देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना का यह कथन कि राजनीतिक विरोध को शत्रुता में बदलना स्वस्थ लोकतंत्र का संकेत नहीं है, एक गंभीर चिन्तन-मनन का विषय इस मायने में बन गया है कि अब जिस तरह के हालात पैदा हो रहे हैं उससे आमजन को आगाह करने का काम उन्होंने किया है जिनके ऊपर सबसे अधिक आम नागरिकों के अधिकारों और लोकतंत्र पर हो रहे हमलों को रोकने का दायित्व है। जब बहुमत से सत्ता में आया दल मनमाने फैसले करने लगता है तब आखिरी उम्मीद सर्वोच्च न्यायालय से ही रहती है। एन.वी. रमना ने कहा है कि कभी सरकार और विपक्ष के बीच जो आपसी सम्मान हुआ करता था वह अब कम हो रहा है। वे राष्ट्रमंडल संसदीय संघ की राजस्थान शाखा के तत्वाधान में संसदीय लोकतंत्र के 75 वर्ष विषयक संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। मौजूदा हालात पर रमना की यह भी बेबाक टिप्पणी थी कि राजनीतिक विरोध को बैर में नहीं बदलना चाहिए जैसा कि हम इन दिनों दुखद रुप से देख रहे हैं। यह स्वस्थ लोकतंत्र के संकेत नहीं हैं। पहले सरकार व विपक्ष के बीच आदर-भाव हुआ करता था, दुर्भाग्य से विपक्ष के लिए अब जगह कम होती जा रही है। दुखद बात यह है कि कानूनों को व्यापक विचार- विमर्श और जांच के बिना पारित किया जा रहा है। खासकर पिछले एक दशक से संसद और विधान मंडलों में शोर-शराबा और हंगामा करना शार्टकट बन गया है। यह स्थिति सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों को रास आती है। एक तरफ सत्तापक्ष को यह आसानी हो जाती है कि वह बिना किसी चर्चा के शोरगुल के मध्य अपना जरुरी काम निपटा लेता है और विपक्ष को भी मीडिया में सुर्खियां मिल जाती हैं। लेकिन इस सबमें एक तो जनता के दैनंदिनी जीवन से जुड़े मुद्दे गौण हो जाते हैं और उन पर चर्चा ही नहीं हो पाती दूसरे बनने वाले कानूनों के गुण-दोष पर विचार भी नहीं हो पाता है, यही कारण है कि कानून तो बन जाते हैं लेकिन इसके साथ ही इनमें संशोधनों की भी होड़ लग जाती है। न तो संसदीय या विधायी समितियों को परीक्षण का मौका मिल रहा है और न ही सदस्यों को अपनी बात रखने का अवसर। एक सुदृढ़ जनोन्मुखी लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत पहले विधेयकों का परीक्षण होना चाहिए, जो कि अब सामान्यतः नहीं हो रहा है और न ही सरकार को कोई सप्ष्टीकरण देना पड़ रहा है। संसद और विधान मंडलों की प्रासंगिकता लोकतंत्र की मजबूती के लिए तभी सार्थक होगी जब वहां विचार- विमर्श हो और जनता की भावनाओं की अभिव्यक्ति हो सके। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह कथन भी महत्वपूर्ण है कि न्यायाधीश कई बार चेहरे देखकर फैसला करते हैं। हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो कुछ फैसले दिए गए हैं और उन पर सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर जिस प्रकार की प्रतिक्रियायें आई हैं तथा एक न्यायाधीश को कुछ सफाई देना पड़ी उस परिपेक्ष में अब समय आ गया है जबकि समग्र रुप से विचार- विमर्श किया जाए और एक जनमत तैयार किया जाये ताकि हर संस्था अपने दायरे में रहकर अपने दायित्वों की पूर्ति करे और कोई भी अपनी मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा को न लांघे। भारत में विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या भी एक तरह से चिंतनीय है क्योंकि रमना के अनुसार देश के 6.10 लाख कैदियों में से लगभग 80 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं और आपराधिक न्याय प्रणाली में पूरी प्रक्रिया एक तरह की सजा है। रमना के इन विचारों के संदर्भ में भी गंभीरता से ध्यान देते हुए कदम उठाने की जरुरत है। अरुण पटेल,लेखक, प्रधान संपादक (ये लेखक के अपने विचार है )
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