अब यह साफ होता जा रहा है कि देश में अठारहवीं लोकसभा का चुनाव मुख्यश रूप से रेवड़ी, रियायत और जातिवाद के मुद्दों पर लड़ा जाएगा। विपक्षी इंडिया और सत्तारूढ़ एनडीए की चुनावी जमावट और रणनीतियां इसी अोर इशारा कर रही हैं। इसमें कुछ धार्मिक तड़का भी होगा, लेकिन वैसा नहीं होगा, जैसा कि पिछले कुछ लोकसभा चुनावों में दिखाई पड़ा है। क्योंकि बहुसंख्यक हिंदुअों को लामबंद करने वाला राम मंदिर मुद्दा अपने चरम तक पहुंच चुका है। दूसरे, बीते एक दशक में जनता की अपेक्षाएं सामाजिक आर्थिक स्तर पर और बढ़ी हैं, बहुआयामी हुई हैं। एक तीसरा लेकिन सीमित मुद्दा बेरोजगारी, महंगाई और देश में बढ़ती नफरत तथा देश टूटने की आशंकाअों का भी है, लेकिन वो बहुत कारगर साबित होगा, ऐसा नहीं लगता।
इस बार चाहे विधानसभा चुनाव हों या फिर आगामी लोकसभा चुनाव हो, राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए एक दूसरे के मुद्दे हाईजैक करने से नहीं कतरा रही हैं। मुद्दों की यह छीना झपटी रेवड़ी, रियायत और जातिवाद के मुद्दों पर ज्यादा केन्द्रित है और पूरी बेशरमी के साथ है। इसके पीछे सोच यही है कि चुनाव और युद्ध में जीत ही सफलता का एकमात्र मापदंड है। यही साध्य है और इसे पाने के लिए कोई सा साधन अपनाना अनैतिक नहीं है। बात रेवड़ी कल्चर से ही शुरू की जाए। भारतीय राजनीति में चुनाव से पहले मतदाताअों को रिझाने के लिए जनकल्याण के वादे और प्रलोभन नई बात नहीं है, लेकिन आम आदमी पार्टी ने पहली बार इस संस्कृति को संस्थागत रूप दिया। उसने चुनाव से पहले मुफ्तोखोरी की ठोस घोषणाएं कीं और सत्ता प्राप्ति के बाद उसे काफी हद तक क्रियान्वित भी किया। पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने अपने भाषणों में यह सिद्ध करने की पूरी कोशिश की िक वो जो लोगों को मुफ्तव में जो दे रहे हैं, वह भ्रष्टाचार पर अंकुश से होने वाली बचत है। (यह अलग बात है कि खुद उनकी पार्टी के कुछ नेता भी करप्शन के आरोप में फंसे हैं)। इस रणनीति का असर यह हुआ कि मतदाता की डाढ़ में खून लग गया। माना गया कि सत्ता बदलने से उसे मिलने वाला सीधा और भौतिक लाभ यही है कि चीजें मुफ्ती में मिलने लगें जिससे उस पर घर चलाने के लिए पड़ने वाला आर्थिक दबाव थोड़ा तो कम हो। ‘आप’ की दिल्ली और पंजाब विधानसभा चुनावों में सफलता इसी का परिचायक है।
अमूमन धार्मिक ध्रुवीकरण और विकास की राजनीति करती आई भाजपा के सामने यह नई चुनौती थी, जो आर्थिकी के ध्वस्त होने के खतरे के साथ सामने खड़ी थी। लेकिन भविष्य में अर्थ व्यवस्था के गड़बड़ाने के खतरों से बेफिकर मतदाता इस रणनीति की तरफ आकतर्षित हो रहा था। लिहाजा पहले तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘आप’ के मुफ्त्खोरी के दांव को ‘रेवड़ी कल्चर’ कह कर उसका उपहास करने की कोशिश की, लेकिन जल्द ही उन्हें और उनकी पार्टी को समझ आ गया कि हवाई दावों से ज्यादा जनता के लिए जीना आसान करने ठोस उपाय मह्त्वपूर्ण हैं। आश्चर्य नहीं कि आने वाले सालों में भारत ‘रेवड़ी कल्चर’ के मामले में विश्व गुरू साबित हो। लेकिन तब सवाल यह उठेगा कि क्या रेवड़ी कल्चर और विश्व की तीसरी बड़ी अर्थ व्यवस्था बनने का सपना साथ साथ चल सकेगा?
दूसरा बड़ा मुद्दा रियायतों का है। यानी जनता को दूध न सही छाछ तो मिले। कुछ राज्य सरकारों, जिनमें मध्य प्रदेश की िशवराज सरकार भी शामिल है, ने मतदाताअो को रियायती सिलेंडर देने का ऐलान पहले ही कर दिया था। लेकिन मोदी सरकार ने इसे 200 रू. प्रति सिलेंडर की राहत देकर राष्ट्रीय स्तर पर लागू कर िदया। इसमें प्रधानमंत्री की उज्वला योजना के तहत दिए जाने वाले गैस सिलेंडरों पर यह राहत 400 रू. की होगी। सरकारें और राजनीतिक पार्टियां यह मानकर चलती है कि उनके द्वारा दी गई मुफ्ता की और रियायती चीजें ही वोटर को उनके पक्ष में वोट करने के लिए विवश करेंगी भले ही यह प्रलोभन चुनावी सीजन तक के लिए ही क्यों न हो। जब से सरकार ने ऊर्जा संसाधनों पर दी जाने वाली सबसिडी का बोझ आम आदमी पर डालना शुरू किया है, तब से लोगों का बजट बिगड़ गया है। लोग भी इस रियायत को उत्सवी प्रसादी की तरह लेते हैं कि चलो कुछ तो राहत मिली, लेकिन इसमें निहित सियासी पार्टियों की सत्ता की मन्नत पूरी हो जाती है। रियायतों के इस नगाड़े की शुरूआत गैस सिलेंडर से हुई है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव करीब आता जाएगा, हमे पेट्रोल-डीजल और अन्य जीवनावश्यक चीजों पर और रियायतों की झड़ी देखने को मिल सकती है।
तीसरा और बड़ा गेमचेंजर मुद्दा जातिगणना का है। यह मु्ख्य रूप से पिछड़ा वर्ग (अोबीसी) के तहत आने वाली जातियों से सम्बन्धित है और इससे मिलने वाले आंकड़े सीधे तौर पर आरक्षण व्यवस्था को प्रभावित करेंगे। इस देश में अोबीसी की सही सही संख्यात कितनी है, यह अभी भी बहस का विषय है। क्योंकि पिछली जनगणनाअों में अोबीसी की गिनती अलग से नहीं की गई थी। भाजपा और आरएसएस ने बीते तीन दशकों से विभिन्न जातियों में हिंदू एकता का जो नरेटिव बनाया है, उसकी विपक्षी दलो के पास एक ही काट है कि हिंदू समाज को जाति विभाजन के मुद्दे पर लौटाया जाए। इसकी शुरूआत बिहार से जाति सर्वे के रूप में हो चुकी है। कहने को यह ‘सर्वे’ है, लेकिन वास्तव में जातिगणना ही है। इसका मूल मकसद आरक्षण की राजनीति को फिर से केन्द्र में लाना है, जिसे धार्मिक ध्रुवीकरण ने पीछे ठेल दिया था। अगर अोबीसी की संख्या कुल हिंदू समाज की पचास फीसदी या उससे अधिक पाई गई तो देश में नौकरी व शिक्षण संस्थाअोंमें अोबीसी के लिए आरक्षण की सीमा 27 फीसदी से ज्यादा करने तथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए अधिकतम 50 फीसदी आरक्षण के फैसले को पलटवाने की रणनीति पर काम होगा। जिससे अगड़ी जातियों की राजनीतिक, सामाजिक हिस्सेदारी और कम होगी। जातीय हितों का संघर्ष और तेज होगा। हालांकि बीते तीन दशको में अोबीसी जातियों के संदर्भ में दो उल्लेखनीय पैटर्न देखने में आए हैं। पहला तो यह कि अोबीसी अब हिंदुत्व की सबसे बड़ी झंडाबरदार हैं और दूसरा ये कि अोबीसी में भी कम पिछड़े, अति पिछड़े का ध्रुवीकरण तेजी से हो रहा है। जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट बता ही चुकी है कि पिछड़ों में चंद जातियों ने आरक्षण का सर्वाधिक लाभ उठाया है। इसका एक अर्थ यह है कि ये चुनिंदा जातियां सामाजिक़, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से वो अगड़ी जातियों के समकक्ष आ गई हैं। ऐसे में भविष्य में इन जातियों को आरक्षण के दायरे से बाहर करने की मांग भी उठ सकती है। इस बीच भाजपा और आरएसएस ने विभिन्न राज्यों में अति पिछड़ी जातियों को नए सिरे से गोलबंद किया है। सत्ता संघर्ष में इनमें से ज्यादातर भाजपा के साथ खड़ी होंगी। यानी कि जाति संघर्ष का तीसरा दौर शुरू होगा। कुछ ऐसी ही स्थिति दलितों में भी बन रही है। जहां आरक्षण के बावजूद हाशिए पर रही जातियां नए सिरे अपने अधिकारों को लेकर लामबंद हो रही हैं।
इस दृष्टि से कांग्रेस के पास कोई ठोस रणनीति नहीं है। कभी वह जातिगणना के साथ है तो कहीं देश जोड़ने की बात करती है। कभी वह आम आदमी के मुद्दे उठाती है तो कभी खुद को असली हिंदू बताने लगती है। हालांकि राहुल गांधी जो संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं, वो सौजन्य, संवाद और निरअंहकारिता का है। लेकिन चुनाव में इन मुद्दों की भूमिका सीमित है। वैसे विपक्षी पार्टियों को लगता है कि देश में जातिगणना की मांग उठाकर वो भाजपा के हिंदुत्व के अस्त्र की धार को भोंथरा कर सकती हैं। भाजपा भी इस मुद्दे की नजाकत को समझ रही है। यही कारण है िक जातिगणना पर एकाधिकार का अपना स्टैंड केन्द्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट में बदलना पड़ा। मोदी सरकार के दूसरे हलफनामे में कहा गया कि ‘अनजाने’ में पहले हलफनामे में लिखा गया कि जातिगणना केन्द्र सरकार का अधिकार है। यानी राज्य भी ऐसा कर सकते हैं। बिहार के बाद अब दूसरे गैर भाजपाशासित राज्यों में भी चुनावी वादे के रूप में यह मुद्दा उठ रहा है। आश्चर्य नहीं कि लोकसभा चुनाव के पहले खुद प्रधानमंत्री ही पूरे देश में जातिगणना का ऐलान कर दें। अगर ऐसा हुआ तो विपक्ष के हाथ से एक मुद्दा और निकल जाएगा। अभी तक के घटनाक्रम से एक बात साफ है कि भाजपा को दूसरो के मुद्दे हाई जैक करने में कोई संकोच नहीं है। अगर मध्यप्रदेश में िवधानसभा चुनावो की ही बात करें तो कांग्रेस ने पहले 5 गारंटियों से चुनाव अभियान की शुरूआत की थी। उनमें ज्यादातर को कमोबेश भाजपा ने अपनी घोषणाअो और फैसलों में शामिल कर लिया है। अब फर्क केवल वादे और उस पर अमल का रह गया है। कांग्रेस अब 11 वचनों की बात कर रही है तो सत्तारूढ़ शिवराज सरकार ने घोषणाअोंपर अमल शुरू कर घर घर तक रेवड़ी बांटना शुरू भी कर िदया है। पार्टी का मानना है िक पैसा मिलने का वादा और हाथ में पैसा आने में जमीन आसमान का फर्क है। लोग किस पर ज्यादा भरोसा करेंगे, देने के वादे पर या देने वाले पर?
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