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इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!

Updated on 31-12-2020 05:16 PM
इक्कीसवीं सदी को इक्कीसवां साल लग रहा है...!इसलिए नहीं कि आज की तारीख चालू साल की आखिरी तारीख है और जिसे फिर दोहराया नहीं जा सकेगा, इसलिए भी नहीं क्योंकि, कुछ लोगों की राय में न तो यह जाने वाला और न ही आने वाला साल ‘हमारा’ है, लिहाजा हमे कुछ और सोचना चाहिए। मान लिया, लेकिन एक साल के रूप में किसी कालखंड की धार्मिक बुनियाद में पड़े बगैर यह जायजा लेना इसलिए मजेदार है कि भई बीते साल को क्या नाम दें और कल से दस्तक देने वाले आगत साल के लिए मन में ‍िकस तरह का स्पेस बनाएं ?
चूंकि हम भारतीयों की सोच ज्यादातर मामलों में पारंपरिक होती है, इसलिए चीजों को नई नजर से देखना, समझना उसे पारिभाषित करना हमे बेकार का शगल लगता है। यूं कहने को इस बार भी तमाम लोग निवर्तमान वर्ष की शास्त्रीय समीक्षा में जुटे हैं। बनिए के बही खाते की तरह हानि-लाभ का हिसाब पेश किया जा रहा है। कुछ ज्यादा समझदार लोगों ने नए साल के चौघडि़ए को अपने ढंग से बांचने और सेट करने की तैयारी भी शुरू कर दी है। लेकिन बाकी दुनिया बीत रहे साल और देहरी के बाहर खड़े साल को कुछ अलग और ‍िदलचस्प अंदाज में देख और समझने की कोशिश भी कर रही है। और ये अंदाज पूरे साल को महामारी के स्यापे के तौर पर देखने और छाती कूटने से जुदा है।
अंग्रेजी में एक वेबसाइट 'डिक्शनरी डाॅट काॅम' ने पाठकों के सामने यह सवाल उछाला कि साल 2020 को अगर एक शब्द में पारिभाषित करना हो तो कैसे करेंगे? वजह यह कि न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया ही कोविड 19 की महामारी से जूझती रही है। हमने साक्षात महसूसा कि कैसे एक अत्यंत सूक्ष्म वायरस ने पूरे विश्व को अपनी जीवन शैली बदलने पर विवश कर दिया। ( यह बात अलग है कि अपने हिंदी वाले ऐसे पचड़ो में यह मानकर पड़ते ही नहीं कि बीती ताहि‍ बिसार दे, आगे की सुधि लेय।) बहरहाल जो जवाब मिले, वो वाकई मजेदार हैं। पहला शब्द था- अभूतपूर्व ( अनप्रेसीडेंटेड) आशय ये कि 2020 में जो कुछ और ‍िजस तरीके से घटा, वह दुनिया के लिए एकदम  असाधारण और अप्रत्याशित था। दूसरा शब्द था- पेचीदा ( एनटेंगलमेंट) साल। यानी पूरा वर्ष कई उलझनों में फंसा हुआ रहा। तीसरा शब्द था- अनूठा ( हिलेशियस) यानी अपनी तमाम नकारात्मकताअों के बाद भी पूर्ववर्ती सालों से काफी अलग। चौथा था-सर्वनाशी ( एपोकेलिप्टिक) अर्थात ऐसा साल जिसने काफी कुछ मिटाकर रख दिया और जो भविष्य का संकेतक भी है। पांचवा शब्द था-अव्यवस्था से भरा (अोम्नीशेम्बल्स)। अोम्नीशेम्बल्स शब्द दरअसल ब्रिटेन में बोली जाने वाली चालू अंग्रेजी का है। इसलिए हिंदी अनुवाद में थोड़ा फर्क हो सकता है।
यहां अनुवाद की प्रामाणिकता से ज्यादा अहम बात ये है कि इस व्यतीत हो रहे साल को हमने किस रूप में अनुभूत किया या कर रहे हैं? आने वाली पीढि़यों को यह वर्ष किस रूप में याद रहेगा या वो इसे याद करना चाहेंगी? पूर्वजों की मूर्खताअों के रूप में या मानवनिर्मित आपदाअो न्यौतने के रूप में? मानव सभ्यता की असहायता के रूप में या फिर मनुष्य मा‍त्र के अहंकार को मिली सजा के रूप में? इस दृष्टि से सोचें तो वर्तमान 21 वीं सदी का यह पहला साल रहा,जिसने पूरी दुनिया को एक साथ भीतर तक हिला कर रख दिया। ऐसा किसी हद तक पिछली सदी में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जरूर हुआ था। लेकिन कुछ देश तब भी उससे अछूते रहे थे। अलबत्ता कोरोना के रूप में एक वायरस ने साबित कर ‍िदया कि मानव सभ्यता उसके आगे कितनी बौनी है, परमाणु हथियार भी एक वायरस के कोप के आगे कितने मामूली हैं। यह बात अलग है कि मनुष्य इस वायरस का भी तोड़ खोज रहा है, बल्कि खोज ही लिया है। लेकिन यह अलार्म कायम रहेगा कि हमे अपने आप के अलावा भावी जैविक राक्षसों से अभी कई लड़ाइयां लड़नी हैं। ये लड़ाइयां धर्मोन्माद,नस्ली विद्वेष, जमीन के लिए युद्धों और बाजार पर वैश्विक वर्चस्व की लड़ाइयों से कही ज्यादा बड़ी और मनुष्य मात्र के अस्तित्व को बचाने की ‍िजद से भरी होंगीं।
यूं भी बीत रहे साल में मनुष्य अपने को बचाने में ही इतना मशगूल रहा कि ये साल यूएनअो ने अंतरराष्ट्रीय पौध स्वास्थ्य वर्ष भी घोषित किया हुआ था, यह कोरोना के हल्ले में पौधों को भी ठीक से पता नहीं चल पाया। बीता साल इसलिए भी अविस्मरणीय रहेगा कि इसने दुनिया के शब्द कोश को एक साथ कई नए शब्द दिए और ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ जैसे अत्यंत 'असामाजिक' शब्द को आरोपित किया और उसे जबरिया मान्य बनाया।
गहराई से देखें तो काल घटनाअों का जन्मदाता है, उसका माॅनीटर भी है। लेकिन वह पिता के रूप में है। उसे मां का दर्जा कभी नहीं दिया गया। शायद इसलिए होगा कि काल घटनाअों का  जन्मदाता भले हो, लेकिन वह ममता के गुण को पूरी तरह धारण नहीं करता या ऐसा करने से बचता है। काल स्वभावत: निर्मम होता है। संवेदनाहीन होता है। वह स्वयं घटित होने का कारण होता है, लेकिन घटनाअों से विचलित, उद्वेलित या व्यथित नहीं होता। जैसे ममता की कोई सीमा नहीं है, वैसे ही काल भी अनंत है। वह अनंत है, इसलिए स्वयं पीछे मुडकर नहीं देखता। यह बावरा मनुष्य ही है, जो काल के आगे क्षणिक होते हुए भी बार-बार आगे पीछे देखता है, डरता है, बहकता है फिर भी  धीरे-धीरे आगे सरकता है। काल के आगे सिर झुकाते हुए भी उसे चुनौती देने का जब-तब दुस्साहस करता है।
हम एक पूरी सदी को हम गणना और इतिहास के  आकलन की अपनी सुविधा की दृष्टि से हम दशकों में बांट लेते हैं। लेकिन यहां भी एक दिक्कत है। सदी के पहले दशक को क्या कहें? पहली दहाई की मुश्किल यह है कि उसमें कई बार बहुत कुछ ऐसा घटता या छुपा होता है, जो आगे के नौ दशकों के लिए राॅ मटेरियल की तरह काम करता है। इसलिए उसका नामकरण जरा कठिन है। अंग्रेजी में सदी के पहले दो दशकों के लिए बोलचाल की भाषा में दो शब्द सामने आए। पहला है 'द आॅट' यानी ‘कुछ भी’ और दूसरा है 'द नाॅट।' यानी शरारती साल। हिंदी में इन्हें क्या कहा जाए, आप तय करें।
यूं दुनिया में बीसियों कैलेंडर हैं, जिनकी अपनी काल गणनाएं हैं। ये कैलेंडर सभ्यता, धर्म और सामाजिक आग्रहों के हिसाब से बनाए गए हैं। सबको अपने-अपने कैलेंडर सही और औचित्यपूर्ण भी लगते हैं। बावजूद इसके ग्रिगोरियन कैलेंडर सर्वाधिक मान्य इसलिए है, क्योंकि दुनिया भर के व्यवहार इसी के आधार पर होते हैं। इसे कोई चाहकर भी प्रतिस्थापित नहीं कर सकता। लिहाजा एक कालखंड के खत्म होने और दूसरे के शुरू होने पर मुग्ध तो हुआ ही जा सकता है। यूं लोग वर्ष 2020 की बैलेंस शीट अपने ढंग से बना रहे हैं। बनाते रहेंगे। क्योंकि वह भी एक आधुनिक कर्मकांड है। उसके अपने-अपने एंगल हैं और रहेंगे। इससे हटकर अब कुछ घंटों बाद ही लैंड करने वाले नए साल यानी 2021 के बारे में भी सोचें। कोरोना की मार से खुद को सहलाता रहने वाला ये साल कुछ 'रोमांटिक' भी होगा, क्योंकि यह 21 वीं सदी का 21 वां साल होगा। यानी स्कूल-काॅलेज के हैंग अोवर से बाहर निकलने का साल। जो नहीं निकले हैं, उन्हें झिंझोड़ने वाला साल, जीवन की सच्चाइयों से उनींदी आंखों और छलकते अरमानो के साथ दो-चार होने का साल। आगत साल इस बात की ताकीद होगा कि वर्तमान सदी अब यह कहने की स्थिति में नहीं रहेगी कि मेरी उम्र ही क्या है ! यह सदी के वयस्क होने और समय के प्रौढ़ हो जाने का शुरूआती साल भी है। इसी संदर्भ में फेसबुक पर प्रवीण दवसारिया के ये पंक्तियां दिखीं.. बूढ़ा दिसम्बर जवां जनवरी के कदमों मे बिछ रहा है, लो बीसवीं सदी ( यहां इक्कीसवीं होना चा‍‍िहए) को इक्कीसवां साल लग रहा है..!
अजय बोकिल,वरिष्ठ संपादक,‘राइट क्लिक’

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