मनोविज्ञान की समस्त खोजें कहती हैं, हम *पोलीसाइकिक* हैं। हमारे भीतर एक मैं भी नहीं है, बहुत मैं हैं, अनेक मैं हैं। रात एक मैं कहता है कि सुबह पांच बजे उठेंगे, कसम खा लेता है। सुबह पांच बजे दूसरा मैं कहता है, सर्दी बहुत है। छोड़ो, कहां की बातों में पड़े हो! फिर कल देखेंगे। करवट लेकर सो जाता है। सुबह सात बजे तीसरा मैं कहता है कि बड़ी भूल की। शाम को तय किया था, पांच बजे सुबह बदले क्यों? बड़ा पश्चात्ताप करता है। आप एक ही आदमी पांच बजे तय किए थे, तो सुबह किस आदमी ने आपसे कहा कि सो जाओ! आपके भीतर ही कोई बोल रहा है, बाहर कोई नहीं बोल रहा है। और जब सो ही गए थे पांच बजे, तो सुबह सात बजे पश्चात्ताप क्यों कर रहे हैं? आप ही सोए थे, किसी ने कहा नहीं था। अब यह पश्चात्ताप कौन कर रहा है?
सामान्यतः हमें खयाल आता है कि मैं एक मैं हूं, इससे बड़ा कनफ्यूजन पैदा होता है। हमारे भीतर बहुत मैं हैं। एक मैं कह देता है उठेंगे, दूसरा मैं कहता है नहीं उठते, तीसरा मैं कहता है पश्चात्ताप करेंगे। चौथा मैं सब भूल जाता है, कोई याद ही नहीं रखता इन सब बातों की। और ऐसे ही जिंदगी चलती चली जाती है।
मनोविज्ञान कहता है, पहले मैं को एक(ONENESS) करो।
एक मैं हो तो समर्पण हो सकता है। पच्चीस स्वर हों तो समर्पण कैसे होगा! इसलिए भगवान के सामने एक मैं तो झुक जाता है चरणों में, दूसरा मैं अकड़कर खड़ा रहता है, वहीं मंदिर में। एक मैं तो चरणों में सिर रखे पड़ा रहता है, दूसरा देखता रहता है कि मंदिर में कोई देखने वाला आया कि नहीं आया। एक ही आदमी खड़ा है, पर दो मैं हैं। एक वहां चरणों में सिर रखे है, दूसरा झांककर देख रहा है कि लोग देख रहे हैं कि नहीं देख रहे हैं! अब समर्पण कर रहे हो, तो लोगों से, देखने वालों से क्या लेना-देना है! एक मैं नीचे चरणों में पड़ा है, दूसरा मैं कह रहा है, कहां के खेल में पड़े हो! सब बेकार है। कहीं कोई भगवान नहीं है। एक मैं इधर भगवान के चरण पकड़े हुए है, दूसरा मैं दुकान पर बैठा हुआ काम में लगा है।
मैं संश्लिष्ट होना चाहिए, तभी समर्पण हो सकता है। इसलिए मैं इनमें विरोध नहीं देखता। मैं इनमें विकास देखता हूं।
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