कांग्रेस की राजनीति में विश्वास की वंदनवार थे वोराजी
Updated on
23-12-2020 04:35 PM
राजनेताओं की फर्राटा-दौड़ के इस युग में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा राजनीति के वो मेराथन खिलाड़ी थे, जो सत्ता के राजपथ पर दौड़ते हुए अपने समकालीन राजनीतिज्ञों से कब आगे निकल जाते थे, यह उनके साथ दौड़ने वाले लोगों को भी पता ही नहीं चलता था। उनकी राजनीतिक प्रोफाइल के पन्नों को खंगालने पर पता चलता है कि उनकी समूची राजनीतिक यात्रा के विभिन्न पड़ाव हमेशा चौंकाने वाले रहे हैं। अस्सी के दशक में जब मध्य प्रदेश कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष बने, तब लोगों को इसका गुमान नहीं था और जब उन्होंने मध्य प्रदेश में दूसरी बार चुनावी फतह हासिल करने वाले अर्जुन सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी, तब भी उनके सियासी-हमसफर आश्चर्यचकित रह गए थे। केन्द्र सरकार में उनका कैबिनेट मंत्री बनना, उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनना या कांग्रेस में राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष बनना उनके राजनीतिक व्यक्तित्व की उस इबारत को उजागर करता है, जो हर नेता अपनी राजनीतिक-गाथा में दर्ज कराना चाहता है। लेकिन ऐसी सुनहरी इबारतों का हकदार बनना आसान नहीं है।
मोतीलाल वोरा ने अपने राजनीतिक व्यक्तित्व का जिस आसाधारण तरीके से साधारणीकरण किया था, वह अद्भुत और अद्वितीय है। वोराजी के राजनीतिक व्यक्तित्व के इस आसाधारण साधारणीकरण ने उन्हें सहज और सरल व्यक्ति में रूपान्तरित कर दिया था। यही एक कारण है कि उन्हें चाहने और जानने वाले व्यक्तियों की संख्या अनगिनत है। सत्ता और राजनीति के गलियारों में सक्रिय हर व्यक्ति यह मानता था कि वो वोराजी को जानता है और वोराजी उसे निजी रूप से जानते हैं अथवा वो उनका हाथ पकड़ कर अपनी तकलीफों का इलाज करवा सकता है। किसी भी नेता के प्रति लोगों के विश्वास का यह इंडेक्स बिरला ही नजर आता है और ऐसे नेताओं की संख्या भी नगण्य है, जिन्हें लोगों का इतना भरोसा हासिल हो। शायद इसीलिए उनका अवसान मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में उन्हें जानने वाले लोगों को निजी क्षति के रूप में महसूस हो रहा है।
1970 में उन्होंने कांग्रेस में दाखिला लिया था। पचास सालों में वो दो बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बने, केन्द्रीय मंत्री रहे। उनकी राजनीतिक कहानी के हर्फो में जितना सोना घुला, वो मध्य प्रदेश की जमीन से ही निकला था। मूलरूप से वो राजस्थान के रहने वाले थे, लेकिन उनकी राजनीतिक परवाज का आकाश मध्य प्रदेश रहा है। कलुषित राजनीति के वर्तमान दौर में उनके चेहरे पर नैतिकता की चमक हमेशा बनी रहती थी। मध्य प्रदेश उनकी राजनीति की कर्मभूमि रहा है। उनकी राजनीतिक बुनावट के फेब्रिक में मालवी, बुंदेली, निमाड़ी, और बघेली के रेशों के कसीदाकारी उन्हें छत्तीसगढ़ से ज्यादा मध्य प्रदेश के आभा मंडल से आलोकित करती है। वो बीस साल पहले मध्य प्रदेश से टूट गए थे। साल 2000 में मध्य प्रदेश को तोड़कर छत्तीसगढ़ का निर्माण हुआ था। उस वक्त वोराजी कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति में थे। कांग्रेस के राजनीतिक बंटवारे में छत्तीसगढ़ के हिस्से में आए थे। लेकिन मध्य प्रदेश के उनके मुरीद चाहते थे कि वो मध्य प्रदेश में ही राजनीति करें। लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति को यह गवारा नहीं था। उसके बाद वोराजी की राजनीति ऑटो-मोड में निर्विघ्न और निर्विवाद आगे बढ़ती रही।
वो घात-प्रतिघात की राजनीति से बचते थे और दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ते थे। सफलताओं के लिहाज से वोराजी ने कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा, और ना ही आगे बढ़ने के बाद अपने पीछे लोगों की राहों में कांटे बोने का उपक्रम किया। उनकी सफलता का राज भी यही है कि वो अपनी राह चलते थे, किसी के आड़े नहीं आते थे। पचास साल के राजनीतिक जीवन में सत्ता साकेतों से लेकर गली-मोहल्लों तक उनकी सक्रियता उनके आम आदमी होने की पुष्टि करता है। सार्वजनिक जीवन में वोराजी जैसी उपलब्धियां हासिल करने के लिए प्रारब्ध और पुरूषार्थ का समन्वय, सामर्थ्य और समय का समर्थन जरूरी है। कांग्रेस मुख्यालय में वोराजी नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच विश्वास की वो वंदनवार थे, जिसे उन्होंने कभी भी टूटने नहीं दिया। विश्वास की यही वंदनवार ही उनके राजनीतिक जीवन की खूबसूरती बयां करती है। विश्वास के पैमानों पर खरा होने के कारण ही वो डेढ़ दशक से ज्यादा समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद पर काबिज रहने में सफल रहे। कांग्रेस की विचारधारा के प्रति उनका समर्पण, निष्ठा और प्रतिबद्धता की वजह से ही अंत तक उनकी सक्रियता बनी रही। मीडिया में पत्रकारों के बीच उनकी लोकप्रियता का एक कारण यह भी था कि वोराजी मूलरूप से पत्रकारिता से सियासत में आए थे। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि मिजाज से पत्रकार होने के बावजूद पत्रकारों के लिए उनसे कोई भी बात निकलवाना मुश्किल होता था। वोराजी ने गांधी-परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर काम किया है। पचास साल में कांग्रेस के हर उतार-चढ़ाव में वो धुरी बनकर संगठन के साथ खड़े रहे। फिलवक्त कांग्रेस की नई पीढ़ी को अनुभवजन्य व्यवहारिक राजनीति की दीक्षाओं के दरकार है। उनका अवसान इस मायने में कांग्रेस के लिए बड़ी क्षति है।
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