समान नगरिक संहिता: कोई ड्राफ्ट सामने आने के पहले ही इतना हो-हल्ला क्यों?
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02-07-2023 02:26 AM
सार
दिलचस्प यह है कि देश में यूसीसी लागू करने के समर्थन और विरोध का फिलहाल बहुत ज्यादा औचित्य इसलिए नहीं है कि इसका कोई आधारभूत प्रारूप सामने नहीं लाया गया है। देश के विधि आयोग ने 14 जून को एक अधिसूचना जारी कर यूसीसी पर लोगों से राय मांगी है।
विस्तार
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भोपाल में भाजपा के बूथ विस्तारकों के सम्मेलन में 27 जून को जिस तरह देश में यूनिफॉर्न सिविल कोड (यूसीसी) यानी समान नागरिक संहिता लागू करने का मुद्दा उठाया, उससे साफ हो गया कि पार्टी के लिए अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव का यह कोर मुद्दा है। भाजपा को उम्मीद है कि इस मुद्दे पर वोटरों का उसी तर्ज पर ध्रुवीकरण किया जा सकेगा, जैसा कि राम मंदिर अथवा कश्मीर में धारा 370 हटाने के मुद्दे पर हो सका था।
उधर विपक्षी दल भी इस मुद्दे की राजनीतिक धार को आंकने की कोशिश कर रहे हैं। यही कारण है कि इस मुद्दे पर उनकी प्रतिक्रिया विरोधी होते हुए भी सतर्कता से भरी है। दिलचस्प बात यह है कि देश में यूसीसी लागू करने के समर्थन और विरोध का फिलहाल बहुत ज्यादा औचित्य इसलिए नहीं है कि इसका कोई आधारभूत प्रारूप देश के सामने नहीं लाया गया है। केवल देश के विधि आयोग ने 14 जून को एक अधिसूचना जारी कर यूसीसी पर लोगों से उनकी राय और सुझाव मांगे हैं।
बताया जाता है कि मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड समेत विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों ने साढ़े आठ लाख से ज्यादा सुझाव आयोग को दिए हैं। यह मामला थोड़ा इसलिए भी अलग लगता है कि अमूमन किसी भी मामले में कोई आधारपत्र अथवा प्रारूप जारी होने के बाद ही उस पर राय अथवा आपत्तियां आमंत्रित की जाती हैं। लेकिन लगता है कि विधि आयोग प्राप्त सुझावों के आधार पर ही शायद कोई आधार पत्र या प्रारूप तैयार करेगा। आगे क्या होगा, इस बारे में स्थिति 14 जुलाई के बाद स्पष्ट होगी। लेकिन इस प्रस्तावित यूसीसी को लेकर सियासी दलों में लट्ठमलट्ठा शुरू हो चुका है, जिसमें मोदी सरकार की नीयत और संविधान के प्रति प्रतिबद्धता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। दूसरी तरफ मोदी सरकार और भाजपा संविधान की ही दुहाई देकर कह रहे हैं कि समान नागरिक संहिता संविधान की भावना के अनुरूप ही लाई जा रही है और यह आज की जरूरत है।
इसमें दो राय नहीं कि समान नागरिक संहिता का जिक्र भारतीय संविधान में है। लेकिन संविधान के भाग 4 में राज्य के नीति निदेशक के अनुच्छेद 44 में इस का उल्लेख संविधान निर्माताओं ने मात्र एक वाक्य में किया है। जिसके मुताबिक (संविधान के अधिकृत हिंदी अनुवाद के अनुसार) ‘ राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।‘ अर्थात ऐसा करना अनिवार्य नहीं है, लेकिन राज्य (सरकार) ऐसा करने का प्रयास करेगा। इसकी एक वजह यह भी थी कि यूसीसी पर संविधान सभा की बहसों में भी मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे अनिवार्य करने का विरोध किया था, जबकि मौलिक अधिकारों को अनिवार्य माना गया है।
इसका अर्थ यह है कि संविधान निर्माता सिद्धांत रूप में इस बात से सहमत थे कि भारत जैसे सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता वाले देश में समान नागरिक संहिता अपेक्षित तो है, लेकिन इसे समग्र विचार और सहमतियों के बाद ही लागू करना ठीक होगा। इसका कारण यह है कि इस देश में अपराधों के लिए भले ही एक दंड संहिता हो, लेकिन सामाजिक धार्मिक नियम कायदे हर धर्म के अलग अलग हैं और आम तौर पर लोग उनका पालन जरूरी समझते हैं। इसमें किसी दूसरे तत्व का हस्तक्षेप अनावश्यक समझते हैं।
इन कानूनों में कुछ विसंगतियां भी हैं, लेकिन धार्मिक आग्रहों और पारंपरिक मान्यताओं के चलते लोग इन्हें बदलना या छोड़ना नहीं चाहते। अलबत्ता शिक्षा व अन्य कारणों से कुछ बदलाव विभिन्न समाजों में अलग अलग स्तर पर दिखाई देते हैं।
यूसीसी को लेकर इतना बवाल क्यों?
अब सवाल यह है कि अगर समान नागरिक संहिता का विचार संविधान सम्मत है तो फिर इसे लागू करने अथवा ऐसा विचार भी करने में क्या हर्ज है? चूंकि इस बारे में अभी कोई प्रारूप किसी के सामने नहीं है, इसलिए तमाम विरोध और समर्थन अनुमान और आशंकाओं के आधार पर ज्यादा हैं।
पहला विरोध धर्म अथवा समाज विशेष में लागू व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव अथवा उनको समाप्त करने का है। इसीलिए मुस्लिम, सिख व कुछ अन्य धर्मों से यूसीसी के विरोध की आवाजें उठ रही हैं। शुरू में इस विरोध में तल्खी ज्यादा थी, लेकिन अब ऐसा लगता है कि यह विरोध बावजूद राजनीतिक आग्रह दुराग्रह के कुछ तार्किक स्वरूप लेता जा रहा है। लिहाजा सभी विरोधी एवं आक्षेपकर्ता कानूनी तरीके से अपनी बात विधि आयोग के सामने रखने जा रहे हैं, जो एक सही तरीका भी है।
जो बातें सामने आ रही हैं, अथवा जिन देशों में यह संहिता लागू है, उसे देखते हुए यह समझा जा सकता है कि यूसीसी कुछ मूलभूत बातों पर केन्द्रित होगी, जैसे कि शादी की न्यूनतम उम्र, तलाक़ से जुड़ी प्रक्रिया, गोद लेने का अधिकार, गुजारा भत्ता, बहुपत्नी अथवा बहुपति प्रथा, विरासत, उत्तराधिकार व परिवार नियोजन आदि। इनसे संबंधित कुछ कानून तो अलग-अलग राज्यों में लागू भी हैं।
समान नागरिक संहिता में इन मुद्दों को लेकर सभी धर्मों के लोगों पर एक समान कानून लागू होगा। दूसरे शब्दों में यूसीसी लागू होने पर अलग-अलग धर्मों के पहले से लागू पर्सनल लाॅ समाप्त हो जाएंगे। जैसे कि हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, भारतीय तलाक़ अधिनियम, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम आदि। हालांकि मुसलिम पर्सनल लॉ को संहिताबद्ध नहीं किया गया है। यह लाॅ उनकी धार्मिक पुस्तकों पर आधारित है। लेकिन मुसलमानों को लगता है कि यूसीसी लागू होने से शरीयत में दखलंदाजी होगी, जिसे वो कदापि मंजूर नहीं करेंगे। कुछ ऐसे ही सवाल आदिवासियों के परंपरागत नियमों प्रथाअों को लेकर भी उठेंगे।
गोवा में पहले से लागू है यूसीसी
यहां दिलचस्प बात यह है कि देश में गोवा अकेला राज्य है, जहां यूसीसी लागू है। गोवा में 8.33 फीसदी मुसलमान रहते हैं। लेकिन उन्हें अभी तक यूसीसी से कोई दिक्कत नहीं हुई है। कोई उसके खिलाफ कोर्ट नहीं गया। यानी वो अपने धार्मिक रीति रिवाजों का पालन बदस्तूर कर रहे हैं। जबकि गोवा में यह कानून पुर्तगाली शासकों के जमाने से 1867 से लागू है। इसका अर्थ यह है कि यूसीसी को लेकर शंका से ज्यादा कुशंकाएं हैं। हालांकि आशंका सिख समाज ने भी जताई है।
अकाली दल के मुताबिक यूसीसी से उनकी ‘आनंद कारज’ ( सिख विवाह पद्धति) प्रभावित हो सकती है। दूसरी तरफ बौद्ध समुदाय भी बौद्ध विवाह पद्धति को हिंदू विवाह पद्धति से अलग मान्यता देने की मांग कर रहा है।
यूसीसी को लेकर लोगों के मन में कई सवाल
एक शंका यह भी है कि सरकार यूसीसी की आड़ में हिंदू सामाजिक धार्मिक कानूनों को इतर धर्मियों पर थोप सकती है। यह इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि खुद हिंदुओं को भी यूसीसी के लिए अपने कुछ नियमों-परंपराओं को ताक पर रखना पड़ सकता है। इसमें प्रमुख हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) है।
एआईएमआईम नेता असदउद्दीन ओवैसी ने इसी मुद्दे पर पीएम मोदी को घेरते हुए सवाल किया है कि क्या वो एचयूएफ को खत्म करेंगे? बताया जाता है कि देश में इसके जरिए हिंदू परिवार हर साल 3 हजार करोड़ रु. आयकर अधिनियम के तहत एचयूएफ को एक अलग ईकाई माना जाता है। अब बेटियां भी परिवार की संपत्ति में हिस्सा हैं और इसके तहत उन्हें टैक्स देनदारियों में कुछ छूट मिलती है। हालांकि हिंदुओं में भी अब संयुक्त परिवार प्रथा बहुत कम रह गई है, उसकी जगह ईकाई परिवार प्रथा ने ले ली है।
इसका अर्थ यह है कि कुछ चुनिंदा कानूनों को छोड़कर बाकी में सभी धर्मों की अपनी-अपनी प्रथा परंपराएं कायम रहेंगी। लेकिन ऐसे मामलो में अलग-अलग कानून होने से वर्तमान में जारी मुकदमेबाजी पर कुछ अंकुश लग सकता है। अब असली सवाल यह है कि मोदी सरकार यह मुद्दा अभी ही क्यों उठा रही है? सरकार चाहती तो मोदी 2.0 के पहले या दूसरे साल में ही इसे ला सकती थी। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया गया।
हालांकि इस मुद्दे पर बहस की शुरुआत तो पिछले साल दिसंबर में भाजपा सांसद किरोडीलाल मीणा द्वारा राज्यसभा में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर लाए गए प्राइवेट बिल के साथ ही हो गई थी। इस बिल को भाजपा का समर्थन था। भाजपा के लिए यह मुद्दा जनसंघ के जमाने से है। भाजपा बनने के बाद 90 के दशक में पार्टी जिन मुद्दों को लेकर बढ़ती रही है, उनमें कश्मीर में धारा 370 हटाना, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और देश में समान नागरिक संहिता लागू करना प्रमुख रहे हैं।
इनमें से दो तो पूरे हो चुके हैं, केवल यूसीसी का मुद्दा बचा है। उधर विधि आयोग ने भी 2018 में यूसीसी पर राय मांगकर सनसनी फैला दी थी, लेकिन कुछ वर्गों के विरोध के बाद उसने खुद यह पहल ये कहकर वापस ले ली थी कि फिलहाल देश में इसकी जरूरत नहीं है।
यूसीसी देश की जरूरत?
लेकिन 2023 के चुनाव के पहले मोदी सरकार और विधि आयोग को लगने लगा है कि अब यूसीसी देश की जरूरत है। इसके पीछे ‘अनेकता में एकता’ का भाव भी है, लेकिन दूसरे तरीके से। कुछ लोगों का मानना है कि समान नागरिक संहिता देश के धर्म निरपेक्ष चरित्र को मजबूत करेगी। शायद इसी मकसद से प्रधानमंत्री ने कहा कि ‘एक देश और दो कानून’ व्यवस्था नहीं चल सकती। पार्टी कभी ऐसा ही नारा ‘एक देश, दो विधान, दो प्रधान और दो निशान’ वाला नारा जम्मू कश्मीर के बारे में दिया करती थी। लेकिन यूसीसी का मुद्दा वोटों की भट्टी में ‘राम मंदिर’ की तरह पक सकेगा?
क्या वोटर और खासकर बहुसंख्यक समाज यूसीसी मुद्दे से उतना ही भावनात्मक जुड़ाव महसूस कर सकेगा, जैसा राम मंदिर के मामले में हुआ है? क्योंकि यह मुद्दा विभिन्न सामाजिक धार्मिक रीति-रिवाजों के एक समान संहिताकरण से जुड़ा है और कानूनी ज्यादा है। इसे वोटों की गोलबंदी में बदलना आसान नहीं है। यूसीसी को लेकर मतदाताओं का ध्रुवीकरण तो होगा, लेकिन कितना, यह कहना बहुत मुश्किल है और इस मुद्दे के आगे बाकी के जमीनी मुद्दे और जवाबदेहियां दफन हो जाएंगी, यह मान लेना राजनीतिक भोलापन होगा।
वोटों के ध्रुवीकरण के लिए भीजरूरी है कि पहले वो ड्राफ्ट तो सामने आए, जिससे प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का स्वरूप स्पष्ट हो सके और लोग इसके पक्ष-विपक्ष में राय बना सकें। यह ड्राफ्ट कब तक आएगा, अभी स्पष्ट नहीं है। अलबत्ता यूसीसी को सबसे पहले लागू करने का वादा करने वाले उत्तराखंड राज्य में 15 बिंदुओं पर आधारित यूसीसी ड्राफ्ट तैयार होने की खबर है, लेकिन अभी वह सार्वजनिक नहीं हुआ है।
हो सकता है कि विधि आयोग उसे ही बेसिक ड्राफ्ट मान ले। लेकिन अगर आयोग को साढ़े आठ लाख से ज्यादा सुझाव मिले हैं तो उनके अध्ययन और उन्हें ड्राफ्ट में शामिल करने (बशर्ते ऐसा हो) के लिए काफी समय लगेगा। यह काम अगले लोकसभा चुनाव के पहले पूरा हो जाएगा, इसकी संभावना कम है। अगर जल्दबाजी में कोई ड्राफ्ट लाया भी गया तो उस पर बवाल मचना तय है। उसी हल्ले में चुनाव भी हो जाएंगे। मतलब ये कि यूसीसी को कानून में तब्दील होने में अभी बहुत से रोड़े हैं। कोशिश माहौल बनाए रखने की है, जो हो रही है।
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