यह महिलाअों की बढ़ती आकांक्षा की शिरो ‘रेखा’ है.... अजय बोकिल
Updated on
25-02-2025 10:37 AM
दिल्ली प्रदेश और देश की राजधानी दिल्ली में नई मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता का चुनाव इस अर्द्धराज्य में केवल एक महिला चेहरे को प्रोजेक्ट करना भर नहीं है बल्कि मतदाता से लेकर उपभोक्ता के रूप में देश में महिलाअों की बढ़ती भागीदारी, महत्वाकांक्षा, अपेक्षा और समाज में बराबरी के ट्रीटमेंट के आग्रह का सकारात्मक स्वीकार भी है। साथ ही यह महिलाअोंकी सत्ताकांक्षा के चमकते अक्षरों की शिरो रेखा भी है। लोक लुभावन योजनाअों( जिसे रेवड़ी कल्चर न भी कहें) के कारण ही सही, देश में चुनाव में महिलाअो की निर्णायक हिस्सेदारी ने भाजपा जैसे राजनीतिक दल को भी मजबूर कर दिया है कि वह नारी शक्ति के राजनीतिक स्वरूप न केवल सम्मान व मान्यता देना जारी रखे बल्कि देश की आधी आबादी को यह संदेश दे कि समूचे राजनीतिक तंत्र में उनकी भी उतनी ही अहम भूमिका है। बताया जाता है कि दिल्ली सीएम पद की दौड़ में शुरू में अंजान चेहरा मानी जानी वाली रेखा गुप्ता का दावा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थन से लगातार मजबूत होता गया। संघ चाहता था कि देश में बदलाव लाना है तो महिलाअो को हर क्षेत्र में सम्मान और अवसर देना होगा। दिल्ली राज्य की कमान महिला के हाथों में सौंपने का संदेश पूरे देश में जाएगा। मुख्यमंत्री के सदंर्भ में ही देखें तो आज देश में 28 राज्यों में केवल एक महिला मुख्यमंत्री हैं और वो हैं ममता बैनर्जी। उनके बाद केन्द्र शासित अर्द्ध राज्य दिल्ली की मुख्यदमंत्री रेखा गुप्ता होंगी। जबकि सीएम पद की दौड़ में कल तक सबसे आगे उन प्रवेश वर्मा का नाम था, जिन्हें दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को हराने के कारण ‘जायंट किलर’ कहा गया। लेकिन दिल्ली जैसे देश की राजधानी में सियासी पांसे कुछ अलग और दूरगामी मानदंडों पर चले गए। परिवारवाद, जाट नेता होना, हरियाणा में बीजेपी की एंटी जाट पाॅलिटिक्स उनके आड़े आई। यूं दिल्ली भले ही छोटा सा राज्य हो, लेकिन वहां का कोई भी घटनाक्रम देशव्यापी संदेश लिए होता है। फिर चाहे रेखा गुप्ता का मुख्यमंत्री के रूप में अवतार हो या फिर महाकुंभ यात्रियों को रेलवे की अव्यवस्था के कारण मिली सद्गति हो।
ऐसा नहीं है कि भाजपा में रेखा गुप्ता के रूप में पहली बार कोई महिला सीएम पद की बागडोर संभाल रही है। इसके पहले बीजेपी में सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, उमा भारती, आनंदी बेन पटेल ये जिम्मेदारी बखूबी संभाल चुकी हैं। इनमें से वसुंधरा राजे तो अभी तक फिर से सीएम बनने का सपना पाले हुए हैं। लेकिन भाजपा में मोदी-शाह युग के दौरान शीर्ष सत्ताधारी महिलाअोंकी संख्या में कमी आने लगी। इसका एक कारण पार्टी की नई और बेहद आक्रामक कार्य शैली भी हो सकता है। हालांकि दूसरी तरफ बीते दशक में नए नारी चेहरे जैसे स्मृति ईरानी, निर्मला सीतारमन भी नमूदार हुए। निर्मला तो देश की वित्त मंत्री के रूप में बहुत बड़ी जिम्मेदारी कुशलता से निभा रही हैं। लेकिन राज्यों में कमान महिला नेत्रियों के हाथ से फिसलती जा रही थी। इसके विपरीत लोकतंत्र के उत्सव चुनावों में साल दर साल महिला मतदाताअों की भागीदारी बढ़ती जा रही है। 2024 के आम चुनाव की बात करें तो महिला और पुरूष मतदाताअों के बीच अंतर बहुत बारीक रह गया था। यानी मतदान में महिलाएं अगर पुरूषों की बराबरी कर रही हैं तो यह नेतृत्व में महिलाअों के समान हिस्सेदारी की जोरदार दस्तक है, जिसे अनसुना करना अब संभव नहीं है। लोकसभा की ही बात करें तो यह प्रतिनिधित्व महिला आरक्षण बिल में प्रस्तावित 33 फीसदी से काफी कम है और जिस अनुपात में महिलाएं वोट कर रही हैं, उससे भी काफी कम है। एक तरफ चुनाव में महिलाअों का लगातार ज्यादा वोट करना तो दूसरी तरफ नेतृत्व के फलक पर महिलाअोंका हाशिए पर जाते जाना अपने आप में चिंतनीय और विसंगतिभरा है। हो सकता है कि इसके पीछे पुरूषवादी सोच भी हो, लेकिन यह जीवन के हर क्षेत्र और खासकर राजनीति में महिलाअोंकी बढ़ती भागीदारी के तकाजे से मेल नहीं खाता।
यूं तो हर चुनाव में महिला मतदाताअों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन मध्यप्रदेश में महिलाअों को सीधे नकदी देने वाली ‘ लाडली बहना योजना ने 2023 के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक उपभोक्ता के रूप में स्थापित किया। हर माह पैसे की रेवड़ी ने महिलाअो को सरकार बनाने में अपनी भूमिका बड़े पैमाने पर निभाने के लिए प्रेरित किया। लिहाजा वो अब काफी हद तक निर्णायक भूमिका में है। वोटर के रूप में महिलाअों का यह दबाव भी राजनीतिक दलों को विवश कर रहा है कि वो महिला नेतृत्व को मान्यता दें, उसका आदर करें। सत्ता की अपनी मुट्ठियां ढीली कर उन्हें मौका दें। यूं दिल्ली की मुख्यमंत्री के अधिकार सीमित हैं। बावजूद इसके शीला दीक्षित जैसी मुख्यमंत्री ने अपने काम से छाप छोड़ी थी। रेखा गुप्ता को कितनी आजादी से काम करने दिया जाएगा, डबल इंजन सरकार में वो कितना ईंधन झोंक पाएंगी, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आभा मंडल में अपनी जगह कितनी बना पाएंगी, चुनाव के दौरान भाजपा ने यमुना सफाई से लेकर दिल्ली को सुंदर राजधानी बनाने जैसे बड़े बड़े वादे किए हैं, उन्हें कितना पूरा कर पाएंगी, यह अभी कहना मुश्किल है। लेकिन रेखा गुप्ता के लिए यह अवसर जरूर है कि वो अपने काम और शैली से भाजपा की एक राष्ट्रीय स्तर की नेता के रूप में उभरें। वो रिक्त जगह भरने की कोशिश करें, जो सुषमा स्वराज के निधन और किसी हद तक स्मृति ईरानी के चुनाव हारने के बाद खाली है।
वैसे रेखा गुप्ता को सीएम बनाकर बीजेपी ने आने वाले समय में अरविंद केजरीवाल के चौथी बार सीएम बनने की संभावनाअोंको भी कुंद कर दिया है। रेखा गुप्ता के सामने उन्हें अपनी नेता आतिशी मार्लेना को ही आगे करना पड़ेगा। दूसरे, रेखा भी केजरीवाल की तरह हरियाणा मूल की हैं और उस वैश्य समुदाय से हैं, जो बीजेपी का कोर वोटर रहा है, लेकिन दिल्ली की राजनीति में उसका केजरीवाल के प्रति साॅफ्ट् काॅर्नर रहा है। लेकिन इससे भी बड़ी बात भाजपा में काम करने वाली उन लाखो महिला कार्यकर्ताअों और करोड़ो महिला वोटरों के लिए भी यह सकारात्मक संदेश है कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में उनकी भी उतनी ही अहमियत है और इसे चाहकर भी कोई नजर अंदाज नहीं कर सकता।
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