ऐसा कम ही होता है, जब आपको जिलाने वाले और आपको चलाने वाले तेलों के भाव इतने बढ़ जाएं कि ‘आसमान छूने वाला’ मुहावरा भी नीचा लगने लगे। लेकिन इस देश में यह हकीकत है। बीते एक साल में खाने के तेल में 50 फीसदी और ईंधन के रूप में इ्स्तेमाल होने वाले तेल यानी पेट्रोल और डीजल के दामों में 26 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है और होती ही जा रही है। ऐसे में समझना मुश्किल है कि कैसे तो दाल में बघार लगाएं और कैसे गाडि़यां चलाएं। कोरोना ने पहले ही कमाई सिकोड़ दी और घरेलू बजट भी तेल में डूब रहा है। आम आदमी परेशान हैं, लेकिन सरकारें मुतमइन हैं क्योंकि उनका खजाना भर रहा है। पेट्रोल डीजल तो हर रोज मूंछ पर ताव दे रहे हैं, लेकिन खाद्य तेल आयात पर सरकार ने बेसिक कस्टम ड्यूटी में मामूली राहत दी है। बीते एक साल में सरसों के तेल के दाम ढाई गुना बढ़ गए हैं। बहुत-सी गृहिणियां उधेड़बुन में हैं कि इतने महंगे तेल में इस साल अचार डालें कि न डालें। काम काजी लोग परेशान हैं कि इतने महंगे-पेट्रोल डीजल से कैसे गाड़ी चलाएं, कितनी चलाएं। राजनीतिक जुमले में कहें त यही वो क्षेत्र हैं, जहां ‘आत्मनिर्भर’ होना अभी भी कल्पना है।
यकीनन अंदर और बाहर दोनो तरह से लोगों का तेल निकालने वाली यह ‘तैलीय जुगलबंदी’ कम ही देखने को मिलती है। खाने के तेल के रूप में हम ज्यादातर सरसों, मूंगफली, सोयाबीन और सनफ्लावर तेल ( दक्षिण भारत में नारियल तेल) का इस्तेमाल करते हैं। हमारा खाना इन तेलों के बगैर अधूरा है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों की चेतावनियों के बाद भी तला हुआ या तर माल खाना हम हिंदुस्तानियों का न छूटने वाला शौक है। यही हमारी पाक कला को विशिष्ट बनाता है। यूं भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा औसत खाद्य तेल की खपत वाला देश है। हर भारतीय प्रति वर्ष औसतन 19.5 किलो तेल डकार जाता है। खपत की यह रेंज दाल/ सब्जी में छौंक से लेकर भजिये और अचार तक फैली है। यही कारण है कि बढ़ती आबादी के साथ हमे खाने का तेल भी और ज्यादा आयात करना पड़ता है। उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक भारत हर साल कुल खपत का 56 फीसदी खाद्य तेल विदेशों से आयात करता है। इसमें भी सबसे बड़ी तादाद पाम तेल की होती है। यह स्थिति तब है, जब देश में तिलहनों के राष्ट्रीय मिशन के तहत देश में तिलहन की खेती करीब 2 करोड़ हेक्टेयर में हो रही है। लेकिन इसमे जो तिलहन पैदा होता है, वह मांग की तुलना में काफी कम है। वर्ष 2019 में ही हमने 1.5 करोड़ टन खाद्य तेल आयात किया और इसकी एवज में दूसरे देशों में 7300 करोड़ रू. चुकाए।
देश में सबसे ज्यादा भाव सरसों के तेल के बढ़े हैं। जो सरसों तेल पिछले साल इन्हीं दिनो में 90 रू. लीटर था, वह अब 214 रू. लीटर है। समूचे उत्तर व पूर्वी भारत में यही तेल खाने में सर्वाधिक इस्तेमाल होता है। बाकी खाद्य तेलों की स्थिति भी कमोबेश यही है कि मांग बहुत ज्यादा है और आपूर्ति कम। नतीजा ये कि घी तो गरीब की थाली से पहले ही डिस्टेसिंग बना चुका था, अब तेल की धार भी पतली होती जा रही है। आलम यह है कि खाद्य तेलों के खुदरा दाम बीते 11 सालों में अब अपने उच्चतम स्तर पर जा पहुंचे हैं। घरेलू बाजार में खाद्य तेल महंगा होने की एक बड़ी वजह खादय तेल आयात पर लगने वाला टैक्स भी है। सरकार इस तेल पर 17.5 फीसदी कृषि सेस, 10 फीसदी समाज कल्याण सेस और 15 फीसदी बीसीडी ( बेसिक कस्टम ड्यूटी) लेती है। यानी आयातित तेल पर लगभग 37 फीसदी टैक्स लगता है। यही तेल जब बाजार में बिकने आता है तो सरकार उस पर 5 फीसदी जीएसटी भी लेती है। हालांकि खाद्य तेलों के दामों में इस तेजी के बाद मोदी सरकार ने बीसीडी 15 से घटाकर 10 फीसदी कर दी है, जिससे उतनी ही राहत मिलेगी, जितनी कि परांठे की जगह पूरी खाने से मिलती है। हालांकि सरकार इस भरोसे मे है कि इससे रिटेल मार्केट में तेल के भाव घटेंगे। ऐसा शायद ही हो, क्योंकि जो दाम बीसीडी के कारण घटेंगे, वो बढ़ती परिवहन लागत से फिर चढ़ जाएंगे। जानकारों के मुताबिक विदेशों में भी खाद्य तेलों के भाव बढ़े हुए हैं, जिसका एक कारण फसलें खराब होना भी है। बहरहाल सारी उम्मीद इस पर िटकी है कि तिलहन की अगली फसल अच्छी उतरी तो घर का तड़का और स्वादिष्ट हो सकेगा।
यूं आग को भड़काने के लिए तेल डाला जाता है, लेकिन यहां तो तेलों में ही आग लगी है। खाद्य तेलों से भी ज्यादा आग पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा रहे हैं। अपवाद छोड़ दें तो पिछले कुछ सालों से चढ़दी कलां की माफिक पेट्रोल-डीजल से भाव नई ऊंचाइयों को छूते रहे हैं। कोरोना काल लाॅक डाउन के चलते पतली माली हालत की वजह से सभी सरकारों ने इसे अपनी कमाई का एक अहम जरिया बना लिया है। पेट्रोल डीजल की महंगाई राजनीतिक मुद्दा भी बनती हैं, लेकिन वो उत्सवी ज्यादा होती है। देश के कई शहरों में आज पेट्रोल-डीजल के भाव सौ रू. प्रति लीटर से भी ज्यादा हो गए हैं। दूसरी तरफ इन तेलों से केन्द्र सरकार को होने वाली कमाई ने इनकम टैक्स देने वालों को भी लजा दिया है। अधिकृत आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2020-21 में व्यक्तिगत इनकम टैक्स कलेक्शन 4.69 लाख करोड़ रुपए रहा जबकि सरकारों की पेट्रोल-डीजल पर एक्साइज ड्यूटी और वेट से कमाई 5.25 लाख करोड़ रुपए रही। प्राप्त जानकारी के अनुसार केन्द्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2020-21 के शुरुआती 10 महीनों में पेट्रोल और डीजल से 2.94 लाख करोड़ रू. कमाए। ध्यान रहे कि सरकारें प्रति लीटर पेट्रोल पर कीमत का 60 और डीजल पर 54 फीसदी केवल टैक्स के रूप में वसूलती हैं।जिसमें एक्साइज ड्यूटी, वेट, अतिरिक्त टैक्स व सरचार्ज आदि शामिल हैं। अगर मध्यप्रदेश की ही बात करें तो जल्द ही 11 हजार करोड़ रू. का नया कर्ज लेने जा रही शिवराज सरकार ने साल 2019-20 में 4 हजार 88 करो़ड़ रू. पेट्रोल और 5634 करोड़ रू. डीजल पर टैक्स से कमाए। यह कमाई राज्य सरकार को दारू बिक्री से होने वाली आय से डेढ़ गुना ज्यादा है।
यानी आपके हाथ में केवल इतना ही है कि ‘तेल देखो, तेल की धार देखो।‘ तेल चाहे खाने का हो या जलाने का, दोनो ही आपकी जेब हल्की कर रहे हैं। कोरोना लाॅक डाउन में पेट्रोल डीजल के भड़कते भाव लोगों पर ज्यादा असर इसलिए नहीं कर पाए, क्योंकि सब कुछ बंद था। सो, गाडि़यां भी बहुत कम चलीं। लेकिन अनलाॅक होते ही लोगों की फटी जेबें बाहर आने लगी हैं। खुद की गाड़ी चलाना तो मंहगा हो ही गया है, सार्वजनिक परिवहन भी महंगा हो गया है। अफसोस की बात यह ये कि पेट्रोल-डीजल की महंगाई को अब कलेजे में जलने वाली अखंड जोत की माफिक मान लिया गया है, जो शायद कभी मंद न होगी। क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था संक्रमित है। ऐसे में पेट्रोल-डीजल ही सरकारी खजानों का बड़ा सहारा है, भले इससे आप का खजाना रीत जाए। मंत्रियों से इस बारे में जब भी सवाल किया जाता है, तब मसखरे किस्म के जवाब ज्यादा मिलते हैं। मप्र के ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्नसिंह तोमर ने ऐसे ही एक सवाल के जवाब में कहा कि भइया पेट्रोल महंगा है तो साइकिल चलाअो। यानी पैसा तो बचेगा ही, सेहत भी बनेगी। केन्द्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान का कहना था कि पेट्रोल डीजल पर टैक्स से आने वाला सारा पैसा विकास के कामों में लग रहा है। अब यह विकास कहां और किसका हो रहा है, यह अलग बहस का विषय है। लेकिन सरकार के लिए वह आर्थिक संजीवनी है, इसमें शक नहीं। एक चतुराई भरा तर्क यह भी कि अगर पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में ले आया जाए तो दाम घट सकते हैं। लेकिन यह उपाय राज्यों की बची खुची आर्थिक लंगोटी भी छीन लेने जैसा है। जीएसटी लागू होने के बाद राज्यों ही हालत वैसे ही ‘दे दाता के नाम’ वाली हो गई है। केन्द्र से अपना ही पैसा निकलवाने में उनका दम निकला जाता है। ऐसे में वो पेट्रोल-डीजल की कमाई छोड़ने कभी तैयार नहीं होंगे। खाद्य तेलों का मामला थोड़ा अलग है। वहां टैक्स रेट लगभग एक सा है। लेकिन परिवहन की लागत इस तेल की आग भड़काती है। या यूं कहें कि एक तेल दूसरे तेल के भाव बढ़ाता है। और दोनो मिलकर शायद हम आप को यूं ही ‘तलते’ रहेंगे।
अजय बोकिल, लेखक
वरिष्ठ संपादक, ‘राइट क्लिक’ ये लेखक के अपने विचार है I
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