महाराष्ट्र में शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे से बगावत कर महा विकास आघाडी सरकार का पतन कर भाजपा के समर्थन से आखिरकार शिवसेना में ही रहे ठाकरे के बाद सबसे शक्तिशाली नेता एकनाथ शिंदे ने सरकार बना ली है। जिन परिस्थितियों में महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन हुआ है उसको देखते हुए एक बात कही जा सकती है कि क्या उद्धव ठाकरे सीईओ की भूमिका में ही रहे और वे मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उस नई भूमिका के रूप अपने को नहीं ढाल पाए। यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि उन्हें छोड़कर जाने वाले लोगों का यही आरोप है कि ठाकरे हमसे मिलते नहीं थे और गठबंधन के दूसरे सहयोगी दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के लोग ही सत्ता का फायदा उठा रहे थे। सामान्यतः जिस प्रकार की राजनीति क्षेत्रीय दलों में होती है उसमें पार्टी का अध्यक्ष एक प्रकार से सुप्रीमो की भूमिका में ही रहता है और उसी अंदाज में अपनी पार्टी पर नियंत्रण करता है। लेकिन जब मुख्यमंत्री बन जाता है तो उसकी भूमिका कुछ अलग हो जाती है लेकिन उद्धव ठाकरे शायद अंत तक सीईओ ही बने रहे और जो बदलाव मुख्यमंत्री बनने के बाद कार्यशैली में आना चाहिए उसका अभाव रहा।
इतने बड़े पैमाने पर विधायक उनका साथ छोड़ कर गए इससे पहले कभी भी किसी अन्य दल में इस प्रकार की टूट-फूट नहीं हुई। मुख्यमंत्री से उसके दल के विधायकों की अलग प्रकार की अपेक्षा होती है और उसे अपने विधायकों को संभाल कर रखने के साथ ही अन्य लोगों से भी मिलना जुलना पड़ता है। वैसे हर दल बदल करने वाले को कुछ ना कुछ आरोप-प्रत्यारोप के अलावा सैद्धांतिक आधार भी सामने रखना पड़ता है, इसीलिए एकनाथ शिंदे के साथ बगावत करने वालों का यही आरोप है कि शिवसेना बाला साहब ठाकरे के हिंदुत्व के बताए रास्ते से हट गई थी इसलिए हम हिंदुत्ववादी रास्ते पर चलने वाले अपने सहज स्वाभाविक साथी भाजपा के साथ जा रहे हैं।
अधिकांश क्षेत्रीय दल कहने को तो कुछ ना कुछ सिद्धांत की बात करते हैं लेकिन उनकी सारी बनावट ऐसी होती है जिसमें परिवार का वर्चस्व हमेशा बना रहे। अन्य परिवारवादी दलों के समान ही शिवसेना में भी सुप्रीमो ठाकरे परिवार का ही हो सकता था और जब परिवार की बारी आती है तो पहली प्राथमिकता पुत्र को दी जाती है। लेकिन शिवसेना का लक्ष्य हिंदुत्व और हिंदुओं की राजनीति की रही और उसमें भी उसके तेवर सबसे अलग रहते थे और शिवसैनिक अतिवादी राजनीति याने सड़कों पर निपट लेने से परहेज नहीं करते रहे हैं। उनके लिए सुप्रीमो का आदेश ही अंतिम होता है । लेकिन इस बार स्थापित सुप्रीमो के खिलाफ इतना बड़ा विद्रोह हो गया जो इससे पूर्व देखने में नहीं आया था। इसके बाद असली आत्ममंथन का दौर सभी क्षेत्रीय दलों के साथ उन दलों को भी करना चाहिए जिनके तौर तरीके इसी प्रकार के हैं। भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर अन्य दलों में जिस प्रकार से दलबदल पिछले एक दशक में देखने में मिला है उसको देखकर यह कहा जा सकता है कि इनके पास ऐसा कोई मजबूत संगठन नहीं है जो विचारधारा या लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध हो । संगठन की ओर तवज्जो ना दिए जाने और उसे मजबूती देने के स्थान पर केवल चुनाव लड़ने पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है। खासकर क्षेत्रीय पार्टियों के लिए भी महाराष्ट्र की घटना के बाद खतरे की घंटी बज गई है इसलिए उन सभी को आत्ममंथन और चिंतन करने की जरूरत है। महाराष्ट्र और उससे सटे मध्य प्रदेश दोनों ही राज्यों में दल बदल के कारण सरकारों का पतन हुआ है और भाजपा फिर से सत्ता में आ गई है। दोनों राज्यों की राजनीतिक परिस्थितियां अलग- अलग रही हैं। हालांकि समानता यह है कि दोनों जगह दलबदल हुआ और अपने ही दल के लोगों ने पाला बदला लेकिन फिर भी एकनाथ शिंदे , लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के दलबदल को समान नहीं कहा जा सकता क्योंकि सिंधिया का विद्रोह सत्ता में भागीदारी के लिए था जबकि शिंदे का विद्रोह भारतीय राजनीति में चल रहे परिवारवाद के विरुद्ध था। चाहे भाजपा कितना भी दावा करे कि उसकी इसमें कोई भूमिका नहीं है लेकिन जिस ढंग से घटनाक्रम हुआ उससे साफ हो गया कि इसकी पटकथा भाजपा ने ही लिखी थी या लिखवाई थी।
महाराष्ट्र में बीते दस दिनों से चल रही राजनीतिक उठापटक का बहुप्रतीक्षित अंत मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के रूप में हुआ। ठाकरे पहले अपने साथियों को मनाते रहे उन्हें बातचीत का न्योता देते रहे लेकिन शिंदे गुट को बातचीत करना ही नहीं थी। वह चाहता था कि ठाकरे ही गठबंधन को छोड़कर आएं। ना तो ठाकरे ने गठबंधन छोड़ा और ना ही एकनाथ शिंदे को लौटना था और फिर 10 दिन चले इस नाटकीय घटनाक्रम का पटाक्षेप उद्धव ठाकरे के इस्तीफे के साथ हुआ क्योंकि इस दलबदल की पटकथा भाजपा ने शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे गुट के साथ मिलकर रची थी। उद्धव ठाकरे शिंदे के मुख्यमंत्री बनने के बाद एक्शन में आए और उन्होंने कहा कि यह सरकार शिवसेना की नहीं है और इसके साथ ही उन्होंने शिंदे को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया और सुप्रीम कोर्ट में भी जा पहुंचे । 39 शिवसैनिकों की शिवसेना से बगावत के पीछे तरह-तरह की कहानियां सुनाई जा रही हैं। इनमें ईडी का दबाव, पैसे का भारी लेन-देन, शिवसेना में ही विधायक व मंत्रियों की उपेक्षा तथा इससे भी बढ़कर सत्ता के लिए पार्टी का हिंदु्त्व विरोधी स्टैंड लेना शामिल है। इनमें से कुछ सचाई हो सकती हैं, क्योंकि महाराष्ट्र का यह महानाट्य दो साल पहले मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके साथियों की कमलनाथ सरकार से बगावत से कई गुना बड़ा और ज्यादा जटिल था। संयोग से दोनों मामलो में बगावत की बागडोर ‘शिंदे’ के हाथो में ही थी और ज्योतिरादित्य का असली उपनाम शिंदे ही है। निवर्तमान मुख्यमंत्री और शिवसेना के संस्थापक तथा आराध्य बाला साहब ठाकरे के राजनीतिक उत्तराधिकारी और उनके तीसरे बेटे उद्धव ठाकरे ने अपनी सरकार की विदाई से पहले फेसबुक पर दिए अंतिम भाषण में जो बात बार-बार दोहराई, वो थी कि बागी यह देखकर खुश हो रहे होंगे कि उन्होंने बाला साहब ठाकरे के उत्तराधिकारी पुत्र को गद्दी से उतार कर ही दम लिया। वो इस खुशी में मिठाइयां खा रहे होंगे। एकनाथ शिंदे अभी भी कह रहे हैं कि वह शिवसैनिक हैं और इसे साफ करने के लिए उद्धव ने कहा है कि शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार शिवसेना की नहीं है। शायद उद्धव ठाकरे चाहते थे कि शिवसेना में नेतृत्व को लेकर जारी परिवारवाद को संगठन का हर कार्यकर्ता शिरोधार्य करे याने कि यह विरासत किसी एक पीढ़ी तक सीमित न होकर सात पीढ़ियों के लिए हो। विद्रोह का चेहरा तो एकनाथ थे लेकिन सारे सूत्र भाजपा नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने संभाल रखे थे और शायद उन्होंने यह सोचा भी नहीं था इतना सब करने के बाद और 106 विधायक भाजपा के होने के बाद उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद ना चाहते हुए भी हाईकमान के दबाव में स्वीकार करना होगा। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा इसे फडणवीस की उदारता और बड़े दिल का परिचय देने वाला नियुक्त कर रहे हों, लेकिन देवेंद्र फडणवीस की बॉडी लैंग्वेज काफी कुछ कह जाती है।
और यह भी
एकनाथ शिंदे और उनके साथियों पर सबसे जोरदार शाब्दिक हमला शिवसेना प्रवक्ता और सांसद संजय राऊत ने बोला था और वह भी बागियों के निशाने पर थे तब जब सारा परिदृश्य बदल गया है तब अब संजय का क्या होगा यही एक लाख टके का सवाल है क्योंकि ईडी ने उनसे पूछताछ की है। हालांकि संजय कह रहे हैं कि उन्होंने कुछ गलत नहीं किया है और वह डरने वाले नहीं है तथा जांच में पूरा सहयोग करेंगे। आयकर विभाग ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के सुप्रीमो शरद पवार को भी 2004 के चुनाव के समय दिए गए शपथ पत्र को लेकर एक नोटिस दिया है। जहां तक बागी विधायकों का सवाल है उन्होंने शिवसेना में परिवारवाद को खुली चुनौती देकर नया जोखिम लिया है। जनता उनके थे साथ कितनी खड़ी होती है, इसका खुलासा आगे र उस समय ही न हो पाएगा होगा जब किसी चुनाव में शक्ति परीक्षण का मौका आएगा।
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