हमें याद आता है वह जमाना कि जब हम अपने मोहल्ले में रहने वाले हर बुजुर्ग का रिस्पेक्ट रखते थे उनसे डरते थे। आड़े तिरछे बाल रखना, आड़े तिरछे कपड़े पहनना ऐसा कुछ नहीं कर सकते थे। मिलावटी या नकली सामान बेचने वालों का सामाजिक बहिष्कार होता था। रिश्वतखोरो को अलग-थलग कर दिया जाता था। व्यापार में ईमानदारी थी। आदमी की जुबान पर व्यापार हो जाता था। शादी और रिश्ते परिवार की साख को देखकर कर दिए जाते थे। कहने का मतलब है कि नैतिक शिक्षा का एक प्रभाव था। परंतु अब कई जगह वह नैतिक शिक्षा नहीं बची। कई धर्मगुरु, राजगुरु, शासन प्रशासन और जिनको इसका पालन करना चाहिए वह खुद नैतिक शिक्षा भूल चुके हैं। अब यह नैतिक शिक्षा का पाठ कहां से मिले, पहले तो कक्षा एक से ही बच्चों को नैतिक शिक्षा का एक पीरियड होता था। अब प्रश्न यह है कि नैतिक शिक्षा का पाठ बच्चों को कहां से सिखाया जाए।अगर कोशिश करे तो सबसे पहले घर फिर स्कूल फिर धर्म गुरु और राजगुरु यह सब नैतिकता की बातें और उसका आचरण करें तो आने वाली पीढ़ी इस नैतिकता के पाठ को खुद ब खुद अपने जीवन में उतार लेगी।
अशोक मेहता, इंदौर (लेखक, पत्रकार, वास्तुविद्) ये लेखक के अपने विचार है I
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