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दुनिया ने ठुकराया, तो जामनगर के महाराज ने अपनाया:​​​​​दूसरे विश्वयुद्ध में भारतीय राजा कैसे बने पोलिश बच्चों के ‘बापू’

Updated on 22-08-2024 01:35 PM

तारीख: 1 सितंबर 1939, यह वो दिन था जब पोलैंड की धरती से इतिहास के सबसे भयानक युद्ध की शुरुआत हुई। इस दिन हिटलर की नाजी सेना ने पोलैंड पर हमला कर दिया था। ठीक 16 दिन बाद सोवियत संघ के तानाशाह स्टालिन ने दूसरे छोर से अटैक किया और पोलैंड को 2 हिस्सों में बांट दिया।

हिटलर और स्टालिन के संयुक्त हमले ने पोलैंड को तबाह कर दिया। हजारों बच्चे माता-पिता से अलग हो गए। वेल्स के इतिहासकार नॉरमन डेवीज अपनी किताब हार्ट ऑफ यूरोप में बताते हैं कि पोलैंड से 20 लाख लोगों को ट्रेनों में भरकर यूनाइटेड स्टेट ऑफ सोवियत रूस (USSR) के आर्कटिक रूस, साइबेरिया और कजाकिस्तान भेज दिया गया। इनमें पोलैंड के सैनिकों के अनाथ बच्चे भी शामिल थे।

गिरफ्तार किए गए लोगों में ज्यादातर यहूदी थे। इन्हें साइबेरिया के लेबर कैंप्स में रखा गया, जिन्हें गूलग कहा जाता है। यहां कैदियों को खाने में ब्रेड का महज एक टुकड़ा मिलता था, जिसके भरोसे इन्होंने कई दिन गुजार दिए। 1939-40 तक चले इस निर्वासन के दौरान करीब 10 लाख लोगों की मौत हो गई।

यहां तक की कहानी सब जानते हैं, लेकिन कम ही लोगों को पता होगा कि साइबेरिया के गूलग से 1460 किलोमीटर दूर भारत में इन बंधकों को नया घर मिला था। इन लोगों ने भारत तक का रास्ता कैसे तय किया? कैसे गुजरात के एक राजा अनाथ बच्चों के लिए उनका परिवार बन गए। इस स्टोरी में जानेंगे कि दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारत और पोलैंड के लोग कैसे करीब आए…

हिटलर ने स्टालिन से समझौता तोड़ा, सोवियत संघ पर हमला किया
22 जुलाई 1941 को हिटलर ने स्टालिन से किया वादा तोड़कर सोवियत संघ यानी USSR पर हमला कर दिया और इसी के साथ गूलग के कैदियों के लिए नई उम्मीद जागी। USSR ने नाजी जर्मनी के खिलाफ बनी एलाइड फोर्स से हाथ मिला लिया। नए समझौते के तहत स्टालिन पोलिश सेना के गठन के लिए तैयार हुए और गिरफ्तार किए लोगों को छोड़ दिया गया।

सोवियत संघ की कैद से आजाद होकर पोलैंड के हजारों नागरिक मध्य एशिया की तरफ बढ़े। मार्च और अगस्त 1942 में 38 हजार शरणार्थी ईरान पहुंचे। इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। इन्हें तेहरान, इस्फहान और अहवाज जैसे शहरों में खास कैंप्स में रखा गया। इस बीच इन बच्चों के लिए स्थायी ठिकाने की तलाश शुरू हुई।

जहां एक तरफ यूरोप और खासकर जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार हो रहा था, वहीं दूसरी तरफ भारत में मौजूद ब्रिटिश हुकूमत यहूदी शरणार्थियों को पनाह देने के लिए तैयार नहीं थी। उन्होंने शरणार्थियों के लिए खास शिविरों और शैक्षिक सुविधाओं की जरूरत का हवाला देते हुए कठिन शर्तें रख दी थीं।

2 साल तक एक देश से दूसरे देश की यात्रा के दौरान जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे इन बच्चों की हालत बेहद खराब थी। भुखमरी की वजह से कुपोषण का शिकार ये बच्चे देखने में कंकाल जैसे बनकर रह गए थे। उनके बाल बढ़ गए थे और वे फटे-पुराने कपड़ों में थे। इस बीच तेहरान से 2800 किलोमीटर दूर बॉम्बे में मौजूद पोलैंड के कॉन्सुलेट ऑफिस ने यहूदी शरणार्थियों की मदद करने का फैसला किया।

नवानगर के महाराज ने बनाया 'घर से दूर एक आशियाना'
कॉन्सुलेट के अधिकारी बानासिंकी ने पत्नी कीरा के साथ मिलकर भारत के राजपरिवारों तक यहूदी बच्चों की दुर्दशा की खबर पहुंचाई। धीरे-धीरे यह बात 5 लाख की आबादी वाले गुजरात के नवानगर तक पहुंची। एशियाई शेरों के लिए मशहूर इस रियासत में जाम साहब की उपाधि वाले महाराज दिग्विजय सिंहजी रणजीत सिंहजी जडेजा का शासन था।

दिग्विजय सिंहजी बच्चों पर हुए अत्याचार से बेहद दुखी हुए। उन्होंने उनकी मदद करने का फैसला किया। देश में ब्रिटिश राज के खिलाफ चल रही मुहिम के बीच उन्होंने नवानगर में पोलिश बच्चों के लिए 'घर से दूर एक आशियाना’ बनाया। इस दौरान उन्होंने ब्रिटिश हुकुमत की इजाजत हासिल करने के लिए जरूरी सभी शर्तों को भी पूरा किया।

पूरा इंतजाम होने के बाद पोलैंड के शरणार्थियों को ईरान से अफगानिस्तान होते हुए भारत लाया गया। महाराज ने जहाज को अपने राज्य के रोसी पोर्ट पर रुकने की इजाजत दी। इसके बाद यहां एक रात के भीतर तट के पास मौजूद बालाचड़ी शहर में रिफ्यूजी कैंप लगाए गए। यह जामनगर से करीब 25 किमी की दूरी पर था। यहां 2 से 17 साल की उम्र वाले 500 अनाथ बच्चों ने पनाह ली।

अनाथ बच्चों के लिए डॉर्मेटरीज बनाई गईं, जहां बिस्तर से लेकर जरूरत का सामान और कपड़े मौजूद थे। बच्चों के स्वागत में महाराज दिग्विजय सिंहजी ने खास भोज का आयोजन किया। उन्होंने कहा, "अब आप अनाथ नहीं हैं। आप नवानगर का हिस्सा हैं। आपके परिजन भले ही न हों लेकिन अब से मैं आपका पिता हूं।"

बच्चों के लिए पोलैंड से शेफ आए, भारत में सिखाया पोलिश कल्चर
जामनगर में बच्चों के स्वाद को ध्यान में रखते हुए खाना बनाने के लिए पोलैंड से खास शेफ बुलाया गया। महाराज ने अपने गेस्ट हाउस को बच्चों के स्कूल में बदल दिया। यहां पोलैंड के पुजारी फादर फ्रांसिजेक प्लूटा उन्हें पढ़ाते थे। स्कूल में लाइब्रेरी भी थी, जहां पोलैंड के इतिहास से जुड़ी किताबें मौजूद थीं। इसका मकसद बच्चों को उनकी मातृभूमि से जोड़े रखना था।

बच्चों के अलावा पोलैंड के बाकी शरणार्थियों के लिए महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर के पास वलिवडे में रिफ्यूजी कैंप बनाया गया। यहां करीब 5 हजार लोगों ने पनाह ली। पोलैंड से आए शरणार्थियों के लिए महाराज दिग्विजय सिंहजी ने बालाचड़ी में मौजूद अपने समर रेसिडेंस में 1000 घर बनवाए। इसके अलावा उन्होंने अपने महल के कुछ हिस्से को भी शरणार्थियों के लिए खोल दिया।

महाराज ने पोलिश चिल्ड्रन फंड की भी स्थापना की। इसके बाद दिग्विजय सिंहजी ने देशभर के करीब 80 राजाओं और रईसों को अपने साथ जोड़कर बच्चों की देखभाल के लिए चंदा इकट्ठा किया। शुरुआत में अपने डॉर्मेटरीज के ऊपर से गुजरते हवाई जहाज की आवाज सुनकर बच्चे अपने कमरों में छिप जाते थे। हालांकि, धीरे-धीरे वे पश्चिम भारत की जीवनशैली में ढल गए।

महाराज दिग्विजय सिंहजी नियमित तौर पर कैंप का दौरा करते रहते थे। इस दौरान वे प्रतियोगिताएं भी आयोजित करवाते थे। इनमें जीतने वाले बच्चों को सम्मानित किया जाता था। पोलैंड के बच्चे महाराज दिग्विजय सिंहजी को प्यार से बापू कहकर पुकारते थे।

महाराज दिग्विजय सिंहजी को मिला पोलैंड का सर्वोच्च नागरिक सम्मान
1945 में आखिरकार दूसरे विश्व युद्ध का अंत हुआ और पोलैंड आजाद हुआ। साल 1948 तक ज्यादातर पोलिश नागरिक देश लौट गए। इन्होंने साथ मिलकर एसोसिएशन ऑफ पोल्स इन इंडिया 1942-48 नाम का एक संगठन भी बनाया। वे खुद को 'सर्वाइवर्स ऑफ बालाचड़ी' कहने लगे।

पोलैंड के नागरिकों के लौटने के करीब 18 साल बाद नवानगर के जाम साहब का निधन हो गया। इसके बाद उन्हें पोलैंड के सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ द ऑर्डर ऑफ मेरिट से नवाजा गया। दिग्विजय सिंहजी को श्रद्धांजलि देने के लिए पोलैंड की राजधानी में एक चौराहे का नाम 'गुड महाराज' रखा गया है। इसके अलावा उनके नाम पर 8 स्कूल और 2022 में डोब्री महाराज के नाम से ट्राम की शुरुआत भी की गई है।



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