नानाजी देशमुख (जन्म : 11अक्टूबर 1916, चंडिकादास अमृतराव देशमुख - मृत्यु : 27 फ़रवरी 2010) एक
भारतीय समाजसेवी थे। वे पूर्व में भारतीय जनसंघ के नेता थे। 1977 में जब
जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उन्हें मोरारजी-मन्त्रिमण्डल में शामिल किया
गया परन्तु उन्होंने यह कहकर कि 60 वर्ष से अधिक आयु के लोग सरकार से बाहर
रहकर समाज सेवा का कार्य करें, मन्त्री-पद ठुकरा दिया। वे जीवन पर्यन्त
दीनदयाल शोध संस्थान के अन्तर्गत चलने वाले विविध प्रकल्पों के विस्तार
हेतु कार्य करते रहे। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने उन्हें राज्यसभा का
सदस्य मनोनीत किया। अटलजी के कार्यकाल में ही भारत सरकार ने उन्हें शिक्षा,
स्वास्थ्य व ग्रामीण स्वालम्बन के क्षेत्र में अनुकरणीय योगदान के लिये
पद्म विभूषण भी प्रदान किया। 2019 में उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया
गया। आरम्भिक जीवन - नानाजी का जन्म महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के
कडोली नामक छोटे से कस्बे में ब्राह्मण परिवार में हुवा था। नानाजी का लंबा
और घटनापूर्ण जीवन अभाव और संघर्षों में बीता. उन्होंने छोटी उम्र में ही
अपने माता-पिता को खो दिया। मामा ने उनका लालन-पालन किया। बचपन अभावों में
बीता। उनके पास शुल्क देने और पुस्तकें खरीदने तक के लिये पैसे नहीं थे
किन्तु उनके अन्दर शिक्षा और ज्ञानप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा थी। अत: इस
कार्य के लिये उन्होने सब्जी बेचकर पैसे जुटाये। वे मन्दिरों में रहे और
पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की। बाद में
उन्नीस सौ तीस के दशक में वे आरएसएस में शामिल हो गये। भले ही उनका जन्म
महाराष्ट्र में हुआ, लेकिन उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान और उत्तरप्रदेश ही
रहा। उनकी श्रद्धा देखकर आर.एस.एस. सरसंघचालक श्री गुरू जी ने उन्हें
प्रचारक के रूप में गोरखपुर भेजा। बाद में उन्हें बड़ा दायित्व सौंपा गया
और वे उत्तरप्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने। आर.एस.एस. कार्यकर्ता के रूप में - नानाजी
देशमुख लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित
हुए। तिलक से प्रेरित होकर उन्होंने समाज सेवा और सामाजिक गतिविधियों में
रुचि ली. आर.एस.एस. के आदि सरसंघचालक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार से उनके
पारिवारिक सम्बन्ध थे। हेडगेवार ने नानाजी की प्रतिभा को पहचान लिया और
आर.एस.एस. की शाखा में आने के लिये प्रेरित किया। 1940 में, डॉ॰
हेडगेवार जी के निधन के बाद नानाजी ने कई युवकों को महाराष्ट्र की
आर.एस.एस. शाखाओं में शामिल होने के लिये प्रेरित किया। नानाजी उन लोगों
में थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में अर्पित करने के
लिये आर.एस.एस. को दे दिया। वे प्रचारक के रूप में उत्तरप्रदेश भेजे गये।
आगरा में वे पहली बार दीनदयाल उपाध्याय से मिले। बाद में वे गोरखपुर गये और
लोगों को संघ की विचारधारा के बारे में बताया। गोरखपुर में अपने प्रवास के
दौरान नानाजी देशमुख बड़हलगंज से 9 किलोमीटर पहले स्थित हाटा बाजार गांव
में, संघ कार्य के विस्तार के लिए आये। यहां पर यहां के निवासी बाबू जंग
बहादुर चंद उर्फ जंगी सन्यासी के यहां रहकर, उनको संघ का स्ववयंसेवक बनाया
और इस क्षेत्र की पहली शाखा शुरू की, उनके इस राष्ट्र सेवा के कार्य में
बाबा राघव दास का भी सहयोग मिलता रहा, उस समय श्री जंगी सन्यासी के बंगले
पर क्षेत्र के तमाम मनीषी, संत और राष्ट्रसेवक एक जलती धूनी के पास बैठा
करते थे। उस धूनी पर बैठने वालों में प्रमुख नानाजी देशमुख, बाबा राघव दास,
स्वामी करपात्री जी महाराज और अन्य लोग थे यह कार्य आसान नहीं था। संघ के
पास दैनिक खर्च के लिए भी पैसे नहीं होते थे। नानाजी को धर्मशालाओं में
ठहरना पड़ता था और लगातार धर्मशाला बदलना भी पड़ता था, क्योंकि एक धर्मशाला
में लगातार तीन दिनों से ज्यादा समय तक ठहरने नहीं दिया जाता था। अन्त में
बाबा राघवदास ने उन्हें इस शर्त पर ठहरने दिया कि वे उनके लिये खाना बनाया
करेंगे। तीन साल के अन्दर उनकी मेहनत रंग लायी और गोरखपुर के आसपास संघ की
ढाई सौ शाखायें खुल गयीं। नानाजी ने शिक्षा पर बहुत जोर दिया। उन्होंने
पहले सरस्वती शिशु मन्दिर की स्थापना गोरखपुर में की। 1947 में,
आर.एस.एस. ने राष्ट्रधर्म और पाञ्चजन्य नामक दो साप्ताहिक और स्वदेश
(हिन्दी समाचारपत्र) निकालने का फैसला किया। अटल बिहारी वाजपेयी को
सम्पादन, दीन दयाल उपाध्याय को मार्गदर्शन और नानाजी को प्रबन्ध निदेशक की
जिम्मेदारी सौंपी गयी। पैसे के अभाव में पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन संगठन
के लिये बेहद मुश्किल कार्य था, लेकिन इससे उनके उत्साह में कमी नहीं आयी
और सुदृढ राष्ट्रवादी सामाग्री के कारण इन प्रकाशनों को लोकप्रियता और
पहचान मिली। 1948 में गान्धीजी की हत्या के बाद आर.एस.एस. पर प्रतिबन्ध लगा
दिया गया, जिससे इन प्रकाशन कार्यों पर व्यापक असर पड़ा। फिर भी भूमिगत
होकर इनका प्रकाशन कार्य जारी रहा। राजनीतिक जीवन - जब आर.एस.एस. से
प्रतिबन्ध हटा तो राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का
फैसला हुआ। श्री गुरूजी ने नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के
महासचिव का प्रभार लेने को कहा। नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में
पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। 1957 तक जनसंघ ने
उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयाँ खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी
ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ
उत्तरप्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी। जनसंघ के कार्यकर्ताओं पर
नानाजी की गहरी पकड़ थी। 1957 में रामपुर उत्तर प्रदेश के कार्यकर्ता राम
प्रकाश सर्राफ ने जब नवाबी दबाव के बावजूद जनसंघ के उम्मीदवार को चुनाव
लड़ाने का निर्णय लिया तो नाना जी ने इसकी प्रशंसा की तथा कार्यकर्ताओं का
उत्साह बढ़ाया। उत्तरप्रदेश की बड़ी राजनीतिक हस्ती चन्द्रभानु गुप्त को
नानाजी की वजह से तीन बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। एक बार,
राज्यसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता और चंद्रभानु के पसंदीदा उम्मीदवार को
हराने के लिए उन्होंने रणनीति बनायी। 1957 में जब गुप्त स्वयं लखनऊ से
चुनाव लड़ रहे थे, तो नानाजी ने समाजवादियों के साथ गठबन्धन करके बाबू
त्रिलोकी सिंह को बड़ी जीत दिलायी। 1957 में चन्द्रभानु गुप्त को दूसरी बार
हार को मुँह देखना पड़ा। उत्तरप्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की
दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों
के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया। न सिर्फ पार्टी
कार्यकर्ताओं से बल्कि विपक्षी दलों के साथ भी नानाजी के सम्बन्ध बहुत
अच्छे थे। चन्द्रभानु गुप्त भी, जिन्हें नानाजी के कारण कई बार चुनावों में
हार का सामना करना पड़ा था, नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें
प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे। डॉ॰ राम मनोहर लोहिया से उनके अच्छे
सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी। एक बार
नानाजी ने डॉ॰ लोहिया को भारतीय जनसंघ कार्यकर्ता सम्मेलन में बुलाया, जहाँ
लोहिया जी की मुलाकात दीन दयाल उपाध्याय से हुई। दोनों के जुड़ाव से
भारतीय जनसंघ समाजवादियों के करीब आया। दोनों ने मिलकर कांग्रेस के कुशासन
का पर्दाफाश किया। 1967 में भारतीय जनसंघ संयुक्त विधायक दल का हिस्सा
बन गया और चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकार में शामिल भी हुआ। नानाजी
के चौधरी चरण सिंह और डॉ राम मनोहर लोहिया दोनों से ही अच्छे सम्बन्ध थे,
इसलिए गठबन्धन निभाने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी। उत्तरप्रदेश की पहली
गैर-कांग्रेसी सरकार के गठन में विभिन्न राजनीतिक दलों को एकजुट करने में
नानाजी जी का योगदान अद्भुत रहा। नानाजी, विनोबा भावे के भूदान आन्दोलन
में सक्रिय रूप से शामिल हुए। दो महीनों तक वे विनोबाजी के साथ रहे। वे
उनके आन्दोलन से अत्यधिक प्रभावित हुए। जेपी आन्दोलन में जब जयप्रकाश
नारायण पर पुलिस ने लाठियाँ बरसायीं उस समय नानाजी ने जयप्रकाश को सुरक्षित
निकाल लिया। इस दुस्साहसी कार्य में नानाजी को चोटें आई और इनका एक हाथ
टूट गया। जयप्रकाश नारायण और मोरारजी देसाई ने नानाजी के साहस की भूरि-भूरि
प्रशंसा की। सामाजिक जीवन - 1980 में साठ साल की उम्र में उन्होंने
सक्रिय राजनीति से सन्यास लेकर आदर्श की स्थापना की। बाद में उन्होंने अपना
पूरा जीवन सामाजिक और रचनात्मक कार्यों में लगा दिया। वे आश्रमों में रहे
और कभी अपना प्रचार नहीं किया। उन्होंने दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की
और उसमें रहकर समाज-सेवा की। उन्होंने चित्रकूट में चित्रकूट ग्रामोदय
विश्वविद्यालय की स्थापना की। यह भारत का पहला ग्रामीण विश्वविद्यालय है और
वे इसके पहले कुलाधिपति थे। 1999 में एन० डी० ए० सरकार ने उन्हें राज्यसभा
का सांसद बनाया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या नानाजी के लिये बहुत
बड़ी क्षति थी। उन्होंने नई दिल्ली में अकेले दम पर दीनदयाल शोध संस्थान की
स्थापना की और स्वयं को देश में रचनात्मक कार्य के लिये समर्पित कर दिया।
उन्होंने गरीबी निरोधक व न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम चलाया, जिसके अन्तर्गत
कृषि, कुटीर उद्योग, ग्रामीण स्वास्थ्य और ग्रामीण शिक्षा पर विशेष बल
दिया। राजनीति से हटने के बाद उन्होंने संस्थान के अध्यक्ष का पद संभाला और
संस्थान की बेहतरी में अपना सारा समय अर्पित कर दिया। उन्होंने संस्थान की
ओर से रीडर्स डाइजेस्ट की तरह मंथन नाम की एक पत्रिका निकाली जिसका कई
वर्षों तक के० आर० मलकानी ने सम्पादन किया। नानाजी ने उत्तरप्रदेश और
महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े जिलों गोंडा और बीड में बहुत से सामाजिक कार्य
किये। उनके द्वारा चलायी गयी परियोजना का उद्देश्य था-"हर हाथ को काम और हर
खेत को पानी।" 1989 में वे पहली बार चित्रकूट आये और अन्तिम रूप यहीं
बस गये। उन्होंने भगवान श्रीराम की कर्मभूमि चित्रकूट की दुर्दशा देखी। वे
मंदाकिनी के तट पर बैठ गये और अपने जीवन काल में चित्रकूट को बदलने का
फैसला किया। चूँकि अपने वनवास-काल में राम ने दलित जनों के उत्थान का कार्य
यहीं रहकर किया था, अत: इससे प्रेरणा लेकर नानाजी ने चित्रकूट को ही अपने
सामाजिक कार्यों का केन्द्र बनाया। उन्होंने सबसे गरीब व्यक्ति की सेवा
शुरू की। वे अक्सर कहा करते थे कि उन्हें राजा राम से वनवासी राम अधिक
प्रिय लगते हैं अतएव वे अपना बचा हुआ जीवन चित्रकूट में ही बितायेंगे। ये
वही स्थान है जहाँ राम ने अपने वनवास के चौदह में से बारह वर्ष गरीबों की
सेवा में बिताये थे। उन्होंने अपने अन्तिम क्षण तक इस प्रण का पालन किया।
उनका निधन भी चित्रकूट में ही रहते हुए 27 फ़रवरी 2010 को हुआ। दीनदयाल शोध संस्थान - पंडित
दीनदयाल उपाध्याय की संकल्पना एकात्म मानववाद को मूर्त रूप देने के लिये
नानाजी ने 1972 में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। उपाध्याय जी यह
दर्शन समाज के प्रति मानव की समग्र दृष्टि पर आधारित है जो भारत को
आत्मनिर्भर बना सकता है। नानाजी देशमुख ने एकात्म मानववाद के आधार पर
ग्रामीण भारत के विकास की रूपरेखा बनायी। शुरुआती प्रयोगों के बाद
उत्तरप्रदेश के गोंडा और महाराष्ट्र के बीड जिलों में नानाजी ने गाँवों के
स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, कृषि, आय, अर्जन, संसाधनों के संरक्षण व
सामाजिक विवेक के विकास के लिये एकात्म कार्यक्रम की शुरुआत की। पूर्ण
परिवर्तन कार्यक्रम का आधार लोक सहयोग और सहकार है। चित्रकूट परियोजना
या आत्मनिर्भरता के लिये अभियान की शुरुआत 26 जनवरी 2005 को चित्रकूट में
हुई जो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। इस परियोजना का
उद्देश्य 2005 के अन्त तक इन गाँवों में आत्मनिर्भरता हासिल करना था किन्तु
यह परियोजना 2010 में पूरी हो सकी। परियोजना से यह उम्मीद तो जगी है कि
चित्रकूट के आसपास कम से कम पाँच सौ गाँवों को तो आत्मनिर्भर बना ही लिया
जायेगा। निस्सन्देह यह परियोजना भारत और दुनिया के लिये एक आदर्श बन सकती
है। प्रशंसा और सम्मान - वर्ष 2019 में नानाजी को सर्वोच्च नागरिक
पुरस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया गया. वर्ष 1999 में नानाजी देशमुख को
पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। तत्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल
कलाम ने नानाजी देशमुख और उनके संगठन दीनदयाल शोध संस्थान की प्रशंसा की।
इस संस्थान की मदद से सैकड़ों गाँवों को मुकदमा मुक्त विवाद सुलझाने का
आदर्श बनाया गया। वर्ष 2019 में नानाजी को भारत के सर्वोच्च
सम्मान भारतरत्न से सम्मानित किया गया। निधन - नानाजी देशमुख ने 95
साल की उम्र में चित्रकूट स्थित भारत के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय (जिसकी
स्थापना उन्होंने खुद की थी) में रहते हुए अन्तिम साँस ली। वे पिछले कुछ
समय से बीमार थे, लेकिन इलाज के लिये दिल्ली जाने से मना कर दिया। नानाजी
देश के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपना शरीर छात्रों के मेडिकल शोध
हेतु दान करने का वसीयतनामा (इच्छा पत्र) मरने से काफी समय पूर्व 1997 में
ही लिखकर दे दिया था, जिसका सम्मान करते हुए उनका शव अखिल भारतीय
आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली को सौंप दिया गया।
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