महमूद गजनी की आंख में क्यों चुभता रहा कश्मीर, कश्यप ऋषि को बताया मुस्लिम काशिफ
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15-09-2024 04:52 PM
नई दिल्ली: अरब के मुसलमानों के साथ कश्मीरी हिंदू शासकों का पहली बार सामना तब हुआ, जब कश्मीर पर कार्कोट वंश (625 से 885 ईसवी) का राज था। इस राजवंश के राजाओं चंद्रपीड और ललितादित्य ने जब मध्य एशिया और अफगानिस्तान तक अपने सैन्य अभियान छेड़े तब उनका परिचय नए-नए उभरे इस्लाम धर्म से हुआ। अरब आततायियों से सम्राट ललितादित्य तो इतना डर गया कि उसने इनके खिलाफ चीनी सम्राट से मदद मांगी। चीन के सम्राट के पास भेजे गए कश्मीर के एक राजदूत ने कहा कि सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड अरबों के खिलाफ एक सैन्य गठबंधन बनाना चाहते हैं और इसमें आपकी मदद चाहते हैं। इसके कुछ समय बाद ही सिंध पर अरबों ने 712 में मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में आक्रमण किया। मगर, वह कश्मीर नहीं जा पाया। कुछ समय बाद ही यानी करीब 1000 ईसवी के आसपास अफगानिस्तान गजनी शहर से एक मुस्लिम आक्रमणकारी महमूद गजनवी या गजनी भारत की अपार दौलत के बारे में सुनकर आया। उसने भारत पर 17 बार आक्रमण किया, कई शहर जीते, मगर वह कश्मीर को कभी जीत नहीं पाया।
अल्बरूनी ने कहा-कश्मीरी हिंदू शासक किसी को घुसने नहीं देते
मोहम्मद गजनी के साथ ही एक अरब इतिहास अल्बरूनी भी भारत आया था। अलबरूनी (973-1048) एक फारसी विद्वान, लेखक, वैज्ञानिक और विचारक माना जाता था। अल्बरूनी ने भारत के साथ-साथ श्रीलंका की यात्रा भी की थी। उसे भारतीय इतिहास का पहला मुस्लिम जानकार कहा जाता है। अल्बरूनी की एक किताब 'किताब-उल-हिंद' भारत के बारे में विस्तार से लिखा गया है। अल्बरूनी ने 1017 में भारत आने के साथ ही शिकायती लहजे में कश्मीर के बारे में कहा था कि उनके साथ किसी भी तरह का व्यापार करना भी बहुत मुश्किल है। वे किसी ऐसे हिंदू को भी अपने राज्य में नहीं घुसने देते जिन्हें वे व्यक्तिगत रूप से जानते न हों।
जानबूझकर कश्यप ऋषि को बता दिया काशिफ
इतिहासकार डॉ. दानपाल सिंह के अनुसार कश्मीर में भी इस्लाम के आगमन की कहानी इतिहास से पहले मिथकों के रूप में शुरू होती है। ख्वाजा मोहम्मद आजम दीदामरी नाम के एक सूफी ने फारसी में 'वाकयात-ए-कश्मीर' नाम से 1747 में एक किताब छपवाई, जो बेहद मनगढ़ंत थीं। इसमें जानबूझकर कश्यप ऋषि को काशिफ बताया गया है। यह इतिहास से छेड़छाड़ की बड़ी कोशिश थी। इसमें कहा गया कि एक राक्षस ने पूरे कश्मीर को पानी में डुबा दिया, मगर काशिफ ने महादेव का तप करते हैं, जिसके बाद विष्णु इस राक्षस को मारकर इस क्षेत्र को पानी से उबारते हैं। इसका नाम तब काशिफ सिर दिया गया।
कश्मीर के भूगोल ने गजनी और कासिम को जीतने नहीं दिया
कश्मीरी इतिहासकार पृथ्वीनाथ कौल बामजई की 1962 में प्रकाशित किताब 'ए हिस्ट्री ऑफ कश्मीर' की भूमिका खुद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखी थी। कौल के अनुसार, मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध विजय के बाद 1015 में ही कश्मीर जीतना चाहा था, मगर वहां की जटिल भौगोलिक परिस्थितियों की वजह से उसे कामयाबी हाथ नहीं लगी। ऐसे में वहां पर किसी तरह का बाहरी घुसपैठ आसान नहीं था। अफगानिस्तान के गजनी शहर का रहने वाला महमूद गजनी या गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर कई बार आक्रमण किए और वहां की दौलत लूटकर गजनी ले गया। मगर, वह कश्मीर में कभी कामयाब नहीं हो सका।
महमूद गजनी काबुल के ब्राह्मण वंश को जीत लिया
गजनी से 100 साल पहले काबुल में लल्लिय नाम के एक ब्राह्मण मंत्री ने अपनी राजशाही स्थापित की थी जिसे इतिहासकार 'हिंदू शाही' कहते हैं। उन्होंने कश्मीर के हिंदू राजाओं के साथ गहरे राजनीतिक और सांस्कृतिक संबंध कायम किए थे। गजनी ने जब उत्तर भारत पर हमला करने की ठानी तो उसका पहला निशाना यही साम्राज्य बना। उस समय काबुल का राजा था जयपाल। जयपाल ने कश्मीर के राजा से मदद मांगी। मदद मिली भी, लेकिन वह गजनी के हाथों हार गया। पराजित होने के बाद भी जयपाल के बेटे आनंदपाल और पोते त्रिलोचनपाल ने गजनी के खिलाफ लड़ाई जारी रखी।
हिमाचल का कांगड़ा जीता, पर कश्मीर रहा अछूता
राजतरंगिणी के नाम से कश्मीर का इतिहास लिखने वाले कल्हण ने काबुल के हिंदू शाही साम्राज्य के पतन पर दुःख जताया है। त्रिलोचनपाल को तत्कालीन कश्मीर के राजा संग्रामराजा (1003-1028) से मदद भी मिली, लेकिन वह अपना साम्राज्य बचा न सका। गजनी ने इसके बाद आज के हिमाचल का हिस्सा कांगड़ा भी जीत लिया, लेकिन कश्मीर का स्वतंत्र हिंदू साम्राज्य को आखिरी दम तक नहीं जीत पाया।
जब अपमानित होकर कश्मीर से लौटा गजनी
गजनी या गजनवी ने 1015 में पहली बार तोसा-मैदान दर्रे के रास्ते कश्मीर पर हमला किया। मगर यहां पर पहाड़ों और खाइयों ने उसका साथ नहीं दिया। साथ ही कश्मीरियों ने गजनी की सेनाओं के खिलाफ जमकर लड़ाई लड़ी और उसे भागने पर मजबूर कर दिया। गजनी को बेहद अपमान के साथ कश्मीर से लौटना पड़ा। लौटते वक्त उसकी फौज रास्ता भटक गई और बाढ़ में फंसकर जान गंवा बैठी। अल्बरूनी ने कश्मीर के लोगों के स्वभाव और रहन-सहन के बारे में विस्तार से बताया है।
1 महीने डाले रहा डेरा, पर सर्दियों के सितम से फिर लौटा
महमूद गजनी ने 6 साल बाद यानी 1021 में अपने सम्मान को लौटाने के लिए फिर उसी दर्रे से कश्मीर पर हमला किया। वह एक महीने तक वहां डेरा डाले बैठा रहा, मगर लौहाकोट की जबरदस्त किलेबंदी की एक ईंट भी टस से मस नहीं कर सका। सर्दियां शुरू हो गई थीं और घाटी में बर्फबारी की शुरुआत हो गई। गजनी समझ गया कि इस बार उसकी फौजों का मरना तय है। वह फौरन वहां से खिसक लिया।
जब एक हिंदू राजा ने मूर्तियों और मंदिरों को तोड़ डाला
इतिहासकारों के अनुसार, कश्मीर के उत्पल वंश के राजा हर्षदेव पर इस्लाम का इतना गहरा असर पड़ा कि उसने मूर्तिपूजा ही छोड़ दी। कश्मीर की मूर्तियां, मंदिरों और बौद्ध मठों को तोड़ डाला। उसने अपनी सेना में तुरुष्क (तुर्क) सेनानायकों तक को नियुक्त किया था। कल्हण इसी हर्षदेव के समकालीन थे। कल्हण ने मूर्तिभंजक हर्ष को अपमानजनक अंदाज में 'तुरुष्क' यानी 'तुर्क' कहा है।
जब कश्मीर में बड़े पैमाने पर होने लगा धर्मांतरण
इटली के वेनिस शहर के एक यात्री मार्को पोलो भी भारत आया था। उसने विजयनगर साम्राज्य का दौरा किया। मार्को पोलो के अनुसार, 1277 में कश्मीर में बड़ी संख्या में मुस्लिम मौजूद थे। उस दौरान कश्मीर के बाहरी हिस्सों और सिंधु नदी के आस-पास बसे दराद जनजातियों के लोग बड़ी संख्या में धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम स्वीकार कर रहे थे। उन्हें मजबूरी में धर्म परिवर्तन कराया जा रहा था।
कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक एक लद्दाखी बौद्ध था
कश्मीर को पहला मुस्लिम शासक तब मिला, जब एक लद्दाखी बौद्ध रिंचन ने इस्लाम अपना लिया। उसे तब सदरुद्दीन शाह नाम दिया। उसका शासनकाल 1320 से 1323 तक था। वहीं, पूर्ण रूप से शाह मीर को कश्मीर का पहला मुस्लिम शासक माना जाता है। उन्होंने 1339 में अपना राजवंश स्थापित किया था। उनसे पहले 1318 से 1338 के बीच के बीस साल कश्मीर में युद्ध, षड्यंत्र, विद्रोह और मार-काट का बोलबाला रहा।
एक सूफी बुलबुल शाह ने कश्मीर में फैलाया इस्लाम
कश्मीर के शासन काल का 1301 से 1320 तक का साल राजा सहदेव के शासनकाल के नाम था। इस दौरान बड़ी संख्या में कश्मीर की जनता सूफी धर्म प्रचारकों के प्रभाव में और मजबूरी में इस्लाम स्वीकार कर चुकी थी। दरअसल, तुर्किस्तान से आए एक सूफी धर्म-प्रचारक बुलबुल शाह ने इस्लाम को कश्मीर में जमकर फैलाया, जिसे सैयद शरफुउद्दीन, सैय्यद अब्दुर्रहमान और बिलाल शाह भी कहा गया है। बुलबुल शाह सुहरावर्दी मत के सूफी खलीफ शाह नियामतुल्लाह वली फारसी के चेले थे। इसी के दौर में तिब्बत से भागे हुए रिंचन कश्मीर पहुंचे, जिसे कश्मीरी राजा ने शरण दी।
रिंचन को मजबूरी में अपनाना पड़ा इस्लाम
माना जाता है कि रिंचन ने हिंदू राजा रामचंद्र की बेटी से शादी कर ली। वह हिंदू धर्म अपनाना चाहते थे, मगर उन्हें शामिल नहीं किया गया। उस समय के कश्मीरी शैव गुरु ब्राह्मण देवस्वामी ने उन्हें हिंदू धर्म में शामिल करने से इनकार कर दिया। ऐसे में रिंचन ने हारकर इस्लाम कबूल कर लिया। तब बुलबुल शाह ने रिंचन को सद्रउद्दीन नाम दे दिया। इस तरह वह कश्मीर के पहले मुस्लिम शासक बन गए।
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