोके हो गया और जो बाकी गिलगित बाल्तीस्तान वाला हिस्सा अब सीधे पाक सेना के अधीन है। पाकिस्तान कश्मीर में जनमतसंग्रह की मांग करने लगा। भारत का मानना रहा है कि कश्मीर का भारत में विलय अंतिम है। 1962 में चीन ने हमला कर हमारे लद्दाख के बड़े हिस्से अक्साई चिन पर कब्जा कर लिया। इस तरह पूर्व महाराजा हरिसिंह की कश्मीर रियासत के अब चार हिस्से हो चुके हैं, जो तीन देशों के कब्जे में हैं। जबकि यह सब हिस्से भारत के ही हैं। (समाप्त)
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