धूमावती : सातवीं महाविद्या धूमावती को पार्वती का ही स्वरूप माना गया है। एक बार देवी पार्वती भगवान शिव के साथ कैलाश पर विराजमान थीं। उन्हें अकस्मात् बहुत भूख लगी और उन्होंने वृषभ-ध्वज पशुपति से कुछ खाने की इच्छा प्रकट की। शिव के द्वारा खाद्य पदार्थ प्रस्तुत करने में विलम्ब होने के कारण क्षुधा पीड़िता पार्वती ने क्रोध से भर कर भगवान शिव को ही निगल लिया। ऐसा करने के फलस्वरूप पार्वती के शरीर से धूम-राशि निस्सृत होने लगी जिस पर भगवान शिव ने अपनी माया द्वारा देवी पार्वती से कहा, धूम्र से व्याप्त शरीर के कारण तुम्हारा एक नाम धूमावती पड़ेगा। एक अन्य कथा के अनुसार महाप्रलय के समय जब सब कुछ नष्ट हो जाता है, स्वयं महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं, मां धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं और काल तथा अंतरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं। उस समय न तो धरती, न ही सूरज, चांद , सितारे रहते हैं। रहता है सिर्फ धुआं और राख- वही चरम ज्ञान है, निराकार- न अच्छा. न बुरा; न शुद्ध, न अशुद्ध; न शुभ, न अशुभ- धुएँ के रूप में अकेली माँ धूमावती. वे अकेली रह जाती हैं, सभी उनका साथ छोड़ जाते हैं. इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले लोग उन्हें अशुभ घोषित करते हैं.
बगलामुखी👉 बगलामुखी, दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'बगला' तथा दूसरा 'मुखी'। बगला से अभिप्राय हैं 'विरूपण का कारण' और वक या वगुला पक्षी, जिस की क्षमता एक जगह पर अचल खड़े हो शिकार करना है, मुखी से तात्पर्य हैं मुख। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध अलौकिक, पारलौकिक जादुई शक्तिओ से भी हैं, जिसे इंद्रजाल काहा जाता हैं। देवी बगलामुखी, समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय द्वीप में अमूल्य रत्नो से सुसज्जित सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी त्रिनेत्रा हैं, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती है, पीले शारीरिक वर्ण की है, देवी ने पिला वस्त्र तथा पीले फूलो की माला धारण की हुई है, देवी के अन्य आभूषण भी पीले रंग के ही हैं तथा अमूल्य रत्नो से जड़ित हैं। स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, सत्य युग में इस चराचर संपूर्ण जगत को नष्ट करने वाला भयानक वातक्षोम (तूफान, घोर अंधी) आया। समस्त प्राणिओ तथा स्थूल वस्तुओं के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा था तथा सब काल का ग्रास बनने जा रहे थे। संपूर्ण जगत पर संकट को ए हुआ देख, जगत के पालन कर्ता भगवान विष्णु अत्यंत चिंतित हो गए। तदनंतर, भगवान विष्णु सौराष्ट्र प्रान्त में गए तथा हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर, अपनी सहायतार्थ देवी श्री विद्या महा त्रिपुर सुंदरी को प्रसन्न करने हेतु तप करने लगे। उस समय देवी श्री विद्या, सौराष्ट्र के एक हरिद्रा सरोवर में वास करती थी। भगवान विष्णु के तप से संतुष्ट हो देवी आद्या शक्ति, बगलामुखी स्वरूप में, भगवान विष्णु के सन्मुख अवतरित हुई तथा उनसे तप करने का कारण ज्ञात किया। तुरंत ही अपनी शक्तिओ का प्रयोग कर, देवी बगलामुखी ने विनाशकारी तूफान को शांत किया तथा इस सम्पूर्ण चराचर जगत की रक्षा की। भारत में मां बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने गए हैं जो क्रमश: दतिया (मध्यप्रदेश), कांगड़ा (हिमाचल) तथा नलखेड़ा जिला शाजापुर (मध्यप्रदेश) में हैं। तीनों का अपना अलग-अलग महत्व है।
देवी मातंगी : दस महाविद्याओं में नौवीं देवी मातंगी हैं। हनुमानजी के गुरु मातंग मुनि थे जो मातंग समाज से संबंध रखते थे। देवी का सम्बन्ध प्रकृति, पशु, पक्षियों, जंगलों, वनों, शिकार इत्यादि से हैं तथा जंगल में वास करने वाले आदिवासियों, जनजातियों कि देवी पूजिता हैं। देवी मातंग मुनि के पुत्री के रूप से भी जानी जाती हैं। एक बार मातंग मुनि ने, सभी जीवों को वश में करने हेतु, नाना प्रकार के वृक्षों से परिपूर्ण वन में देवी श्रीविद्या त्रिपुरा की आराधना की। मातंग मुनि के कठिन साधना से संतुष्ट हो देवी त्रिपुर सुंदरी ने अपने नेत्रों से एक श्याम वर्ण की सुन्दर कन्या का रूप धारण किया। इन्हें राज मातंगी कहा गया तथा ये भी देवी मातंगी का ही एक स्वरूप हैं। तभी देवी मतंग कन्या के नाम से भी जानी जाती हैं। देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के उच्छिष्ट भोजन से हुई थी। इसीलिए देवी का एक अन्य विख्यात नाम उच्छिष्ट चांडालिनी भी हैं तथा देवी का सम्बन्ध नाना प्रकार के तंत्र क्रियाओं से हैं। शक्ति संगम तंत्र के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु और उनकी पत्नी लक्ष्मी जी, भगवान शिव तथा सती से मिलने हेतु कैलाश पर्वत गये, पर जहां शिव तथा सती जी का निवास स्थान है। भगवान विष्णु, अपने साथ खाने की कुछ सामग्री अपने साथ ले गए तथा शिव जी को भेट की। शिव तथा सतीजी ने, उपहार स्वरूप प्राप्त हुए वस्तुओं को खाया, भोजन करते हुए खाने का कुछ भाग नीचे धरती पर गिरा। परिणामस्वरूप, उन गिरे हुए भोजन के भागों से एक श्याम वर्ण वाली दासी ने जन्म लिया, जो मातंगी नाम से विख्यात हुई। देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा की गई थी, तभी भगवान विष्णु सुखी, सम्पन्न, श्रीयुक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। देवी की अराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, किन्तु बौद्ध धर्म के प्रारंभ में देवी का कोई अस्तित्व नहीं था। कालांतर में देवी बौद्ध धर्मं में मातागिरी नाम से जनि जाने लगी। नारदपंचरात्र के अनुसार, कैलाशपति भगवान शिव को चांडाल तथा देवी शिवा को ही उछिष्ट चांडालिनी कहा गया हैं। देवी मातंगी चौसठ प्रकार के ललित कलाओं से संबंधित विद्याओं से निपुण हैं तथा तोता पक्षी इनके बहुत निकट हैं।
देवी कमला : श्रीमद भागवत के आठवें स्कन्द में देवी कमला की उत्पत्ति कथा है। दस महाविद्याओं में अंतिम देवी कमला तांत्रिक लक्ष्मी के नाम से भी जानी जाती हैं। देवी कमला, जगत पालन कर्ता भगवान विष्णु की पत्नी हैं। देवताओं तथा दानवों ने मिलकर, अधिक संपन्न होने हेतु समुद्र का मंथन किया, समुद्र मंथन से 18 रत्न प्राप्त हुए, जिनमें देवी लक्ष्मी भी थी, जिन्हें भगवान विष्णु को प्रदान किया गया तथा उन्होंने देवी का पानिग्रहण किया। देवी का घनिष्ठ संबंध देवराज इन्द्र तथा कुबेर से हैं, इन्द्र देवताओं तथा स्वर्ग के राजा हैं तथा कुबेर देवताओं के खजाने के रक्षक के पद पर आसीन हैं। देवी लक्ष्मी ही इंद्र तथा कुबेर को इस प्रकार का वैभव, राजसी सत्ता प्रदान करती हैं। उल्लेखनीय है कि श्रीविष्णु ने भृगु की पुत्रीं लक्ष्मी से विवाह किया था। दीवावली के दिन देवी काली और कमला की पूजा की जाती है। शैव लोग काली की और वैष्णव लोग कमला की पूजा करते हैं। कमला को ही महालक्ष्मी कहा गया है। प्रवृति के अनुसार दस महाविद्या के तीन समूह हैं। पहला:- सौम्य कोटि (त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी, कमला), दूसरा:- उग्र कोटि (काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी), तीसरा:- सौम्य-उग्र कोटि (तारा और त्रिपुर भैरवी)। .. देवी दुर्गा : सामान्यतः देवी दुर्गा दो रूपों में जानी जाती हैं, एक में वे दस भुजा वाली तथा दूसरे में अष्ट भुजा रूप में हैं। देवी का वाहन सिंह या बाघ हैं तथा असुर या दैत्य का वध कर रही हैं। हिरण्याक्ष के वंश में उत्पन्न एक महा शक्तिशाली दैत्य हुआ, जो रुरु का पुत्र था जिसका नाम दुर्गमासुर था। इसने शक्तिशाली होने तथा देवताओं को पराजित करने के लिए ब्रह्माजी की गठिन तपस्या की फलस्वरूप त्रिलोक में सभी संतप्त होने लगे। उसने समस्त मंत्र और वेदों को भी ब्रह्माजी से मांग लिया। वर प्रदान करने के कारण ऋषियों और देवताओं के समस्त वेद तथा मंत्र लुप्त हो गए तथा स्नान, होम, पूजा, संध्या, जप इत्यादि का लोप हो गया। इस प्रकार जगत में एक अत्यंत ही घोर अनर्थ उत्पन्न हो गया तथा हविभाग न मिले के परिणामस्वरूप देवता जरा ग्रस्त हो, निर्बल हो गए। देवताओं की यह दशा देखकर दुर्गमासुर दैत्य ने इंद्र की अमरावती पुरी को घेर लिया। देवता शक्ति से हीन हो गए थे, फलस्वरूप उन्होंने स्वर्ग से भाग जाना ही श्रेष्ठ समझा। भागकर वे पर्वतों की कंदरा और गुफाओं में जाकर छिप गए और सहायता हेतु आदि शक्ति अम्बिका की आराधना करने लगे। हवन-होम आदि न होने के परिणामस्वरूप, जगत में वर्षा का अभाव हो गया तथा वर्षा के अभाव में भूमि शुष्क तथा जल विहीन हो गया और ऐसे स्थिति सौ वर्षों तक बनी रही। बहुत से जीव जल के बिना मारे गए, घर घर में शव का ढेर लगने लगा। इस प्रकार अनर्थ की स्थिति को देख, जीवित मानुष, देवता इत्यादि हिमालय में जा कर ध्यान, पूजा तथा समाधी के द्वारा आदि शक्ति जगदम्बा की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करने लगे। इस प्रकार बारंबार स्तुति करने पर, समस्त भुवन पर शासन करने वाली भुवनेश्वरी, नील कमल के समान अनंत नेत्रों से युक्त स्वरूप में प्रकट हुई। काजल के समान देह, नील कमल के समान विशाल नेत्रों से युक्त देवी अपने हाथों में मुट्ठी भर बाण, विशाल धनुष, कमल पुष्प, पुष्प-पल्लव, जड़ तथा फल, बुढ़ापे को दूर करने वाली शाक आदि धारण की हुई थी। दिव्य तथा प्रकाशमान, अत्यंत नेत्रों के साथ वे जगद्धात्री, भुवनेश्वरी, समस्त लोको में, अपने सहस्त्रों नेत्रों से जलधाराएं गिराने लगी तथा नौ रातों तक घोर वर्षा होती रही। फलस्वरूप समस्त प्राणी तथा वनस्पतियां तृप्त हुई, समस्त नदियां तथा समुद्र जल से भर गई। इस अवतार में देवी शताक्षी नाम से जानी जाने लगी। देवी शताक्षी ने सभी को खाने के लिए शाक तथा फल-मूल प्रदान किए, साथ ही नाना प्रकार के अन्न तथा पशुओं के खाने योग्य पदार्थ भी। उसी काल से उनका एक नाम शाकम्भरी भी हुआ। एक दूत ने दुर्गमासुर यह सभी गाथा बताई और देवताओं की रक्षक के अवतार लेने की बात कहीं। तक्षण ही दुर्गमासुर क्रोधित होकर अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र और अपनी सेना को साथ ले युद्ध के लिए चल पड़ा। दैत्यराज दुर्गमासुर ने देवता और मनुष्यों आदि पर प्रहार किया परिणामस्वरूप देवी ने चारो ओर तेजोमय चक्र बना दिया तथा स्वयं बहार आ खड़ी हुई। दुर्गम दैत्य तथा देवी के मध्य घोर युद्ध छिङ गया, तदनंतर देवी के शारीर से उनकी उग्र शक्तियां, देवी की सहायता हेतु प्रकट हुई। काली, तारिणी या तारा, बाला, त्रिपुरा, भैरवी, रमा, बगला, मातंगी, कामाक्षी, तुलजादेवी, जम्भिनी, मोहिनी, छिन्नमस्ता, गुह्यकाली, त्रिपुरसुन्दरी तथा स्वयं दस हजार हाथों वाली, प्रथम ये सोलह, तदनंतर बत्तीस, पुनः चौंसठ और फिर अनंत देवियाँ हाथों में अस्त्र शस्त्र धारण किये हुए प्रकट हुई। दस दिन में दैत्यराज की सभी सेनाएं नष्ट हो गई तथा ग्यारहवे दिन देवी तथा दुर्गमासुर में भीषण युद्ध होने लगा। देवी के बाणों के प्रहार से आहात हो, दुर्गमासुर रुधिर का वामन करते हुए, देवी के सन्मुख मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा उसके शरीर से तेज निकल कर देवी के शरीर में प्रविष्ट हुआ। इसके पश्चात् ब्रह्मा आदि सभी देवता, भगवान् शिव तथा विष्णु को आगे कर, भक्ति भाव से देवी की स्तुति करने लगे। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अन्य देवताओ के स्तुति करने तथा विविध द्रव्यों से पूजन करने पर देवी संतुष्ट हो गई तथा दुर्गा नाम से जानी जाने लगी। देवता द्वारा किये हुए स्तवन में, देवी दुर्गा को तीनो लोकों की रक्षा करने वाली, मोक्ष प्रदान करने वाली, उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार करने वाली कहा गया हैं। यह यह आदि शक्ति अम्बिका की शक्ति है।