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झारखंड कभी जीत क्यों नहीं सके लालू-नीतीश:हाथ–पांव खूब मारे, फिर भी बढ़ने के बजाए नीचे क्यों आए

Updated on 19-11-2024 12:43 PM

‘डेमोग्राफी चेंज की बात करते हैं। इन्हें रांची से शुरू करना चाहिए। रांची में जो डेमोग्राफी बदली है, और यहां के मूलनिवासी–आदिवासी… कालीन में जैसे गंदगी को समेटा जाता है, धूल को कालीन के नीचे ढक दिया जाता है, उस तरह से इन लोगों ने यहां के आदिवासी–मूलनिवासी को कहीं कोना, खोमचा, झुग्गियों में ढकेल के रख दिया है। यहां डेमोग्राफी चेंज की बात क्यों नहीं करते। रामगढ़ में आज मुखिया कौन बनता है, बिहारी लोग बनते हैं, बिहार से आते हैं। ये सब चीजें इन्हें नहीं दिखतीं। इसके बारे में बात करनी चाहिए। इसके बाद हम संथाल के बारे में भी बात करेंगे। झारखंड की डेमोग्राफी पूरी तब बदली है, जब ये लोग सबसे ज्यादा समय सत्ता में थे। ’

इसी साल जुलाई महीने में कांग्रेस विधायक शिल्पी तिर्की के इस बयान के बाद हंगामा मच गया। कांग्रेस पार्टी ने खुद को उनके बयान से अलग कर लिया। खैर, शिल्पी के बयान से आगे बढ़ते हैं और यह समझने की कोशिश करते हैं कि 15 नवंबर 2000 में बिहार के 18 जिलों से अलग होकर देश का 28वां राज्य बना झारखंड क्या वाकई में अब तक बिहार की छाया में है, या कभी बिहार की छाया में रहा ही नहीं!

ऐसा माना जाता है कि, बिहार-झारखंड सिर्फ बॉर्डर ही साझा नहीं करते। बल्कि एक दूसरे से भाषाएं, लोग और राजनेता भी साझा करते हैं। क्योंकि झारखंड के बिहार से सटे कुछ जिलों जैसे पलामू, गढ़वा, चतरा में मगही, भोजपुरी, अंगिका बोली जाती है… क्योंकि झारखंड के कुछ जिलों में बिहार की तरह यादव (करीब 14 फीसदी) रहते हैं…क्योंकि जब झारखंड बन रहा था तब लालू वहां के पहले CM को बनाने के लिए जोड़तोड़ कर रहे थे…क्योंकि दोनों राज्यों में ओबीसी पॉपुलेशन 50 फीसदी से ज्यादा है…

जो बिहार से गए वो तो झारखंडी हो गए

2011 की जनगणना बताती है कि, बिहार के 14 फीसदी से ज्यादा लोग झारखंड में बस गए। रांची के सीनियर जर्नलिस्ट आनंद कुमार कहते हैं, ‘2009 के बाद यहां बिहार की क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व लगभग खत्म हो गया। अब झारखंड की अस्मिता का भाव प्रबल है। बाहरी लोगों को मूलनिवासी पसंद नहीं कर रहे। अब जो पचास साल से यहीं रह रहे हैं, जिनके सामने झारखंड बना है, वो तो बिहारी कहलाएंगे नहीं। वो तो झारखंडी ही हो गए।’

झारखंड में खनिज संपदा है। बड़े पैमाने पर वहां फैक्ट्रियां लगीं। पहले के वक्त में आदिवासी नौकरी करने के बजाए खेती–बाड़ी ज्यादा करते थे। इसलिए मजदूरों की किल्लत थे। ऐसे में बिहार और कई दूसरे राज्यों के तमाम लोग नौकरी के लिए झारखंड पहुंचे, फिर वहीं बस गए।

बिहार की राजनीतिक पार्टियों को झारखंड ने कभी स्वीकार नहीं किया

बिहार की राजनीतिक पार्टियां इसी इक्वेशन का फायदा लेना चाहती हैं। पार्टियों अपना दायरा बढ़ाना चाहती हैं, लेकिन झारखंड ने बिहार की पार्टियों को कभी भी स्वीकार नहीं किया।

इन पार्टियों का झारखंड में कितना प्रभाव है, उसे आंकड़ों से भी समझा जा सकता है। 2005 में नीतीश कुमार की जदयू 18 सीटों पर चुनाव लड़ी और 6 सीटें जीती। 4 फीसदी वोट मिले। इसी तरह लालू यादव की आरजेडी 48 सीटों पर चुनाव लड़ी और 5 सीटें जीती। 8 फीसदी वोट मिले।

2009 में जदयू 14 सीटों पर चुनाव लड़कर 2 सीटें ही जीत पाई। 2.8 फीसदी वोट मिले। आरजेडी 55 सीटों पर लड़कर 5 सीटें जीत पाई और 5.1 फीसदी वोट मिले। 2014 में जदयू 4 सीटों पर लड़ी। एक भी सीट नहीं जीती। 0.8 फीसदी वोट मिले। वहीं राजद 15 सीटों पर चुनाव लड़ी। एक भी सीट नहीं जीती। 2.9% फीसदी वोट मिले। 2019 में जदयू 45 सीटों पर लड़ी। एक भी सीट नहीं जीती। 0.7 फीसदी वोट मिले। राजद 7 सीटों पर लड़ी। एक सीट जीती। 6.6 फीसदी चोट मिले।

इस बार भी जदयू ने जिन सरयू राय को जमशेदपुर से टिकट दिया है, उनका व्यक्तिगत प्रभाव अपने क्षेत्र में पार्टी से बड़ा है। इसी तरह दूसरा टिकट राजा पीटर को दिया गया है। इन्होंने 2009 में शिबू सोरेन को सीएम रहते हुए उपचुनाव में मात दे दी थी। ऐसे में ये दोनों नेता चुनाव जीतते हैं तो इसमें पार्टी की भूमिका कम और इनकी भूमिका ज्यादा रहेगी। हारेंगे, तब भी यही रहेगा। कुछ ऐसा ही हाल आरजेडी का भी है।

बिहार-झारखंड कभी एक नहीं थे: सीनियर जर्नलिस्ट

पटना के सीनियर जर्नलिस्ट अमरनाथ कहते हैं, ‘बिहार और झारखंड कभी एक थे ही नहीं। तभी तो नया राज्य बना। झारखंड बिहार से काफी आगे नजर आता है। बिहार की क्षेत्रीय पार्टियां खुद के एक्सपेंशन के लिए झारखंड में हाथ–पांव मारती रहती हैं, लेकिन कुछ बड़ा कर नहीं पातीं। जेडीयू दो से तीन, आरजेडी पांच से छ सीटों पर फाइट दे देती है या जीत जाती है, बस इतना ही है।’

सीनियर जर्नलिस्ट आगे कहते हैं कि बिहार की पार्टियों का बिहार के अलावा कहीं बेस नजर नहीं आता। न यूपी, न झारखंड। ये लोग लड़ने तो मणिपुर तक जाते हैं, लेकिन कहीं कोई बेस नहीं है।’

झारखंड की युवा आबादी अब जाति की राजनीति से आगे आकर रोजगार-विकास की राजनीति पसंद कर रही है। बीते लोकसभा चुनाव में ही राम मंदिर और सीएए जैसे मुद्दों का असर कम और क्षेत्रीय मुद्दों का असर ज्यादा दिखा। झारखंड अस्मिता तो झारखंड के लोगों के लिए सबसे पहले है ही। और होना भी चाहिए।



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